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भूमि-अधिग्रहण अध्यादेश अपनी मौत मर गया

भूमि-अधिग्रहण अध्यादेश अपनी मौत मर गया। उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मरने दिया, यह अपने आप में बड़ी बात है। वे चाहते तो उस अध्यादेश को फिर जारी करवा देते। अध्यादेश की अवधि का लाभ उठाकर वे किसानों को बेदखल करके पूंजीपतियों को अनुग्रहीत भी कर सकते थे, जैसा कि उनके विरोधियों का आरोप था। लेकिन साल भर में इस अध्यादेश के तहत इस तरह का कोई भी अप्रिय काम न करना, इस बात का सूचक है कि इस अध्यादेश के पीछे कोई दुराशय नहीं था। कोई अनुचित दबाव नहीं था। सेठों की कोई लाॅबी काम नहीं कर रही थी। यदि कर रही होती तो वह अध्यादेश-काल में ही हाथ साफ कर लेती।

<p>भूमि-अधिग्रहण अध्यादेश अपनी मौत मर गया। उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मरने दिया, यह अपने आप में बड़ी बात है। वे चाहते तो उस अध्यादेश को फिर जारी करवा देते। अध्यादेश की अवधि का लाभ उठाकर वे किसानों को बेदखल करके पूंजीपतियों को अनुग्रहीत भी कर सकते थे, जैसा कि उनके विरोधियों का आरोप था। लेकिन साल भर में इस अध्यादेश के तहत इस तरह का कोई भी अप्रिय काम न करना, इस बात का सूचक है कि इस अध्यादेश के पीछे कोई दुराशय नहीं था। कोई अनुचित दबाव नहीं था। सेठों की कोई लाॅबी काम नहीं कर रही थी। यदि कर रही होती तो वह अध्यादेश-काल में ही हाथ साफ कर लेती।</p>

भूमि-अधिग्रहण अध्यादेश अपनी मौत मर गया। उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मरने दिया, यह अपने आप में बड़ी बात है। वे चाहते तो उस अध्यादेश को फिर जारी करवा देते। अध्यादेश की अवधि का लाभ उठाकर वे किसानों को बेदखल करके पूंजीपतियों को अनुग्रहीत भी कर सकते थे, जैसा कि उनके विरोधियों का आरोप था। लेकिन साल भर में इस अध्यादेश के तहत इस तरह का कोई भी अप्रिय काम न करना, इस बात का सूचक है कि इस अध्यादेश के पीछे कोई दुराशय नहीं था। कोई अनुचित दबाव नहीं था। सेठों की कोई लाॅबी काम नहीं कर रही थी। यदि कर रही होती तो वह अध्यादेश-काल में ही हाथ साफ कर लेती।

यह अलग बात है कि यदि भूमि अधिग्रहण का नया कानून बन जाता तो वे किसानों के जमीनों पर हाथ साफ़ किए बिना नहीं रहते लेकिन अब यह अंदाज़ लगता है कि भाजपा सरकार इसीलिए भूमि-अधिग्रहण के कई प्रावधान बदल रही थी कि गांवों का द्रुत विकास हो। वहां नहरें,कुए, तालाब, स्कूल, अस्पताल, कल-कारखाने जल्दी खुलें। लेकिन इस नए विधेयक को लाने में सरकार ने जरुरत से ज्यादा जल्दबाजी दिखा दी। इसी कारण उसके लक्ष्यों पर आम लोगों को भी संदेह हो गया। जो गहरी सोच के लोग हैं, उन्हें लग रहा था कि सरकार हमारे गांवों का अंधाधुंध शहरीकरण करने पर तुली हुई है और ‘स्मार्ट सिटी’ के सब्जबाग भारतीय जीवन-पद्धति को ही चौपट कर देगा। इसीलिए संघ परिवार भी ठिठक गया।

इसके अलावा गुजरात के पटेल आंदोलन ने भी मोदी के होश फाख्ता कर दिए। यदि देश की किसान जातियां उठ खड़ी हुईं तो यह भूमि अधिग्रहण विधेयक तो मोदी के गले का सांप ही बन जाएगा। भूमि-अधिग्रहण और आरक्षण की मांग- ये दोनों मिलकर अगले एक साल में ही मोदी को वापस गुजरात भिजवा देते। मोदी में अपने स्वार्थ के प्रति सघन जागरुकता है। व्यावहारिकता है और लचीलापन है। इसीलिए मोदी ने यह साहस दिखाया कि भूमि-अधिग्रहण को ग्रहण लगने दिया। सवा साल सरकार चलाने के दौरान मोदी ने भूमि-अधिग्रहण और पाकिस्तान-नीति में जो गच्चा खाया, उससे वे कोई सबक लेंगे या नहीं ? नौकरशाहों और चाटुकारों से घिर जाने का नतीजा यही होता है। अपने मंत्रिमंडलीय साथियों, अनुभवी पार्टी-कार्यकर्त्ताओं और मार्गदर्शक मंडल की उपेक्षा का यह प्रारंभिक सबक है। विरोधी नेताओं से तार जोड़े रखने का भी कोई ठोस उपाय मोदी के पास नहीं है। अब इस घटना के बाद शायद उनमें दिल्ली का तख्त संभालने की काबिलियत पैदा हो जाए।

लेखक वेद प्रताप वैदिक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.

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