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दुख-सुख

ये बेचारे माट्साब…

आज जन्माष्टमी के साथ शिक्षक दिवस भी है और हर साल बेचारे माट्साब शिक्षक दिवस के मौके पर ही पूजन-सम्मान के योग्य समझे जाते हैं। शॉल-श्रीफल के साथ शिक्षकों की महत्ता के गुणगान गाए जाते हैं, जिसमें राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री भी पीछे नहीं रहे। साल के 363 दिन (शिक्षक दिवस के अलावा थोड़ी-बहुत पूछपरख इन माट्साबों की गुरु पूर्णिमा पर भी हो जाती है।) बेचारे ये शिक्षक, जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में माट्साब कहा जाता है, के पास पढ़ाने के अलावा दूसरे तमाम बेगारी के काम रहते हैं। कभी चुनाव की ड्यूटी, तो कभी जनगणना, तो कभी फलां सर्वे, तो ढिकानी रिपोर्ट इन मास्टरों को बनाकर देना पड़ती है।

<p>आज जन्माष्टमी के साथ शिक्षक दिवस भी है और हर साल बेचारे माट्साब शिक्षक दिवस के मौके पर ही पूजन-सम्मान के योग्य समझे जाते हैं। शॉल-श्रीफल के साथ शिक्षकों की महत्ता के गुणगान गाए जाते हैं, जिसमें राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री भी पीछे नहीं रहे। साल के 363 दिन (शिक्षक दिवस के अलावा थोड़ी-बहुत पूछपरख इन माट्साबों की गुरु पूर्णिमा पर भी हो जाती है।) बेचारे ये शिक्षक, जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में माट्साब कहा जाता है, के पास पढ़ाने के अलावा दूसरे तमाम बेगारी के काम रहते हैं। कभी चुनाव की ड्यूटी, तो कभी जनगणना, तो कभी फलां सर्वे, तो ढिकानी रिपोर्ट इन मास्टरों को बनाकर देना पड़ती है।</p>

आज जन्माष्टमी के साथ शिक्षक दिवस भी है और हर साल बेचारे माट्साब शिक्षक दिवस के मौके पर ही पूजन-सम्मान के योग्य समझे जाते हैं। शॉल-श्रीफल के साथ शिक्षकों की महत्ता के गुणगान गाए जाते हैं, जिसमें राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री भी पीछे नहीं रहे। साल के 363 दिन (शिक्षक दिवस के अलावा थोड़ी-बहुत पूछपरख इन माट्साबों की गुरु पूर्णिमा पर भी हो जाती है।) बेचारे ये शिक्षक, जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में माट्साब कहा जाता है, के पास पढ़ाने के अलावा दूसरे तमाम बेगारी के काम रहते हैं। कभी चुनाव की ड्यूटी, तो कभी जनगणना, तो कभी फलां सर्वे, तो ढिकानी रिपोर्ट इन मास्टरों को बनाकर देना पड़ती है।

देखा जाए तो गरीब की जोरू और मास्टरों की स्थिति में कोई बहुत-ज्यादा फर्क नहीं है। अब हालांकि वैसे मास्टर भी नहीं रहे, उन्होंने भी बदलते समय के साथ अपना मास्टरी का चोला उतार डाला, वरना एक समय वह भी था जब बच्चे अपने मां-बाप की बजाय इन मास्टरों से ही ज्यादा घबराए नजर आते थे। अब तो जमाना ऐसा है कि बेचारा मास्टर किसी बच्चे को ना तो मुर्गा बना सकता और ना ही छड़ी से पीट सकता है। अब तो डांटना भी गुनाह बन जाता है, जिसकी खबरें मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज के साथ आती है और तगड़ा डोनेशन और मोटी फीस लेने वाला स्कूल प्रबंधन भी अपने आसामी यानि पालकों के पक्ष में ही खड़ा नजर आता है। सरकारी स्कूलों के मास्टरों की हालत तो वैसी ही है और उनके पास पढ़ाई-लिखाई की बजाय मध्यान्ह भोजन पकवाने, बच्चों को खिलाने से लेकर तमाम दूसरे सरकारी आयोजनों का बोझा रहता है।

ये मास्टर गाहे-बगाहे ऐसे आयोजनों में भीड़ जुटाने के काम भी आते हैं, तब उनके पास जिम्मा होता है कि वे बच्चों को ऐसे आयोजनों में लेकर जाएं और घंटों तक अनुशासन के साथ बिठाए भी रखें। निजी स्कूलों के मास्टरों की स्थिति मालिकों के शोषण से लेकर कम वेतन देकर अधिक पर साइन करवाने की रही है। यह बात अलग है कि राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री को इन बेचारे माट्साबों से बात कर उनकी समस्याएं सुनना थी, तो उल्टा प्रायोजित भाषण और पहले से रटवाए सवाल बच्चों से पुछवाए गए। किसी इवेंट मैनेजमेंट की तरह राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने शिक्षक दिवस के एक दिन पहले ये क्लास लगाई। अब इससे देश की बदहाल शिक्षा व्यवस्था कैसे सुधरेगी, ये तो भगवान ही जाने। बहरहाल परम्परा है, तो उसे निभाने की अनिवार्यता और मजबूरी भी। मुझे तो ख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की ये पंक्तियां याद आ रही है…

‘साल भर सांप दिखे तो उसे भगाते हैं, मारते हैं।
मगर नाग पंचमी को सांप की तलाश होती है,
दूध पिलाने और पूजा करने के लिए।
सांप की तरह ही शिक्षक दिवस पर
रिटायर्ड शिक्षक की तलाश होती है, सम्मान करने के लिए…।’

और हां अंत में चलते-चलते सोशल मीडिया के भी तमाम धुरंधर माट्साबों को इस नाचीज छात्र का नमन्…

लेखक राजेश ज्वेल हिन्दी पत्रकार और राजनीतिक समीक्षक हैं. सम्पर्क- 098270-20830 Email : [email protected]

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