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प्रदेश

यूपी में माया-मुलायम एका को लेकर अटकलों का दौर

अजय कुमार, लखनऊ

उत्तर प्रदेश में भले ही महागठबंधन की कोई आस न हो लेकिन बीजेपी विरोधी नेता इस बात को हवा खूब दे रहे है। कयास लगाये जा रहे हैं कि जब बीजेपी को रोकने के लिये नीतीश-लालू हाथ मिला सकते हैं तो मुलायम और माया क्यों नहीं ऐसा कर सकते हैं।कयासों का दौर इस लिये भी चल रहा है क्योंकि यूपी-बिहार का सियासी पारा करीब-करीब एक जैसा ही है। बिहार की तरह ही यूपी में भी विकास से ज्यादा जातिवादी की बात होती है। बिहार में कई सीटों पर मुस्लिम वोट निर्णायक होते हैं तो उत्तर प्रदेश में भी कमोवेश यही स्थिति है।

<p>अजय कुमार, लखनऊ</p> <p>उत्तर प्रदेश में भले ही महागठबंधन की कोई आस न हो लेकिन बीजेपी विरोधी नेता इस बात को हवा खूब दे रहे है। कयास लगाये जा रहे हैं कि जब बीजेपी को रोकने के लिये नीतीश-लालू हाथ मिला सकते हैं तो मुलायम और माया क्यों नहीं ऐसा कर सकते हैं।कयासों का दौर इस लिये भी चल रहा है क्योंकि यूपी-बिहार का सियासी पारा करीब-करीब एक जैसा ही है। बिहार की तरह ही यूपी में भी विकास से ज्यादा जातिवादी की बात होती है। बिहार में कई सीटों पर मुस्लिम वोट निर्णायक होते हैं तो उत्तर प्रदेश में भी कमोवेश यही स्थिति है।</p>

अजय कुमार, लखनऊ

उत्तर प्रदेश में भले ही महागठबंधन की कोई आस न हो लेकिन बीजेपी विरोधी नेता इस बात को हवा खूब दे रहे है। कयास लगाये जा रहे हैं कि जब बीजेपी को रोकने के लिये नीतीश-लालू हाथ मिला सकते हैं तो मुलायम और माया क्यों नहीं ऐसा कर सकते हैं।कयासों का दौर इस लिये भी चल रहा है क्योंकि यूपी-बिहार का सियासी पारा करीब-करीब एक जैसा ही है। बिहार की तरह ही यूपी में भी विकास से ज्यादा जातिवादी की बात होती है। बिहार में कई सीटों पर मुस्लिम वोट निर्णायक होते हैं तो उत्तर प्रदेश में भी कमोवेश यही स्थिति है।

यूपी में भी अगड़ो-पिछड़ों की सियासत कभी आरक्षण के नाम पर तो कभी अन्य मिलने वाली सरकारी सुविधाओं के नाम पर गरमाई रहती है। सबसे बड़ी बात यह है कि जिस तरह लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच कट्टर दुश्मनी थी,वैसी ही यूपी में माया-मुलायम के बीच देखने को मिलती है। कांग्रेस बिहार की तरह यूपी में भी हासिये पर है और सपा-बसपा के सहारे उसे यहां भी अपनी नैया पार लगाने में कोई संकोच नहीं है।बस फर्क इतना है कि बिहार में लालू-नीतीश थे जो बीजेपी को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे, लेकिन मायावती भाजपा और समाजवादी पार्टी को बराबर का ‘दुश्मन’ मान कर चलती हैं।इसके अलावा गठबंधन को लेकर बसपा के पुराने अनुभव भी अच्छे नहीं हैं। जब-जब बसपा ने गठजोड़ की राजनीति की उसे नुकसान ही उठाना पड़ा।

यहां हम बात न सपा की कर रहे हैं न बसपा की। बल्कि बिहार के नतीजों से हिली उत्तर प्रदेश की भगवा सियासत पर नजर डाल रहे हैं। राजनीति कब किसको ‘अर्श से फर्श’ पर पटक दे कोई नहीं जानता। बड़े से बड़े धुरंधर भी नियति के इस खेल से बच नहीं पाया हैं, जिससे आजकल मोदी और अमित शाह को दो-चार होना पड़ रहा है। बिहार में पराजय क्या मिली विरोधी तो विरोधी पार्टी के नेता भी भूल गये कि किस तरह से मोदी ने अपने बलबूते पर केन्द्र की सत्ता हासिल की। हरियाणा, महाराष्ट्र,छत्तीसगढ़ में बीजेपी की सरकार बनी,लेकिन बिहार की हार के बाद मोदी और अमित शाह को ‘खलनायक की तरह पेश करने की पार्टी के नेताओं के बीच ही होड़ शुरू हो गई है, जिस उत्तर प्रदेश में मोदी के चमत्कार के चलते 2014 के लोकसभा चुनाव में 73 लोकसभा सीटें आईं थी,उसी उत्तर प्रदेश में बिहार के नतीजों के बाद मोदी और अमित शाह की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाया जा रहा है।

इसी के चलते उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी में अचानक हलचल बढ़ गई है। वह नेता जो यह मानकर चलते थे कि 2017 में मोदी के सहारे यूपी में भाजपा की नैया पार हो जायेगी,वह बिहार के नतीजों से सन्न रह गये हैं। बैकफुट पर गये यह नेता शांत भाव से बैठे हुए हैं। वहीं मोदी-अमित शाह आभामंडल में कहीं विलुप्त हो गये पार्टी के तमाम छोटे-बड़े नेता बिहार के नतीजे आते ही हंुकार भरने लगे हैं। कोई स्वयं मैदान में कूद पड़ा है तो कई नेता पर्दे के पीछे से विरोध के सुरों को हवा दे रहे हैं। विरोध की शुरुआत बुजुर्ग नेता और सांसद मुरली मनोहर जोशी ने की तो अब इसमें कुछ नाम और भी जुड़ गये हैं। यह वह नेता हैं जिनको बढ़ती उम्र या फिर ‘चुका’ हुआ मान कर ‘साइड लाइन’ कर दिया गया था।

वहीं कुछ नेता ऐसे भी हैं जो हैं तो ‘मेन लाइन’ में लेकिन जिस मुकाम पर वह बैठे हैं उसको लेकर संतुष्ट नहीं हैं। कुछ ज्यादा पाने की चाहत में यह नेता गुपचुप तरीके से मोदी-शाह विरोध को हवा तो दे रहे हैं, लेकिन यह नेता इस बात का भी ध्यान रखे हुए हैं उनका नाम सामने न आये तो दूसरी तरफ चर्चा यह भी है कि बिहार चुनाव के नतीजों के बाद फिलवक्त भाजपा की सियासी राजनीति में किनारे पड़े नेताओं के अच्छे दिन आ सकते हैं। बदले माहौल में उनके लिए कोई भूमिका तलाशी जा सकती है। ऐसा करना इस लिये भी जरूरी हो गया है क्योंकि बिहार में पार्टी को जो करारी हार मिली उसकी मुख्य वजह यही थी कि बिहार मुट्ठी भर नेताओं की बात छोड़ दी जाये तो अधिकांश नेताओं को प्रचार से लेकर रणनीति बनाने तक में कहीं शामिल नहीं किया गया था।

हाशिये पर पड़े नेताओं में चार पूर्व प्रदेश अध्यक्ष भी शामिल है हैं। प्रदेश अध्यक्ष व पार्टी में सबसे कम उम्र के मंत्री रहे ओम प्रकाश सिंह 2007 से 2012 तक विधानमंडल दल के नेता रहे, लेकिन पिछला विधान सभा चुनाव हार गए। सशक्त पिछड़ी कुर्मी बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले सिंह लोक सभा चुनाव लड़ने के इच्छुक थे लेकिन पार्टी ने उन्हें अवसर नहीं दिया। बिना लाग लपेट के अपने विचार व्यक्त करने वाले सिंह इन दिनों पार्टी के प्रमुख आयोजनों में नजर नहीं आते। पूर्व प्रधानमंत्री अटली बिहारी वाजपेयी का उदाहरण देते हुए ओम प्रकाश कहते हैं कि पार्टियां विश्वास और सामूहिकता से चलती हैं। काम करने के तरीकों पर जो नेता सवाल उठा रहे हैं वह अहम है।

अटल जी के निकटस्थ रहे लालजी टंडन इकलौते सिटिंग लोकसभा सदस्य थे जिनका टिकट कटा। पहले चर्चा चली कि उन्हें राज्य सभा भेजा जाएगा लेकिन रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर को सीट मिली। राज्यपाल बनाने की चर्चा भी बस चर्चा बनकर रह गई है। हालांकि उनके बेटे आशुतोष टंडन को विधायक बनाकर नेतृत्व ने उन्हें सांत्वना देने की कोशिश की है लेकिन खुद लालजी टंडन तो हाशिये पर ही हैं।राम मंदिर आंदोलन से निकले कटियार 2004 का लोक सभा चुनाव हारने के बाद प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पद से हटाए गए थे। उन्हें रायबरेली में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ लोक सभा उप-चुनाव लड़ाया गया था।

तीन बार लोक सभा व इस समय राज्यसभा सदस्य विनय कटियार न तो केंद्र में मंत्री बन सके और नहीं संगठन के कामकाज की दृष्टि से उन्हें कोई प्रमुखता प्राप्त है।अयोध्या आंदोलन से फायर ब्रांड नेता के रूप में उभर कर सामने आये कटियार को इस बात का गम है कि बिहार चुनाव में लालू-नीतीश के पिछड़ा कार्ड की काट के लिये उन जैसे पिछड़े समाज के नेता को बिहार में प्रचार के लिये नहीं भेजा गया। अगर पार्टी चाहती तो वह सहयोग दे सकते थे। गत विधान सभा चुनाव के बाद भाजपा विधान मंडल दल के नेता बनाए गए हुकुम सिंह वैसे तो सिंह कैराना से सांसद हैं लेकिन उन्हें भी हाशिये पर रखा जाता है।

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प्रदेश में भाजपा व गैर भाजपा सरकारों में मंत्री रहे गूर्जर बिरादरी के नेता हुकुम सिंह को अनुमानों के विपरीत केंद्र में मंत्री नहीं बनाया गया।कई प्रदेश अध्यक्षों के साथ महामंत्री रहे त्रिपाठी को 2007 में केशरी नाथ त्रिपाठी के बाद प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनाया गया था। उन्हें राजनाथ सिंह का विश्वासपात्र होने के कारण प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया लेकिन गत विधान सभा चुनाव हारने के बाद से संगठन के कामकाज में निपुण माने जाने वाले त्रिपाठी कहीं नजर नहीं आते। नितिन गडकरी के भाजपा अध्यक्ष रहते प्रदेश अध्यक्ष बने शाही 2012 का विधान सभा चुनाव क्या हारे, पार्टी ने मानो उनका राजनीतिक अस्तित्व ही समाप्त मान लिया। प्रबल इच्छा के बावजूद वह लोक सभा का टिकट नहीं प्राप्त कर सके। शाही भी पार्टी में सक्रियता व दायित्व के लिहाज से हाशिये पर ही हैं।

पूर्व केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री चिन्मयानंद कहते हैं कि पार्टी में लोकसभा चुनाव के बाद अनुभवी कार्यकर्ताओं और बुजुर्ग नेताओं की घोर उपेक्षा हुई है।चिन्मयानंद को इस बात का बेहद दुख है कि अनुभवहीन नेताओं, गलत नेतृत्व और भाषा के कारण हम ऐेसे राज्य हार रहे हैं जहां हार की जरा भी गुंजाइश नहीं दिखाई देती है। वहीं बीजेपी के पूर्व सांसद राजनाथ सिंह ‘सूर्य’ केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह को 2017 के विधान सभा चुनाव में यूपी में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की मांग करने लगे हैं। सूर्य कहते हैं कि राजनाथ की छवि अच्छी है और उनको शासन करने का अनुभव भी है। इसके साथ ही वह यह भी जोड़े देते हैं कि बीजेपी 2017 हारी तो 2019 को जीतना भी मुश्किल हो जायेगा।

बहरहाल, यूपी भाजपा में इन दिनों बेचैनी का जो माहौल देखा जा रहा है है,वह किसी भी लिहाज से पार्टी के लिये सुखद नहीं कहा जा सकता है।अगर आलाकमान सामूहिक नेतृत्व के सहारे आगे बढ़ने को तैयार नहीं होता है तो विरोध के स्वर और भी मजबूत हो सकते हैं। आलाकमान की दुविधा भी खतरनाक साबित हो रही है।वह अभी तक यही नहीं तय कर पा रहा है कि मीडिया में बयानबाजी करके अनुशासनहीनता फैलाने वाले नेताओं के साथ कैसा बर्ताव किया जाये। कभी आला नेताओं की तरफ से बयान आता है कि विद्रोहियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होगी तो दूसरे ही पल कह दिया जाता है कि मिल बैठकर सब सुलझा लिया जायेगा।इस सबके बीच सियासी गलियारों से भाजपा के लिये राहत देने वाली खबर जरूर आ रही है कि बसपा और समाजवादी पार्टी के नेता बिहार की तरह एकजुट होते नहीं दिख रहे हैं।

यूपी में महागठबंधन की चर्चा के बीच सपा के प्रदेश अध्यक्ष व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने यूपी विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी नेताओं और मंत्री शिवपाल यादव और फरीद महफूज किदवई के उस बयान को खारिज किया है जिसमें महागठबंधन किए जाने की बात कही गई थी। अखिलेश ने स्पष्ट किया कि यूपी में सपा अकेले ही चुनाव लड़ेगी। किसी दल से गठबंधन नहीं होगा। मुख्यमंत्री ने कहा कि सपा ने पिछला चुनाव विकास के मुद्दंे पर लड़ा था। जिसे जनता ने समर्थन दिया और पूर्ण बहुमत की सरकार बनवाई। सरकार ने अपने सारे चुनावी वादे पूरे किए हैं। अब उन्हीं विकास कार्यों के दम पर पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी और सत्ता में फिर लौटेगी। अखिलेश ने यह भी कहा कि बिहार में महागठबंधन की जीत विकास के मुद्दे पर हुई है।

वहीं बसपा के राष्ट्रीय महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने इस सबंधं में कहा है कि बसपा किसी गठबंधन में शामिल नहीं होगी। सपा सरकार से हर वर्ग पीडि़त है, पुलिस बेलगाम होकर खुद गुंडागर्दी में शामिल है। अब लोग इससे निजात पाना चाहते हैं, इसलिए बसपा अपने बूते ही सरकार बनाएगी। सिद्दीकी ने बताया कि बिहार और दिल्ली विधान सभा चुनाव से तय हो गया है कि पब्लिक भाजपा एजेंडे के साथ नहीं है। महा गठबंधन के सवाल पर सिद्दीकी बोले कि 1994 में बसपा मुखिया के साथ सपा गुंडों ने क्या किया? यह काला अध्याय भुलाया नहीं जा सकता है। वैसे कहने वाले यह भी कह रहे हैं कि बिहार चुनाव में हार से सबक लेकर भाजपा, बसपा से महागठबंधन की पहल कर सकती है। हालांकि संभावनाएं कम हैं, लेकिन यूपी की सत्ता पर कब्जे के लिए एक विकल्प यह भी है। बसपा पूर्व में भाजपा की मदद से सरकार चला चुकी है।

कई नेता इस बात के समर्थक हैं कि दोनों दलों के बीच चुनावी गठबंधन हो।एक संभावना इस बात की है कि सत्ताधारी सपा-बसपा 2017 के विधान सभा चुनावों के लिये साथ आने को तैयार न हों तो सपा या बसपा में से किसी एक को साथ लेकर कांग्रेस व राष्ट्रीय लोकदल जैसी पार्टियां गठबंधन करके चुनाव मैदान में उतरे। इसमें लालू और नीतीश समेत दूसरे सेक्युलर नेताओं को शामिल किया जा सकता है। ऐसा करके भाजपा विरोधी वोटों का बिखराव रोकने की कोशिश की जा सकती है। पहले भी ये दल गठबंधन करके चुनाव मैदान में उतरते रहे हैं।

लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क 09335566111 के जरिए किया जा सकता है.

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