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कैसे कहूं-फिर वही दिल लाया हूं.. ?

जानता हूं कि यह इतना आसान नहीं है लेकिन पत्रकारिता में थोड़े दिनों की बेरोजगारी भी बहुत जरूरी है। वैसे तो रहीम चचा कह ही गए हैं, हित अनहित या जगत में जानि परत सब कोय.., लेकिन पत्रकारिता में यह परख कुछ ज्यादा ही जरूरी है। वास्तव में सक्रिय पत्रकारिता में आप एक चमक-दमक भरी दुनिया के अभ्यस्त हो जाते हैं। सुबह फोन से नींद खुलना, खबर छप जाने की कुछ तारीफें-कुछ खबर छोटी हो जाने के उलाहने, किसी समारोह में गए तो मिलने वाला स्वागत, आगे की पंक्ति की सीटें, बड़े-बड़े होटलों के लंच और डिनर, अधिकारियों से अकड़ कर बात करना और किसी की भी ऐसी-तैसी कर सकने का दंभ, सबकुछ आपको यह भरोसा दिलाने के लिए पर्याप्त है कि आप कितने महत्वपूर्ण हैं। आप अगर लम्बे समय से इस दुनिया में हैं तो यह आपकी जीवनचर्या का हिस्सा बन जाता है।

<p>जानता हूं कि यह इतना आसान नहीं है लेकिन पत्रकारिता में थोड़े दिनों की बेरोजगारी भी बहुत जरूरी है। वैसे तो रहीम चचा कह ही गए हैं, हित अनहित या जगत में जानि परत सब कोय.., लेकिन पत्रकारिता में यह परख कुछ ज्यादा ही जरूरी है। वास्तव में सक्रिय पत्रकारिता में आप एक चमक-दमक भरी दुनिया के अभ्यस्त हो जाते हैं। सुबह फोन से नींद खुलना, खबर छप जाने की कुछ तारीफें-कुछ खबर छोटी हो जाने के उलाहने, किसी समारोह में गए तो मिलने वाला स्वागत, आगे की पंक्ति की सीटें, बड़े-बड़े होटलों के लंच और डिनर, अधिकारियों से अकड़ कर बात करना और किसी की भी ऐसी-तैसी कर सकने का दंभ, सबकुछ आपको यह भरोसा दिलाने के लिए पर्याप्त है कि आप कितने महत्वपूर्ण हैं। आप अगर लम्बे समय से इस दुनिया में हैं तो यह आपकी जीवनचर्या का हिस्सा बन जाता है।</p>

जानता हूं कि यह इतना आसान नहीं है लेकिन पत्रकारिता में थोड़े दिनों की बेरोजगारी भी बहुत जरूरी है। वैसे तो रहीम चचा कह ही गए हैं, हित अनहित या जगत में जानि परत सब कोय.., लेकिन पत्रकारिता में यह परख कुछ ज्यादा ही जरूरी है। वास्तव में सक्रिय पत्रकारिता में आप एक चमक-दमक भरी दुनिया के अभ्यस्त हो जाते हैं। सुबह फोन से नींद खुलना, खबर छप जाने की कुछ तारीफें-कुछ खबर छोटी हो जाने के उलाहने, किसी समारोह में गए तो मिलने वाला स्वागत, आगे की पंक्ति की सीटें, बड़े-बड़े होटलों के लंच और डिनर, अधिकारियों से अकड़ कर बात करना और किसी की भी ऐसी-तैसी कर सकने का दंभ, सबकुछ आपको यह भरोसा दिलाने के लिए पर्याप्त है कि आप कितने महत्वपूर्ण हैं। आप अगर लम्बे समय से इस दुनिया में हैं तो यह आपकी जीवनचर्या का हिस्सा बन जाता है।

 लेकिन जैसे ही आपके आगे से किसी संस्थान का नाम हटता है, आपकी दुनिया अचानक से बदलने लगती है। पहले तो आप अपना मोबाइल सेट जांचते हैं, नेटवर्क की पड़ताल करते हैं लेकिन जल्द ही पता चल जाता है कि सब कुछ अपनी जगह दुरुस्त है, बस आपको याद करने वाले कम हो चले हैं। कुछ भूले-बिसरे फोन आते हैं और जब आप उन्हें बताते हैं कि आप किसी संस्थान की सेवा में नहीं हैं तो उनकी प्रतिक्रिया में जो सहानुभूति होती है उससे यह अनुमान लगा पाना कठिन नहीं कि वे यह महसूस कर रहे हैं कि अब आप उनके किसी काम के नहीं रहे। जो कभी सुबह-शाम आपका नाम जपते थे, आपको महत्वपूर्ण बताते रहते थे, लम्बा वक्त आपके साथ गुजारते थे, वे ऐसी पलटी मार जाते हैं। जैसे आपसे उनका कोई रिश्ता ही नहीं रहा हो। एक इवेंट मैनेजमेंट कम्पनी चलाने वाले ऐसे ही एक साथी, जो हिन्दुस्तान और अमर उजाला में मेरे काम करने के दौरान शायद ही किसी रोज फोन करना भूलते हों, मेरे अमर उजाला छोड़ने के बाद दो वर्षों में केवल एक बार ही फोन पर मुझे याद कर सके, यह कहने के लिए कि बहुत व्यस्तता है फिर भी किसी रोज घर आना चाहूंगा। वैसे यह सुअवसर भी किसी रोज घटित न हो सका।
बेरोजगारी के दिनों में आपको पता चलता है कि कैसे लोगों की निगाहें बदलती हैं। वे अधिकारी जो आपके मित्र और शुभचिन्तक बनते थे, जो आपके आने पर गर्मजोशी से हाथ बढ़ाते हुए स्वागत करते थे, जाते समय थोड़ी देर और बैठिए या एक और चाय हो जाय की मनुहार करते थे। वह-ही कैसे ऐसे दिनों में आपके आने पर कुछ इस प्रकार चेहरा बनाते हैं जैसे आप कोई फरियादी हों और जब आप चलने की बात कहते हैं तो कुछ दूसरे कामों में मशगूल होने का उपक्रम कर आपको अनसुना कर देते हैं। इनकी छोड़िए, दिन-रात आपके साथ काम करने वाले संस्थानों के आपके साथी भी हाल-चाल पूछने की जहमत नहीं उठाते, अपवादों को छोड़ दें तो किसी को इस बात की फिक्र नहीं होती कि आप अब आगे क्या करने वाले हैं, और ऐसा हम छोटे पत्रकारों के साथ नहीं होता, मैंने बड़े-बड़े पत्रकारों के साथ ऐसा होते देखा है। उन सम्पादकों के साथ देखा है जिनसे मिलने के लिए कभी घण्टों प्रतीक्षा करनी होती थी, जिनके कमरे हमेशा लोगों से भरे होते थे। वास्तव में यह दुनिया बड़ी टू-द-प्वाइंट है। आप तभी तक महत्वपूर्ण हैं जब तक आप उपयोगी हैं। अगर आप किसी का हित नहीं कर सकते या फिर अगले को आपसे नुकसान होने का भय न हो तो फिर आप उसके लिए जरूरी नहीं हैं। किसी संस्थान में रहते हुए ही ऐसा हो सकने की संभावना और आशंका अधिक रहती है।
 लेकिन यारों थोड़े दिनों की यह बेगारी भली भी है। न छुट्टी की किच-किच, न देर-सबेर घर आने की टेंशन। जेब में पैसा हो तो घूमो-फिरो, उन रिश्तेदारों के यहां हो आओ जो तुम्हारे न आने का ताना देते रहते हैं। बच्चों के साथ वक्त बिताओ, टीवी-फिल्में देखो, उन दुनिया भर की किताबों को पलट लो जो तुमने घर में जुटा रखी हैं, थोड़ा योगा-वोगा शुरू करो, पार्क में टहलने जाओ। और फिर इन दिनों की सबसे बड़ी उपलब्धि है, वे गिनती के कुछ मित्र और शुभचिन्तक जिनका स्नेह आप पर पूर्ववत बना है। जो एक व्यक्ति के रूप में आपका सम्मान करते हैं, जो आपके साथ पहले जैसा ही व्यवहार बनाए रखते हैं, जो आपके जीवन की बेहतरी के लिए लगातार चिन्तित होते हैं। मुझे मधुर भण्डारकर की पेज थ्री फिल्म की नायिका याद आ रही है जो फिल्म के आखिरी हिस्से में पेज थ्री पार्टियों में लौटती है। इस वापसी में उसके साथ रिश्तों और चेहरों के पीछे की सच्चाई है। आज जब थोड़े अन्तराल बाद सक्रिय पत्रकारिता में लौटा हूं, मैं भी नहीं कह सकता-‘फिर वही दिल लाया हूं…’।

(करीब 25 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय आलोक पराड़कर की फेसबुक वाल से। आज, दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, अमर उजाला, जनसंदेश टाइम्स और कल्पतरु एक्सप्रेस में काम कर चुके आलोक पराड़कर ने अमर उजाला के साथ नयी पारी शुरू की है।)

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