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भाजपा के समक्ष बहुजन डाइवर्सिटी मिशन की अपील

 प्रतिष्ठा में,
अध्यक्ष,
भाजपा,बिहार प्रदेश।
मान्यवर,
    सर्वप्रथम हम राष्ट्रीय महत्व के बिहार विधानसभा चुनाव-2015 में आपकी पार्टी की भारी सफलता की कामना करते हैं। तत्पश्चात निम्न वर्णित बिदुओं पर गंभीरता से विचार करने का अनुरोध करते हैं।  

<p> प्रतिष्ठा में,<br />अध्यक्ष,<br />भाजपा,बिहार प्रदेश।<br />मान्यवर,<br />    सर्वप्रथम हम राष्ट्रीय महत्व के बिहार विधानसभा चुनाव-2015 में आपकी पार्टी की भारी सफलता की कामना करते हैं। तत्पश्चात निम्न वर्णित बिदुओं पर गंभीरता से विचार करने का अनुरोध करते हैं।  </p>

 प्रतिष्ठा में,
अध्यक्ष,
भाजपा,बिहार प्रदेश।
मान्यवर,
    सर्वप्रथम हम राष्ट्रीय महत्व के बिहार विधानसभा चुनाव-2015 में आपकी पार्टी की भारी सफलता की कामना करते हैं। तत्पश्चात निम्न वर्णित बिदुओं पर गंभीरता से विचार करने का अनुरोध करते हैं।  

                        बिहार विधानसभा चुनाव-2015 एक ऐसे समय में अनुष्ठित होने जा रहा है जब देश में व्याप्त भीषणतम विषमता के कारण हमारे लोकतंत्र पर गहरा संकट मंडरा रहा है। विषमता का आलम यह है कि परम्परागत रूप से  सुविधासंपन्न और विशेषाधिकारयुक्त अत्यन्त अल्पसंख्यक तबके का जहां शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार ,धार्मिक-सांस्कृतिक-शैक्षणिक प्रत्येक क्षेत्र में 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा है, वहीं परम्परागत रूप से सदियों से तमाम क्षेत्रों से ही वंचित बहुसंख्यक तबका,जिसकी आबादी 85 प्रतिशत है, 15-20 प्रतिशत अवसरों पर आज भी जीवन निर्वाह करने के लिए विवश है। ऐसी गैर-बराबरी विश्व में कहीं और नहीं है। किसी भी डेमोक्रेटिक कंट्री में परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न तथा वंचित तबकों के मध्य आर्थिक-राजनीतिक–सांस्कृतिक इत्यादि क्षेत्रों में अवसरों के बंटवारे में भारत जैसी असमानता नहीं है। इस असमानता ने देश को ‘अतुल्य’ और ‘बहुजन’-भारत में बांटकर रख दिया है। चमकते अतुल्य भारत में जहां तेज़ी से लखपतियों-करोड़पतियों की संख्या बढ़ती जा रही है, वहीँ जो लोग 20  रूपये रोजाना पर गुजर-बसर करने के लिए मजबूर हैं, वे मुख्यतः बहुजन भारत के लोग हैं। उद्योग-व्यापार, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्र से लगभग पूरी तरह बहिष्कृत बहुजनों के लिए रोजगार के नाम पर अवसर मुख्यतः असंगठित क्षेत्र में है, जहाँ न प्रॉविडेंट फंड,वार्षिक छुट्टी व चिकित्सा की सुविधा है और न ही रोजगार की सुरक्षा।
               भीषणतम आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी से मिली: लोकतंत्र को चुनौती       
    अवसरों के असमान बंटवारे से उपजी आर्थिक और सामाजिक विषमता का जो स्वाभाविक परिणाम सामने आना चाहिए, वह सामने आ रहा है। देश के लगभग 200 जिले माओवाद की चपेट में आ चुके हैं। इस बीच माओवादियों ने एलान कर दिया है कि वे 2050 तक बन्दूक के बल पर लोकतंत्र के मंदिर पर कब्ज़ा जमा लेंगे। इसमें कोई शक नहीं कि विषमता की खाई यदि इसी तरह बढ़ती रही तो कल आदिवासियों की भांति ही अवसरों से वंचित दूसरे तबके भी माओवाद की धारा से जुड़ जायेंगे, फिर तो माओवादी अपने मंसूबों को पूरा करने में जरुर सफल हो जायेंगे और यदि यह अप्रिय सत्य सामने आता है तो हमारे लोकतंत्र का जनाजा ही निकल जायेगा। ऐसी स्थित सामने न आये, इसके लिए ही डॉ.आंबेडकर ने संविधान सौंपने के पूर्व 25 नवम्बर,1949 को राष्ट्र को सतर्क करते हुए एक अतिमूल्यवान सुझाव दिया था।
                        बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर की चेतावनी
   उन्होंने कहा था-’26 जनवरी 1950 को हमलोग एक विपरीत जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति के क्षेत्र में हमलोग समानता का भोग करेंगे किन्तु सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में मिलेगी असमानता। राजनीति के क्षेत्र में हमलोग एक नागरिक को एक वोट एवं प्रत्येक वोट के लिए एक ही मूल्य की नीति को स्वीकृति देने जा रहे हैं। हम लोगों को निकटतम समय के मध्य इस विपरीतता को दूर कर लेना होगा, अन्यथा यह असंगति कायम रही तो विषमता से पीड़ित जनता इस राजनैतिक गणतंत्र की व्यवस्था को विस्फोटित कर सकती है।’
               हमारे महान राजनेता: लोकतंत्र-प्रेमी या लोकतंत्र-विरोधी!
    ऐसी चेतावनी देने वाले बाबा साहेब ने भी शायद कल्पना नहीं की होगी कि भारतीय लोकतंत्र की उम्र छह दशक पूरी होते-होते विषमता से पीड़ित लोगों का एक तबका उसे विस्फोटित करने पर आमादा हो जायेगा। लेकिन यह स्थिति सामने आ रही तो इसलिए कि आजाद भारत के हमारे शासकों ने संविधान निर्माता की सावधान वाणी की पूरी तरह अनदेखी कर दिया। वे स्वभावतः लोकतंत्र विरोधी थे। अगर लोकतंत्र प्रेमी होते तो केंद्र से लेकर राज्यों तक में काबिज हर सरकारों की कर्मसूचियाँ मुख्यतः आर्थिक और सामाजिक विषमता के  खात्मे पर केन्द्रित होतीं। तब आर्थिक और सामाजिक विषमता का वह भयावह मंजर कतई हमारे सामने नहीं होता जिसके कारण हमारा लोकतंत्र विस्फोटित होने की ओर अग्रसर है। इस लिहाज से पंडित नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गाँधी, नरसिंह राव, जय प्रकाश नारायण, ज्योति बसु और खुद आपकी पार्टी के अटल बिहारी वाजपेयी जैसे महानायकों की भूमिका का आकलन करने पर निराशा और निराशा के सिवाय और कुछ नहीं मिलता। अगर इन्होंने डॉ.आंबेडकर की चेतावनी को ध्यान में रखकर आर्थिक और सामाजिक विषमता के त्वरित गति से ख़त्म होने लायक नीतियाँ अख्तियार की होतीं, क्या 10-15 प्रतिशत परम्परागत सुवुधाभोगी वर्ग का शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, शैक्षणिक–सांस्कृतिक क्षेत्रों पर 80-85 प्रतिशत वर्चस्व स्थापित होता और क्या देश अतुल्य और बहुजन भारत में विभाजित होता? 
    राजनीति के हमारे महानायकों ने ‘गरीबी-हटाओ’, ’लोकतंत्र बचाओ’, ’भ्रष्टाचार हटाओ’ ’राम मंदिर बनाओ’ इत्यादि जैसे आकर्षक नारे देकर महज शानदार तरीके से सत्ता में दखल किया किन्तु उस राज-सत्ता का इस्तेमाल लोकतंत्र की सलामती की दिशा में बुनियादी काम करने में नहीं किया। इनके आभामंडल के सामने भारत में मानव-जाति की सबसे बड़ी समस्या-आर्थिक और सामाजिक विषमता-पूरी तरह उपेक्षित रही। इस देश की वर्णवादी मीडिया और बुद्धिजीवियों को इनकी बड़ी-बड़ी जीतों में लोकतंत्र की जीत दिखाई पड़ी। दरअसल इस देश के बुद्धिजीवियों के लिए इतना ही काफी रहा है कि पड़ोस के देशों की भांति भारत में सत्ता परिवर्तन बुलेट, नहीं बैलेट से होता रहा है। सिर्फ इसी बिल पर भारत के लोकतंत्र पर गर्व करनेवालों बुद्धिजीवियों की कमी नहीं रही। अतः महज वोट के रास्ते सत्ता परिवर्तन से संतुष्ट बुद्धिजीवियों ने प्रकारांतर में लोकतंत्र के विस्फोटित होने लायक सामान स्तूपीकृत कर रहे राजनेताओं को डॉ.आंबेडकर की सतर्कतावाणी याद दिलाने की जहमत ही नहीं उठाई। बहरहाल हमारे राष्ट्र नायकों से कहां चूक हो गयी जिससे विश्व में सर्वाधिक विषमता का साम्राज्य भारत में व्याप्त हुआ और जिसके कारण ही विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र आज विस्फोटित होने की ओर अग्रसर है?
         आर्थिक-सामाजिक विषमता की सृष्टि के पीछे   
   एक तो ऐसा हो सकता है कि गांधीवादी और मार्क्सवादी आपकी राष्ट्रवादी विचारधारा से जुड़े हमारे तमाम राष्ट्र नायक ही समग्र वर्ग की चेतना से समृद्ध न होने के कारण ऐसी नीतियां ही बनाये जिससे परम्परागत सुविधासंपन्न तबके का वर्चस्व अटूट रहे। दूसरी यह कि उन्होंने आर्थिक और सामाजिक–विषमता की उत्पत्ति के कारणों को ठीक से जाना नहीं, इसलिए निवारण का सम्यक उपाय न कर सके। प्रबल सम्भावना यही दिखती है कि उन्होंने ठीक से उपलब्धि ही नहीं किया कि सदियों से ही सारी दुनिया में आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी, जोकि मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है, की सृष्टि शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक और धार्मिक) में सामाजिक(social) और लैंगिक(gender) विविधता (diversity)के असमान प्रतिबिम्बन के कारण होती रही है। अर्थात लोगों के विभन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य आर्थिक,राजनीतिक और धार्मिक शक्ति का असमान बंटवारा कराकर ही सारी दुनिया के शासक विषमता की स्थित पैदा करते रहे हैं। इसकी सत्योपलब्धि कर ही अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड इत्यादि जैसे लोकतान्त्रिक रूप से परिपक्व देश ने अपने-अपने देशों में शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, फिल्म-टीवी-मीडिया इत्यादि शक्ति के तमाम स्रोतों में ही सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन की नीति पर काम किया और मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या से पार पाया। किन्तु उपरोक्त देशों से लोकतंत्र का प्राइमरी पाठ पढने सहित कला-संस्कृति, फैशन-टेक्नोलॉजी इत्यादी सब कुछ ही उधार लेने वाले हमारे शासकों ने उनकी विविधता नीति से पूरी तरह परहेज़ किया। किन्तु ऐसा नहीं करना चाहिए था क्योंकि आजाद भारत के शासकों से भी विदेशियों की तरह ‘डाइवर्सिटी नीति’ अख्तियार करने की प्रत्याशा थी, ऐसा कई इतिहासकारों का मानना है।
           आजाद भारत को अपने शासकों से विविधता के सम्मान की प्रत्याशा थी
   ऐसे इतिहासकारों के अनुसार– ‘1947  में देश ने अपने आर्थिक पिछड़ेपन, भयंकर गरीबी, करीब-करीब निरक्षरता, व्यापक तौर पर फैली महामारी, भीषण सामाजिक विषमता और अन्याय के उपनिवेशवादी विरासत से उबरने के लिए अपनी लम्बी यात्रा की शुरुआत की थी। 15 अगस्त पहला पड़ाव था, यह उपनिवेशिक राजनीतिक नियंत्रण में पहला विराम था। शताब्दियों के पिछड़ेपन को अब समाप्त किया जाना था, स्वतंत्रता संघर्ष के वादों को पूरा किया जाना था और जनता की आशाओं पर खरा उतरना था। भारतीय राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना, राष्ट्रीय राजसत्ता को सामाजिक रूपांतरण के उपकरण के रूप में विकसित एवं सुरक्षित रखना सबसे महत्वपूर्ण काम था। यह महसूस किया जा रहा था कि भारतीय एकता को आंख मूंदकर मान नहीं लेना चाहिए। इसे मजबूत करने के लिए यह स्वीकार करना चाहिए कि भारत में अत्यधिक क्षेत्रीय, भाषाई, जातीय एवं धार्मिक विविधताएँ मौजूद हैं। भारत की बहुतेरी अस्मिताओं को स्वीकार करते एवं जगह देते हुए तथा देश के विभिन्न भागों और लोगों के विभिन्न तबकों को भारतीय संघ में पर्याप्त स्थान देकर भारतीयता को और मजबूत किया जाना था।’
             भारत में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतीकात्मक प्रतिबिम्बन 
     इतिहासकारों की उपरोक्त टिपण्णी बताती है कि हमारे शासकों को इस बात का इल्म जरुर था कि  राजसत्ता का इस्तेमाल हर क्षेत्र में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन में करना है। यही कारण है उन्होंने किया भी, मगर प्रतीकात्मक। जैसे हाल के वर्षो में हमने लोकतंत्र के मंदिर में अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री, महिला राष्ट्रपति, मुसलमान उप-राष्ट्रपति, दलित लोकसभा स्पीकर, आदिवासी डिप्टी स्पीकर के रूप सामाजिक और लैंगिक विवधता का शानदार नमूना देखा। मगर यह नमूना सत्ता की सभी संस्थाओं, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किंग-परिवहन, मीडिया–फिल्म-टीवी, शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश-अध्यापन, पौरोहित्य इत्यादि में पेश नहीं किया गया।
    वोट खरीदने के लिए राहत और भीखनुमा घोषणाओं पर निर्भर: हमारे राजनीतिक दल 
      हमारे स्वाधीन भारत के शासक स्व-वर्णीय हित के हाथों विवश होकर या आर्थिक-सामाजिक विषमता की सृष्टि के कारणों से अनभिज्ञ रहने के कारण शक्ति के स्रोतों का लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य बंटवारे की सम्यक नीति न ग्रहण कर सके। उन्होंने आर्थिक-सामाजिक विषमता के लिए भागीदारी मूलक योजनाओं की जगह ‘गरीबी-उन्मूलन’को प्राथमिकता देते हुए राहत और भीखनुमा योजनाओं पर काम किया। जिसकी 80-85 प्रतिशत राशि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती रही। शासक दलों की शक्ति के स्रोतों के बंटवारा-विरोधी नीति के फलस्वरूप बहुसंख्यक समाज इतना अशक्त हुआ कि वह शक्ति के स्रोतों में अपनी हिस्सेदारी की बात भूलकर विषमता बढ़ाने वाली राहत और भीखनुमा घोषणाओं के पीछे अपना कीमती वोट लुटाने लगा। राजनीतिक दल भी उसकी लाचारी को भांपते हुए लोकलुभावन घोषणायें करने में एक दूसरे से होड़ लगाते रहे और मुफ्त में अनाज, रेडियो-टीवी-कंप्यूटर-कुकिंग गैस-साइकल,मिक्सर ग्राइंडर, पंखे, दुधारू गायें-बकरियां, किताबें, छात्रों के नाम फिक्स डिपोजिट, सौर उर्जा प्रयुक्त घर और गरीब लड़कियों के लिए कुछ ग्राम सोना, नकद राशि इत्यादि के विनिमय में वोट खरीद कर हमारे लोकतंत्र को विस्फोटित करने लायक सामान जमा करते रहे। भारी अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि खुद आपकी पार्टी इस मामले में कभी अपवाद साबित नहीं हुई। इन पंक्तियों के लिखे जाने के दौरान वर्तमान विधानसभा चुनाव में मतदाताओं को प्रलोभन देने के आरोप में आपकी पार्टी के अघोषित सीएम व पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की जा चुकी है। उन्होंने कैमूर में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कहा कि भाजपा की सरकार आई तो दलित-महादलित बस्तियों में रंगीन टीवी और 50 हजार लैपटॉप बाटेंगे। 
                       असमानाता बढ़ाता विकास
    बहरहाल भीख और राहतनुमा घोषणाओं के सहारे सत्ता दखल के अभ्यस्त हमारे राजनीतिक दल भूमंडलीकरण के दौर में विकराल रूप धारण करती विषमता से निपटने के लिए नयी सदी में विकास के एजेंडे के एजेंडे को अपनाने की दिशा में आगे बढ़े और भारत की तेज़ विकास चर्चा का विषय भी बनी। तेज़ विकास को देखते हुए दुनिया के ढेरों अर्थशास्त्रियों ने भारत के विश्व आर्थिक महाशक्ति बनने के दावे करने लगे थे। लेकिन शासक दल इस विकास के फल को विभिन्न तबकों के मध्य बांटने की नीति पर काम नहीं किया। विकास, विकास और विकास का ढोल पीटने वाले किसी भी दल ने विकास के फल के सम्यक बंटवारे की बात नहीं सोची। खुद आप लोग जिस गुजरात मॉडल का जोर गले से प्रचार करते हैं, वह भी विकास के सम्यक बंटवारे के अभाव में उम्मीद नहीं बढ़ाता। बहरहाल विकास भी देश में फैली भीषण विषमता से जूझने में पूरी तरह व्यर्थ साबित हुआ। इसकी व्यर्थता से अवगत कराते हुए नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने बार-बार कहा, ’गरीबी कम करने के लिए आर्थिक विकास पर्याप्त नहीं है…मैं उनसे सहमत नहीं हूँ जो कहते हैं आर्थिक विकास के साथ गरीबी में कमी आई है।’ उनसे भी आगे बढ़कर कई मौकों पर राष्ट्र को चेताते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कहना पड़ा– ‘जिस तेज़ी से विकास हो रहा है, उसके हिसाब से गरीबी कम नहीं हो रही है। अनुसूचित जाति, जनजाति और अल्पसंख्यकों को इसका लाभ नहीं मिल रहा है। देश में जो विकास हुआ है उस पर नज़र डालने पर साफ दिखाई देता है कि गैर-बराबरी काफी बढ़ी है। ’यही नहीं गैर-बराबरी से चिंतित प्रधान मंत्री ने अर्थशास्त्रियों से सृजनशील सोच की मांग भी की थी ताकि आर्थिक-विषमता की चुनौती से जूझा जा सके।
      विषमता से निबटने के लिए वजूद में आया: बहुजन डाइवर्सिटी मिशन
जिन दिनों विषमता के खात्मे में विकास की व्यर्थता पर सुगबुगाहट शुरू हुई उन्ही दिनों 15 मार्च 2007 को वजूद में आया बहुजन लेखकों द्वारा स्थापित ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ (बीडीएम)। चूंकि बीडीएम से जुड़े लेखकों का यह दृढ विश्वास रहा है कि आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी ही मानव-जाति की सबसे बड़ी समस्या है तथा शक्ति के स्रोतों का विभिन्न तबकों और महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे से ही सारी दुनिया सहित भारत में भी इसकी उत्पत्ति होती रही है, इसलिए ही बीडीएम ने शक्ति के सभी स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिम्बन अर्थात शक्ति के स्रोतों का लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य बंटवारा कराने की कार्य योजना बनाया। ऐसे में उनकी तरफ से निम्न क्षेत्रों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिम्बन  कराने अर्थात विविधतामय भारत के चार सामाजिक समूहों-सवर्ण, ओबीसी, एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों के स्त्री-पुरुषों की संख्यानुपात में अवसरों के बंटवारे की निम्न दस सूत्रीय कर्मसूची स्थिर की गईं -:
1-सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की, सभी प्रकार की नौकरियों; 2-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप; 3-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीददारी अर्थात सप्लाई; 4-सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग-परिवहन; 5-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जाने वाले छोटे-बड़े स्कूलों,  विश्वविद्यालयों,तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन,प्रवेश व अध्यापन; 6-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों, उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि; 7-देश–विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) को दी जानेवाली धनराशि; 8-प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों;  9-देवालयों की संचालन समिति एवं पौरोहित्य तथा 10-ग्राम-पंचायत,शहरी निकाय,संसद-विधासभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद-राज्यसभा; राष्ट्रपति, राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों के कर्मचारियों इत्यादि। 
     आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी के खात्मे के मुक्कमल सूत्रों से लैस:दस सूत्रीय एजेंडा
   अगर विभन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक) का असमान बंटवारा ही आर्थिक और सामाजिक विषमता की सृष्टि का मूल कारण है तो बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे उसके निवारण में पूरी तरह सक्षम हैं। इनमें एक वैश्विक अपील है। शक्ति के उपरोक्त केन्द्रों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू होने पर सवर्ण, ओबीसी, एससी/एसटी और धार्मिक-अल्पसंख्यकों के मध्य व्याप्त विषमता का धीरे-धीरे विलोप हो जायेगा। बीडीएम का एजेंडा महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर बांग्लादेश-नेपाल जैसे पिछड़े राष्ट्रों से भी पिछड़े भारत को विश्व की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर देगा। तब सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय की बदहाली की तस्वीर खुशहाली में बदल जायेगी। पौरोहित्य में डाइवर्सिटी ब्राहमणशाही का खात्मा कर देगी। बीडीएम की दस सूत्रीय कर्मसूचियां सदियों के वंचित दलित-आदिवासी और पिछड़ों के जीवन में क्या चमत्कार कर सकती हैं, इसकी कल्पना कोई भी कर सकता है। इसका परोक्ष लाभ यह होगा कि इससे दलित और महिला उत्पीड़न में भारी कमी तथा लोकतंत्र के सुदृढ़ीकरण एवं विविधता में शत्रुता की जगह सच्ची एकता का तो मार्ग प्रशस्त होगा ही, साथ ही विभिन्न जातियों में आरक्षण की होड़ व भ्रष्टाचार के खात्मे की भी जमीन तैयार होगी।
  मान्यवर, आर्थिक और सामाजिक-विषमता जनित तमाम समस्याओं के खात्मे में बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे की प्रभावकारिता को देखते हुए हम आप से अपील करते हैं कि इन्हें बिहार विधानसभा चुनाव के अवसर पर जारी होने वाले अपने घोषणापत्र में जगह दें। बीडीएम के डाइवर्सिटी केन्द्रित एजेंडे को घोषणापत्र में जगह देना इसलिए भी जरुरी है क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले के तीन महत्वपूर्ण चुनावों के घोषणापत्रों में ही आपकी पार्टी ने डाइवर्सिटी को स्थान दिया था। सबसे पहले 2009 के लोकसभा चुनाव में जारी आपकी पार्टी के घोषणापत्र के पृष्ठ 29 पर लिखा गया था-‘भाजपा सामाजिक न्याय तथा सामाजिक समरसता के प्रति प्रतिबद्ध है। पहचान की राजनीति, जो दलितों, पिछड़े वर्गों और समाज के अन्य वंचित वर्गों को कोई फायदा नहीं पहुंचाती का अनुसरण करने के बजाय ठोस विकास एवं सशक्तिकरण पर ध्यान केन्द्रित करेगी। हमारे समाज के दलित, पिछड़े एवं वंचित वर्गों के लिए उद्यमशीलता एवं व्यवसाय के अवसरों को इस तरह बढ़ावा दिया जायेगा ताकि भारत की सामाजिक विविधता पर्याप्त रूप से आर्थिक विविधता में प्रतिबिम्बित हो सके।‘ यह घोषणा सिर्फ 2009 के लोकसभा चुनाव तक सीमित नहीं रही। 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव के अवसर पर भाजपा की ओर से जो घोषणापत्र जारी किया गया उसमें 2009 की बात को दोहराते हुए फिर कहा गया-‘पहचान की राजनीति के बदले भागीदारी नीति का अनुसरण करते हुए समाज के दलित, पिछड़े, वंचित एवं कमजोर वर्गों के ठोस विकास एवं सशक्तिकरण पर ध्यान केन्द्रित किया जायेगा। समाज के इन वर्गों के लिए उद्यमशीलता एवं व्यवसाय के अवसरों को बढाया जायेगा। ’भाजपा ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव -2012 में फिर डाइवर्सिटी केन्द्रित घोषणापत्र जारी करते हुए सामाजिक विविधता को आर्थिक विविधता में तब्दील करने की प्रतिबद्धता जताया।
मान्यवर, उपरोक्त तथ्यों के आईने में यह स्पष्ट है कि ‘मोदी-युग’ आरम्भ होने से पूर्व भाजपा ने अपने घोषणा पत्रों में डाइवर्सिटी को पर्याप्त गुरुत्व दिया था। चूंकि हाल के वर्षों में देश के अशक्त व वंचित वर्गों में भारत की सामाजिक विविधता को आर्थिक विविधता तब्दील करने की चाह काफी बढ़ी है, ऐसे में वंचितों की भावना का कद्र करते हुए भाजपा अपने बिहार विधानसभा चुनाव के लिए जारी होने जा रहे घोषणा पत्र में डाइवर्सिटी को पर्याप्त सम्मान दे, इसकी विनम्र अपील हम बहुजन डाइवर्सिटी मिशन की ओर से कर रहे हैं।       
जय भीम-जय भारत
 निवेदक
एच.एल.दुसाध                                     
(संस्थापक अध्यक्ष,बहुजन डाइवर्सिटी मिशन दिल्ली)

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