: संघ-सरकार की बैठक में कौन मोदी को सच बतायेगा? : सवा बरस में पहला मौका होगा जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संघ परिवार को सरकार की नीतियों के बारे में समझायेंगे, जिसे लेकर स्वयं सेवकों की एक जमात रुठी हुई है। और रुठी हुई यह जमात सिर्फ सरकार के कामकाज से ही नहीं बल्कि अपने उन वरिष्ठ स्वसंयेवकों से भी गुस्से में है जो मोदी सरकार की नीतियों पर खामोशी बरतकर संघ परिवार के भीतर यह संदेश दे रही है कि उनके सामने दूसरा कोई विकल्प नहीं है। तो 2 सितबंर की बैठक का मतलब होगा क्या।
क्या पहली बार प्रधानमंत्री मोदी संघ परिवार को यह समझायेंगे कि सरकार की नीतियों के प्रचार प्रसार के लिये स्वयंसेवकों को भी जुटना होगा या फिर संघ के चालीस से ज्यादा संगठनों के प्रतिनिधि पहली बार सरकार को बतायेंगे कि सरकारी नीतियों उस जनमानस के खिलाफ जा रही है जिसके बीच वह काम करते हैं। ऐसे में रास्ता बीच का निकालना होगा। मोदी कहेंगे कि बीच का रास्ता तो अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौर में निकालने की कोशिश हुई थी लेकिन उसके बाद ना तो बीजेपी के हाथ में कुछ बचा और संघ की हथेली भी खाली ही रही। यूं सामान्य तौर पर स्वयंसेवकों में तल्खी होती नहीं है और नीतियों को लेकर कोई निर्णय इसलिये भी नहीं किए जाते जिससे लगे कि सरकार या संघ परिवार के सामने कोई अल्टीमेटम है। लेकिन सच यह भी है कि पहली बार प्रधानमंत्री मोदी भी इस सच को समझ रहे हैं कि विकास का जो खाका उन्होंने भूमि अधिग्रहण के जरिये खींचना चाहा उस पर संघ परिवार ने भी कभी कोई सहमति जतायी नहीं। यानी चाहे अनचाहे लगातार विकासपुरुष की जो छवि मोदी अपने लिये गढकर हिन्दुत्व के एजेंडे को हाशिये पर ले जाना चाहते रहे, उसमें वह सफल हो नहीं पाये।
विकास की थ्योरी दुबारा 2013 के भूमि अधिग्रहण की उस फिलासफी तले आकर खड़ी हो गयी जहां दुनिया भर के निवेशक यह सवाल उठाये कि भारत में निवेश के रास्ते अभी भी किसान मजदूर के पेट की जरूरतों पर आ टिकी है। जाहिर है भारत में आर्थिक सुधार का जो चेहरा मोदी लगातार दुनिया के सामने परोस रहे हैं वह विपक्ष की राजनीति तो दूर स्वयंसेवकों के सरोकार से ही टकरा कर टूटने लगता है। फिर भी मोदी का कोई विकल्प संघ परिवार के सामने नहीं है तो रास्ता होगा क्या और बनेगा क्या। यह सवाल अगले तीन दिनों की बैठक में कैसे उभरेगा, इसी पर हर किसी की नजर है क्योंकि जिस तर्ज पर मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक हालात बन रहे हैं उसमें एक बड़ा सवाल यह भी हो चला है कि संघ परिवार की भूमिका किसी भी राजनीतिक सत्ता को लेकर होनी क्या चाहिये। संघ को सामाजिक शुद्धिकरण की तरफ बढ़ना चाहिये या फिर सत्ता की मदद से अपने सतही विस्तार को देखना चाहिये।
मसलन दिल्ली में हिन्दुत्व के प्रचार प्रसार के लिये सरकार कोई इमारत बनवा दे। पैसा मुहैया करा दे। देश भर में शिशु भारती से लेकर संघ के तमाम संगठनों के लिये सरकारी मदद का रास्ता खुलने लगे। सरकार के भीतर स्वयंसेवकों के पद पर राम राम कहने वालों की भर्ती होने लगे। हिन्दू राष्ट्र को लेकर साध्वी से साधु तक के बयान समाजिक तानेबाने में थिरकन पैदा करने और भगवाधारी यह महसूस करने लगे कि उसका कहा किसी तर्क का मोहताज नहीं क्योंकि दिल्ली में तो उसकी अपनी सरकार है। इन हालातों में संघ के सतही विस्तार को कौन रोक सकता है। क्योंकि स्वयंसेवक का तमगा अगर हर रोजगार पर भारी पड़े, दो जून की रोटी मुहैया कराने से लेकर वैचारिकी महत्वकांक्षा पूरी करता हो और संघ परिवार इसी से खुश हो जाये तो फिर मोदी की सत्ता को कॉरपोरेट नीतियों को लेकर विरोध करने वाले भारतीय मजदूर संघ हो या किसान संघ या फिर स्वदेशी जागरण मंच के स्वयंसेवक हो तो उनका कुछ भी बोलना क्या मायने रखता है।
इसी प्रक्रिया को राजनीतिक तौर पर समझें तो विरोध के बावजूद संतुष्टि का भाव अगर बुजुर्ग राजनीतिक स्वयंसेवक लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को हाशिये पर ढकेल ठहाका लगाने वाला माहौल बनाता हो तो आने वाले वक्त की आहट क्या कोई संघ-सरकार की बैठक में सुन पायेगा कि विचार खत्म होते ही, विरोध के स्वर थमते ही, थोथे विस्तार को ही सच मानने पर तब क्या होगा, जब सत्ता नहीं रहेगी। यह वाकई मुश्किल है कि संघ सरकार की बैठक में कोई हेडगेवार की तर्ज पर खड़ा होकर कह दे कि राजनीतिक सत्ता से सामाजिक जीवन में बदलाव नहीं आ सकता है इसके लिये सत्ता के सामानांतर सामाजिक सरोकार की सत्ता आरएसएस बनायेगी। तो क्या संघ के मुखिया मोहन भागवत उस अंतर्द्न्द में फंसे हुये हैं जहां उन्हें मोदी की सत्ता के बगैर संघ का विस्तार नजर आ रहा है या फिर सत्ता अगर स्वयंसेवक की ना रहे तो हिन्दु आतंक के नाम पर कहीं दूसरी सत्ता कटघरे में खड़ा ना कर दें।
इसी का लाभ प्रधानमंत्री मोदी को भी मिल रहा है जो वह बेखौफ आर्थिक सुधार की एक ऐसी लकीर देश खिंचना चाह रहे हैं, जहां पूंजी विदेशी हो। तकनीक विदेशी हो। उत्पादन के पीछे स्किल इंडिया खड़ा हो। यानी देश की पूंजी श्रम और देसी तकनीक-शिक्षा कोई मायने न रखे। देसी आधरभूत ढांचे को मजबूती देने के बदले दुनिया के बाजार के अनुकूल खुद को बनाने की होड में उपभोक्ता समाज के लिये देश को ही बदल देने की ठान ली जाये। और संघ परिवार सुविधाओ की पोटली उठाये हर चुनाव में सक्रिय हो जाये। जाहिर है यह विचार भी संघ परिवार के भीतर पहली बार यह सवाल खड़ा कर रहे है कि आने वाले वक्त में आरएसएस की भूमिका सिमट जायेगी। और क्या पहली बार सरकार को भी लग रहा है कि सामाजिक तौर पर अगर संघ के सरोकार सरकार की नीतियों के साथ खडे नहीं होते है तो उसकी सोच भी ढहढहा जायेगी। यानी पहली बार मोदी सरकार की जरुरत और संघ परिवार के रास्ते को एक साथ लेकर चला कैसे जाये यही सवाल बड़ा हो चला है। असर इसी का है दोनो ही अपने कहे बोल को चबाने से नहीं चूक रहे।
विकास का अनूठा पाठ मोदी सरकार के जरीये भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर जो पढाया गया उसे संघ के भीतर के सवालो तले वापस ले लिया गया और संघ के विस्तार की जरुरत तले मोदी सरकार की कारपोरेट नीतियो पर सहमति के साथ दत्तोपंत ठेंगडी के कामो का गुणगान भी किया गया तो संघ की ही संगठनों ने यह आवाज उठा दी कि दो अलग रास्ते कैसे एक सकते हैं। शायद पहली बार संघ के मुखिया को भी समझ में आया कि मोदी की नीतियों के साथ खड़ा होते हुये अगर दत्तोपंत ठेंगडी के विचारों से स्वयंसेवकों को उत्साहित किया जाये तो सवाल स्वयंसेवक ही उठायेंगे। फिर मोदी भी इस सच को समझ रहे है कि अगर संघ उन्हीं के भरोसे रह गया या सत्ता पर ही आश्रित रह गया तो अभी तो गुजरात में पाटीदार समाज ने उन्हें चुनौती दी है आने वाले में कई समाज खड़े हो सकते है क्योंकि भारतीय समाज में राजनीतिक सत्ता के सामानांतर सामाजिक सत्ता भी चाहिये जो शाक अब्जार्वर का काम करती है। और बीजेपी हार कर बार बार सत्ता में इसीलिये आती है क्योंकि उसके पास संघ परिवार है।
लेखक पुण्य प्रसून बाजपेयी आजतक न्यूज चैनल में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं. उनका यह लिखा उनके ब्लाग से साभार लेकर भड़ास पर प्रकाशित किया गया है.