यदि पेरिस में हत्याकांड एक दिन पहले हो जाता तो नरेंद्र मोदी की लंदन−यात्रा पर पानी फिर जाता, क्योंकि इन विदेश−यात्राओं का मुख्य लक्ष्य है− प्रचार। विदेशों में भी और भारत में भी! आतंकवादी घटना तो पेरिस में घटी थी लेकिन भारत के टीवी चैनल और अखबार भी पूरी तरह उसी से ओत−प्रोत थे। मोदी की लंदन−यात्रा इस अर्थ में बेहद सफल हो गई। अन्य विदेश−यात्राओं के मुकाबले यह माना जा सकता है कि यह ज्यादा सफल रही। वेंबले में जो 60 हजार लोगों की सभा हुई, वैसी क्या आज तक कोई ब्रिटिश प्रधानमंत्री कर सका?
ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड केमरन उस सभा में बैठे थे। वे हतप्रभ हुए बिना नहीं रहे होंगे। मेरे कुछ विदेशों में रहनेवाले भारतीय मित्रों ने मुझसे कहा कि उन्होंने लाल किले पर आजादी का पहला जश्न नहीं देखा था लेकिन वेंबले के जश्न के सामने वह पहला जश्न भी क्या जश्न रहा होगा? इस जश्न ने अपने पंख ब्रिटेन के साथ−साथ भारत में भी फैला दिए थे। यह मोर का नाच बिहार के कौओं की कांव−कांव को ढक देनेवाला था। मित्रों ने यह भी लिख भेजा कि वेंबले की रौनक के आगे बिहार की हार फीकी पड़ गई। एक क्या, कई बिहार भी हार जाएं तो कोई परवाह नहीं। विदेशों में बसे मित्र यह सोचें तो कोई बात नहीं लेकिन डर यही है कि हमारे विश्व−नेताजी भी कहीं इसी तरह न सोचने लगें? नाचता हुआ मोर देखनेवालों को तो अच्छा लगता ही है लेकिन मोर स्वयं भी परम मुग्ध हो जाता है।
दूसरी बड़ी सफलता यह रही कि ब्रिटेन के साथ 90 हजार करोड़ पौंड के कई समझौते हुए हैं। ऐसे समझौते और इससे भी बड़े−बड़े समझौते पिछली विदेश−यात्राओं में भी हुए हैं लेकिन सरकार यह नहीं बताती कि वे कागज़ से उतरकर ज़मीन पर कब आएंगे? क्या वे दूर के ढोल बने रहेंगे? बिहार की हार के दूसरे दिन ही सरकार ने 15 क्षेत्रों में विदेशी पूंजी निवेश को आसान बना दिया लेकिन क्या भाजपा के मजदूर संघ का तर्क उसने सुना? संघ का कहना है कि जितनी विदेशी पूंजी भारत आई है, उससे कहीं ज्यादा विदेशी लोग मुनाफे, वेतन और भत्तों में लूट ले गए हैं। आंख मींचकर विदेशी पूंजी को बुलावा देना भारत को लुटवाना है। यह सरकार दिमाग से भी कुछ काम लेगी या सिर्फ हाथ, पैर और जुबान चलाती रहेगी?
लेखक डॉ. वेदप्रताप वैदिक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.