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देश की परंपराओं से मुसलमानों को ही मुश्किल क्यों होती है

Sanjay Tiwari : धार्मिक रूप से देखें तो देश के हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन और ईसाई देश के मुद्दे पर देश के साथ किसी बहस में नहीं है। बहस में हैं सिर्फ मुस्लिम। पहले भी थे, अब भी हैं और आगे भी बहस में बने रहेंगे। वन्देमातरम बोलना हो या भारत माता की जय, तिरंगा फहराना हो या देश के लिए तेवर दिखाना हो किसी गैर मुस्लिम को देश की परंपराओं से कोई आपत्ति नहीं है। न तो उसका मजहब आड़े आता है और न ही मानसिकता। मुश्किल होती है मुसलमान के साथ।

<p>Sanjay Tiwari : धार्मिक रूप से देखें तो देश के हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन और ईसाई देश के मुद्दे पर देश के साथ किसी बहस में नहीं है। बहस में हैं सिर्फ मुस्लिम। पहले भी थे, अब भी हैं और आगे भी बहस में बने रहेंगे। वन्देमातरम बोलना हो या भारत माता की जय, तिरंगा फहराना हो या देश के लिए तेवर दिखाना हो किसी गैर मुस्लिम को देश की परंपराओं से कोई आपत्ति नहीं है। न तो उसका मजहब आड़े आता है और न ही मानसिकता। मुश्किल होती है मुसलमान के साथ।</p>

Sanjay Tiwari : धार्मिक रूप से देखें तो देश के हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन और ईसाई देश के मुद्दे पर देश के साथ किसी बहस में नहीं है। बहस में हैं सिर्फ मुस्लिम। पहले भी थे, अब भी हैं और आगे भी बहस में बने रहेंगे। वन्देमातरम बोलना हो या भारत माता की जय, तिरंगा फहराना हो या देश के लिए तेवर दिखाना हो किसी गैर मुस्लिम को देश की परंपराओं से कोई आपत्ति नहीं है। न तो उसका मजहब आड़े आता है और न ही मानसिकता। मुश्किल होती है मुसलमान के साथ।

इस्लाम की मजहबी मान्यताएं दुनिया के बाकी सभी दूसरे धर्मों के मुकाबले सबसे अधिक कट्टर, जटिल और मकड़जाल की तरह उलझी हुई हैं। इसलिए राष्ट्र राज्यों की दुनिया में यह समस्या केवल भारत के साथ नहीं है। हर बात में इतने विरोधाभाष हैं कि एक ही बात के लिए एक मुसलमान कुरान से तस्दीक कर देगा तो दूसरा मुसलमान कुरान से ही उसे खारिज भी कर देगा। और तुर्रा यह कि दोनों सच्चे इस्लाम का दावा भी ठोंक देंगे।

देश के प्रति वफादारी वाली बात भी इसी तरह है। अव्वल तो इस्लाम डेमोक्रेसी जैसी किसी बात की इजाजत नहीं देता। उसके आदर्श राज्य (इस्लामिक स्टेट) का शासन खलीफा करता है। लेकिन बदलते वक्त के साथ इस्लाम ने इस पर समझौता किया है और एक हद तक सऊदी अरब में भी जम्हूरियत (जनता के शासन) को स्वीकार किया है। मुसलमान के साथ दूसरी समस्या पैदा करते हैं मुस्लिम मौलाना और बुद्धिजीवी जो इस्लाम के विस्तार को ही मुसलमान की जिन्दगी का आखिरी उद्देश्य समझाते, बताते हैं। इस तरह ईश्वर (अल्लाह) के प्रति भक्ति और समर्पण को वे साम्राज्य विस्तार की कट्टरता में तब्दील कर देते हैं। वे समझाते हैं कि हर मुसलमान के जिन्दगी का आखिरी लक्ष्य है इस्लामिक स्टेट की स्थापना और जब तक यह नहीं हो जाता तब तक इस्लाम खतरे में है।

देश के मामले में ये बातें एक मुसलमान के मन के भीतर बहुत विरोधाभाष पैदा करती है। एक तरफ दीन और मजहब का डर तो दूसरी तरफ समय के साथ चलने की चुनौती। असल में वह पूरी दुनिया में कहीं भी न देशद्रोही है और न समाज विरोधी। वह अपने भीतर के विरोधाभाषों से घिरा एक ऐसा इंसान है जिसकी स्वतंत्र सोच पर मजहबी ठेकेदारों ने घेरा डाल रखा है। जाहिर है इस घेरे से उसे खुद ही बाहर निकलना होगा। हसन निसार के शब्दों में कहें तो इस जहालत की बेड़ी खुद काटनी पड़ेगी और मजहब को मुल्क से अलग करना पड़ेगा। इस्लामिक और गैर इस्लामिक की मजहबी मानसिकता ने मुसलमान को आज तक कुछ नहीं दिया है, और आगे भी कुछ नहीं दे सकेगा। हां, उसे जहालत में रखकर कुछ लोग जरूर मौज करते रहेंगे।

यह भी सच है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दूसरे तरफ की कट्टरता को बढ़ावा देता है। वह भी राजनीतिक रूप से वैसे ही सोचता है जैसे मुस्लिम कट्टरपंथी। इसलिए दोनों का एक दूसरे के विरोध में खड़े दिखना स्वाभाविक है।

वेब जर्नलिस्ट संजय तिवारी के फेसबुक वॉल से.

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