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आसान नहीं है वन रैंक वन पेंशन… जानिए कैसे…

Sanjaya Kumar Singh : वन रैंक वन पेंशन (ओआरओपी) के बारे में कुछ भी बोलने से पहले यह जान लिया जाना चाहिए कि विकिपीडिया के मुताबिक, 1973 तक भारतीय सशस्त्र सेना के लोगों के लिए पेंशन और दूसरे लाभ तय करने का आधार यही होता था और समान रैंक तथा समान सेवा अवधि के लिए समान पेंशन मिलती थी। इसमें रिटायरमेंट की तारीख का कोई मतलब नहीं था। मोटे तौर पर इसे ऐसे बताया जा सकता है कि 10 साल मेजर के पद पर रहने के बाद अगर कोई 1975 में रिटायर हुआ था और कोई 2015 में रिटायर हो तो दोनों की पेंशन बराबर होगी। सुनने में यह अच्छा लगता है लेकिन 1975 में रिटायर व्यक्ति की जरूरतें अलग होंगी (आयु भी) वेतन भी कुछ और रहा होगा उसकी पेंशन आज रिटायर होने वाले के बराबर क्यों होनी चाहिए। शायद इसीलिए तीसरे केंद्रीय वेतन आयोग के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सरकार ने “एकतरफा” निर्णय लेते हुए इसे खत्म कर दिया था। जाहिर है, इससे पूर्व सैनिकों में असंतोष है पर यह 40 साल से पुराना मामला है।

<p>Sanjaya Kumar Singh : वन रैंक वन पेंशन (ओआरओपी) के बारे में कुछ भी बोलने से पहले यह जान लिया जाना चाहिए कि विकिपीडिया के मुताबिक, 1973 तक भारतीय सशस्त्र सेना के लोगों के लिए पेंशन और दूसरे लाभ तय करने का आधार यही होता था और समान रैंक तथा समान सेवा अवधि के लिए समान पेंशन मिलती थी। इसमें रिटायरमेंट की तारीख का कोई मतलब नहीं था। मोटे तौर पर इसे ऐसे बताया जा सकता है कि 10 साल मेजर के पद पर रहने के बाद अगर कोई 1975 में रिटायर हुआ था और कोई 2015 में रिटायर हो तो दोनों की पेंशन बराबर होगी। सुनने में यह अच्छा लगता है लेकिन 1975 में रिटायर व्यक्ति की जरूरतें अलग होंगी (आयु भी) वेतन भी कुछ और रहा होगा उसकी पेंशन आज रिटायर होने वाले के बराबर क्यों होनी चाहिए। शायद इसीलिए तीसरे केंद्रीय वेतन आयोग के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सरकार ने "एकतरफा" निर्णय लेते हुए इसे खत्म कर दिया था। जाहिर है, इससे पूर्व सैनिकों में असंतोष है पर यह 40 साल से पुराना मामला है।</p>

Sanjaya Kumar Singh : वन रैंक वन पेंशन (ओआरओपी) के बारे में कुछ भी बोलने से पहले यह जान लिया जाना चाहिए कि विकिपीडिया के मुताबिक, 1973 तक भारतीय सशस्त्र सेना के लोगों के लिए पेंशन और दूसरे लाभ तय करने का आधार यही होता था और समान रैंक तथा समान सेवा अवधि के लिए समान पेंशन मिलती थी। इसमें रिटायरमेंट की तारीख का कोई मतलब नहीं था। मोटे तौर पर इसे ऐसे बताया जा सकता है कि 10 साल मेजर के पद पर रहने के बाद अगर कोई 1975 में रिटायर हुआ था और कोई 2015 में रिटायर हो तो दोनों की पेंशन बराबर होगी। सुनने में यह अच्छा लगता है लेकिन 1975 में रिटायर व्यक्ति की जरूरतें अलग होंगी (आयु भी) वेतन भी कुछ और रहा होगा उसकी पेंशन आज रिटायर होने वाले के बराबर क्यों होनी चाहिए। शायद इसीलिए तीसरे केंद्रीय वेतन आयोग के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सरकार ने “एकतरफा” निर्णय लेते हुए इसे खत्म कर दिया था। जाहिर है, इससे पूर्व सैनिकों में असंतोष है पर यह 40 साल से पुराना मामला है।

इतने दिनों बाद अगर यह मुद्दा फिर गर्म है तो इसलिए कि 10 सदस्यों के एक संसदीय पैनल ने इस मामले पर विचार करने के बाद 19 दिसंबर 2011 को रिपोर्ट दी थी और आमराय से सिफारिश की थी कि सेना की अलग स्थिति के मद्देनजर ओआरओपी योजना लागू की जानी चाहिए और भविष्य में भी सेना के वेतन, भत्तो, पेंशन आदि के संबंध में निर्णय एक अलग आयोग को लेना चाहिए। 10 सदस्यों वाली इस सर्वदलीय पैनल के प्रमुख भाजपा सांसद बीसी कोशियारी थे और इसलिए इसे कोशियारी कमेटी भी कहा जाता है। कोशियारी कमेटी ने ओआरओपी को लागू करने में नौकरशाही के विरोध को कारण बताया था। कुल मिलाकर, मामला यह है कि अगर ओआरओपी को फिर से मान लिया जाए तो देश को भारी धनराशि इस मद में खर्च करनी होगी और यह राशि कहां से आएगी। अभी ही हमारे यहां कर दाताओं की संख्या बहुत कम है और नौकरी करने वाले लोगों पर टैक्स लगाना आसान है इसलिए भारी महंगाई के बावजूद अपेक्षाकृत कम तनख्वाह पाने वाले भी आयकर की जद में आते हैं। और तो और पेंश पाने वाले भी आयकर देते हैं। दूसरी ओर युवा कामगारों के लिए जो न्यूनतम वेतन तय है वह भी उन्हें नहीं मिलता और कहने की जरूरत नहीं है कि काम करने वालों का वेतन सेना से रिटायर होने वालों की पेंशन की तुलना में ज्यादा हो जाएगा।

यह मुश्किल स्थिति है। और इसे मानना इतना आसान नहीं है। अगर होता तो 1973 में बंद ही क्यों किया गया होता। जहां तक कोशियारी कमेटी की सिफारिशों का सवाल है, आदर्श स्थिति तो यही है कि लोगों को ज्यादा से ज्यादा पेंशन मिले और यह राजनीतिक निर्णय है। पर पेंशन देने वालों को समाज के दूसरे वर्गों का भी ख्याल रखना होगा। मामला इसीलिए नहीं निपट पा रहा है। पूर्व सैनिकों की यह मांग अगर मान ली गई तो समाज के दूसरे वर्गों से ऐसी मांग उठे ना उठे सभी सरकारी सेवकों से ऐसी मांग जरूर उठेगी। पेंशन वैसे ही बहुत मुश्किल भरी जिम्मेदारी है और मुट्ठी भर करदाताओं के दम पर इसका अंतहीन विस्तार नहीं किया जाना चाहिए। यह मांग अगर पूरी की गई तो अनवरत चलती रहने वाली है। ठीक है, सेना की स्थिति अलग है, हम उनकी बदौलत ही चैन की नींद सोते हैं पर इसमें और भी लोगों का योगदान है। सबको बराबर क्यों न माना जाए। और उन्हें भी जो नौकरी के दौरान सर्वोच्च बलिदान देते हैं। मेरे ख्याल से नौकरी के दौरान शहीद होने वाले किसी भी सैनिक को आजीवन वेतन और पेंशन मिलती रहनी चाहिए। पर क्या यह संभव है। मेरे ख्याल से ओआरओपी भी इसी तरह संभव नहीं है।

कहा जा सकता है कि ओआरओपी सेना से कम उम्र में ही रिटायर किए जाने की जरूरत की क्षतिपूर्ति है। इससे असहमति नहीं है। पर इसका विकल्प पेंशन की राशि में अंधाधुंध वृद्धि नहीं हो सकता है। ये लोग अगर काम कर सकते हैं तो इन्हें काम करके पैसे की मांग करनी चाहिए। सरकार इस दिशा में काम करती भी है। इसे और दुरुस्त किए जाने की जरूरत है। राजनीति वैसे भी फूट डालो राज करो से चलती है। और समाज का एक वर्ग अपने लिए विशेष सुविधा की मांग करे तो राजनीतिज्ञ इसे निश्चित रूप से पूरा करके वोट बैंक बनाना चाहेंगे पर यह देश हित में नहीं हो सकता है। यह जाति के आधार पर आरक्षण देने की तरह है। पूर्व सैनिकों की जगह कोई और वर्ग ऐसी मांग पूरी करता जिसका भार सरकारी खजाने पर इतना ज्यादा नहीं होता तो यह मांग पूरी हो गई होती। अभी तो नौकरशाहों को खलनायक बना दिया गया है।

आईबीएन सेवन की एक खबर के मुताबिक इस मांग को पूर्ण करने पर इस समय 7500 से 10000 करोड़ रुपए सालाना खर्च होंगे। ज्यादातर सैनिक 35 से 37 साल के बीच रिटायर हो जाते हैं। रिटायर हो चुके सैनिकों के लिए दोबारा रोजगार पाने के अवसर सीमित हैं। अमेरिका में सैनिकों को आम सेवाओं के मुकाबले 15-20% तक अधिक वेतन मिलता है। ब्रिटेन में सैनिकों को आम सेवाओँ के मुकाबले 10%, फ्रांस में 15%, पाकिस्तान में 10-15% और जापान में सैनिकों को 19-29% तक अधिक वेतन मिलता है।

वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह के फेसबुक वॉल से.

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