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दुख-सुख

वरिष्ठ पत्रकार पंकज शर्मा ने पूछा- बताइए लिखना जारी रखूं या न्यूज़ीलैंड नार्वे जाकर बस जाऊं?

Pankaj Sharma : लगता है कि एक अजीब क़िस्म की ख़ानाबदोशी क़िस्मत में जनम से ही लिखी हुई है। बचपन आदिवासी देहातों में बीता। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई कूदते-फांदते, बोलते-लिखते, लड़ते-झगड़ते कब पूरी हो गई, पता ही नहीं चला। पिता कुछ और चाहते रहे और मैं कुछ और करता रहा। इक्कीस बरस की उम्र पूरी हुए कुछ ही महीने बीते थे कि अपने को टाइम्स-ग्रुप में पाया। सत्ताईस बरस से ज्यादा वहाँ रहा। वह ज़माना दो-दो साल में नौकरियाँ बदलने का नहीं था। डोली जाती थी तो अर्थी ही बाहर आती थी। सो, प्रशिक्षु पत्रकारए उप-संपादक, विशेष संवाददाता, सारे पापड़ बेले। बहुत प्रस्ताव मिले, मगर सभी को टाइम्स-व्रता के नाते ठुकरा दिया।

<p>Pankaj Sharma : लगता है कि एक अजीब क़िस्म की ख़ानाबदोशी क़िस्मत में जनम से ही लिखी हुई है। बचपन आदिवासी देहातों में बीता। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई कूदते-फांदते, बोलते-लिखते, लड़ते-झगड़ते कब पूरी हो गई, पता ही नहीं चला। पिता कुछ और चाहते रहे और मैं कुछ और करता रहा। इक्कीस बरस की उम्र पूरी हुए कुछ ही महीने बीते थे कि अपने को टाइम्स-ग्रुप में पाया। सत्ताईस बरस से ज्यादा वहाँ रहा। वह ज़माना दो-दो साल में नौकरियाँ बदलने का नहीं था। डोली जाती थी तो अर्थी ही बाहर आती थी। सो, प्रशिक्षु पत्रकारए उप-संपादक, विशेष संवाददाता, सारे पापड़ बेले। बहुत प्रस्ताव मिले, मगर सभी को टाइम्स-व्रता के नाते ठुकरा दिया।</p>

Pankaj Sharma : लगता है कि एक अजीब क़िस्म की ख़ानाबदोशी क़िस्मत में जनम से ही लिखी हुई है। बचपन आदिवासी देहातों में बीता। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई कूदते-फांदते, बोलते-लिखते, लड़ते-झगड़ते कब पूरी हो गई, पता ही नहीं चला। पिता कुछ और चाहते रहे और मैं कुछ और करता रहा। इक्कीस बरस की उम्र पूरी हुए कुछ ही महीने बीते थे कि अपने को टाइम्स-ग्रुप में पाया। सत्ताईस बरस से ज्यादा वहाँ रहा। वह ज़माना दो-दो साल में नौकरियाँ बदलने का नहीं था। डोली जाती थी तो अर्थी ही बाहर आती थी। सो, प्रशिक्षु पत्रकारए उप-संपादक, विशेष संवाददाता, सारे पापड़ बेले। बहुत प्रस्ताव मिले, मगर सभी को टाइम्स-व्रता के नाते ठुकरा दिया।

अमेरिका से लेकर तब के सोवियत संघ, ऑस्ट्रेलिया से ले कर यूरोप, मॉरीशस से ले कर सूरीनाम, खाड़ी के मुल्क़ों से ले कर ताइवान और सिंगापुर से ले कर हांगकांग तक खूब देखा, पढ़ा और लिखा। जाफ़ना के जंगलों से भी नवभारत टाइम्स के लिए रपटें भेजीं और हंगरी के बुदापेश्त से भी। सऊदी अरब की सख्ती भी देखी और लासवेगास की मस्ती भी। रामदीन के साथ भी घूमा और राजीव गांधी के साथ भी। एक बस कंडक्टर की मेहरबानी से मिली छह फ़ुट की जगह में महीनों रातें गुज़ारीं और न्यूयॉर्क से ले कर सिडनी के हिल्टन होटलों के सुइट में भी पैर पसारे। राजेंद्र माथुर और सुरेंद्र प्रताप सिंह की शाग़िर्दी में काम करने का मौक़ा मिलना ही बहुत बड़ी तक़दीर है।

अस्सी के दशक में दूरदर्शन के कार्यक्रमों की लगातार एंकरिंग ने छोटे-मोटे सितारे का दर्ज़ा भी दे दिया था। नब्बे के दशक में टेलीविज़न के कई कार्यक्रम और फ़िल्मं बनाईं। पता नहीं, मैं पत्रकारिता की नौकरी से आज़िज आया या नौकरी मुझसे धाप गई, २००६ के आख़ीर में मैंने बाक़ायदा राजनीति में प्रवेश कर लिया। अब कांग्रेस पार्टी में काम करता हूँ। पता नहीं, क्यों करता हूं। रोटी के लिए लेख लिखता हूँ, परदेसी अख़बारों को ख़बरें मुहैया कराने वाली एक सिंडिकेट एजेंसी चलाता हूँ–न्यूज़ व्यूज़ इंडिया और उसका पीर-बावर्ची-भिश्ती-खर हूँ। जानता हूँ कि अब वैसे कद्र-दाँ कहाँ? लेकिन लिखने की लत किसकी छूटी है कि मेरी छूटेगी। लोगों की पढ़ने की आदत अब बहुत कम हो गई है। सो, मेरा लिखा भी कम पढ़ते हैं। लेकिन जो पढ़ते हैं, उनकी प्रतिक्रियाएं मिलती हैं और उन्हीं के बूते मैं लिखता रहता हूं। लेकिन आप बताइए कि लिखना जारी रखूं या न्यूज़ीलैंड या नार्वे जा कर बसना बेहतर है?

वरिष्ठ पत्रकार पंकज शर्मा के फेसबुक वॉल से.

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