: अब दाल गलेगी क्या? : अरहर की दाल के भावों को आसमान पर चढ़े, कई हफ्ते हो गए। दो सौ-ढाई सौ रुपए किलो की दाल खाना हर किसी के बस की बात नहीं है। 25-30 करोड़ के मध्यम वर्ग को कोई खास फर्क नहीं पड़ता लेकिन 100 करोड़ ग्रामीण, गरीब, पिछड़े वर्ग के लोग क्या करें? दाल ही उनका सहारा है। उन्हें दो वक्त की दाल-रोटी मिल जाए, बस यही काफी है, उनके लिए! लेकिन देखिए डेढ़ साल में उनके लिए कितने अच्छे दिन आ गए हैं? रोटी तो है लेकिन उसे खाएं किसके साथ? दाल न सही, प्याज के साथ खाएं लेकिन प्याज भी 60-70 रु. किलो बिकता रहा। दाल खानी तो पड़ती है, क्योंकि सूखी रोटी गले के नीचे कैसे उतरे? यह दाल आजकल दाल नहीं रह गई है। वह दाल का पानी बन गई है। करोड़ों लोग दाल के पानी से गुजारा कर रहे हैं।
सरकार को अब होश आया है। वह दाल का आयात भी कर रही है और दाल के जमाखोरों के यहां छापे भी मार रही है। एक ही दिन में उसने 6000 टन दाल उगलवा ली लेकिन जिस देश में आज लाखों टन दाल की कमी है, उसमें कुछ हजार टन दाल निकलवाने से पूरा कैसे पड़ेगा? यह अच्छी खबर है कि सरकारी दुकानों पर अब दाल 120 या 130 रु. किलो मिल सकेगी। सरकार को साल भर पहले से पता था कि दाल कितनी कम उपजेगी लेकिन उसे फुर्सत कहां? उसके नेता बंडियां बदल-बदलकर बंडल मारने में लगे रहे। प्रचार की भूख ने उन्हें आत्म-मुग्ध कर रखा है। लोग भूखें मरे तो मरें, उन्हें क्या?
अगर सरकार का सचमुच दबदबा होता तो जमाखोरों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ जाती। दाल मंहगी होती ही नहीं। अब भी कठोर कार्रवाई हो तो लाखों टन दाल एक दिन में बाहर आ सकती है। सरकार के पास कोई नैतिक शक्ति होती तो वह दालवालों की दाल गलने ही नहीं देती। देश के करोड़ों लोगों को वह एक-दो माह तक अरहर की दाल का त्याग करने के लिए कहती। स्वयं राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री इस त्याग की घोषणा करते और उनकी देखादेखी करोड़ों लोग दाल खरीदना और खाना बंद कर देते तो जमाखोरों के होश ठिकाने लग जाते। लेकिन नेताओं को क्या फर्क पड़ता है? दाल 200 रु. किलो क्या, 2000 रु. किलो बिके तो भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
बारुद के ढेर पर बैठा हुआ देश : क्या स्वतंत्र भारत में कभी ऐसा हुआ है कि किसी राष्ट्रपति को दो हफ्तों में तीन बार अपील करनी पड़े? राष्ट्रपति को बार−बार क्यों कहना पड़ रहा है कि लोग सद्भाव और सहनशीलता का वातावरण बनाए रखें? प्रधानमंत्री ने दबी जुबान से वही बात दोहराई, जो राष्ट्रपति ने कही। दोनों की अपीलों का जनता पर कोई असर दिखाई नहीं पड़ रहा है। शिवसेना ने पहले गुलाम अली का गायन नहीं होने दिया, फिर खुर्शीद कसूरी की किताब को लेकर सुधींद्र कुलकर्णी के मुंह पर स्याही पोत दी और अब उसने पाकिस्तान से आए क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष शहरयार खान की बैठक पर हमला बोल दिया। मान लिया कि यह हताश शिवसेना की भड़ास थी, जो उसने भाजपा के विरुद्ध निकाली। यह भी मान लें कि आतंकग्रस्त मुंबईवासियों की भावना का फायदा उठाने की कोशिश शिवसेना कर रही थी ताकि वह महाराष्ट्र में भाजपा का दुमछल्ला बनी हुई न दिखे। ऐसे पैंतरे सभी राजनीतिक दल अपनाते हैं।
आम जनता इन नौटंकियों का मज़ा लेती है और इनकी असलियत को समझती भी है लेकिन गोहत्या के शक में दादरी में हुई अखलाक की हत्या, और कश्मीरी युवक जाहिद अहमद की हत्या, गोमांस पार्टी को लेकर एक कश्मीरी विधायक का मुंह काला करना और कुछ सवर्णों द्वारा फरीदाबाद में दो दलित बच्चों की हत्या ऐसी घटनाएं हैं, जिनका एक साथ होना देश में चिंता का वातावरण पैदा करता है। ऐसी घटनाएं और इनसे भी अधिक दर्दनाक घटनाएं पहले भी हुई हैं लेकिन एक तो इनका पटाखों की लडि़यों की तरह फट पड़ना और दूसरा सरकार का उदासीन−सा रवैया हैरत पैदा कर रहा है। ये घटनाएं प्रायोजित नहीं हैं। शिव सेना की नौटंकियों की तरह नहीं हैं। ये स्वत: स्फूर्त हैं। ये हमारे समाज का केंसर है, जो अंदर ही अंदर फैला हुआ है। सर्वत्र सांप्रदायिकता, जातिवाद और असंयम की बारुद बिछी हुई है। उसे विस्फोट बनने के लिए बस एक मामूली−सी तीली की जरुरत होती है। बारुद के ढेर पर बैठे हुए इस देश की रक्षा की चिंता हमारे नेताओं को उतनी नहीं है, जितनी कि अपनी कुर्सी की!
ऐसा नहीं है कि ये घटनाएं सरकार या भाजपा या संघ के इशारों पर हो रही हैं। दूर−दूर तक इसके कोई प्रमाण नहीं हैं लेकिन इन घटनाओं की निंदा जितनी देरी से होती है और लड़खड़ाती जुबान से होती है, उसका फायदा विरोधी दल अपने आप उठा रहे हैं। वे तो सख्त आलोचना कर ही रहे हैं, इस बहती गंगा में हमारे लेखकगण भी गोता लगाने से नहीं चूक रहे हैं। आज देश की जरुरत यह है कि इस तरह की दुर्घटनाओं को अपनी राजनीतिक शतरंज का मोहरा बनाने की बजाय हम उनकी जड़ों तक पहुंचने की कोशिश करें। प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति ने कोई बयान दिया या नहीं दिया, इससे क्या फर्क पड़ना है? ये बड़ी राजनीतिक हस्तियां जरुर हैं लेकिन समाज में इनका नैतिक प्रभाव कितना है? क्या इनके कहने से कोई गोमांस खाना छोड़ देगा? या किसी गोहत्यारे को लोग पापी या अपराधी मानना बंद कर देंगे? हां, नेताओं के बयान नेताओं का मुंह जरुर बंद कर सकते हैं। कुछ भाजपा नेताओं की उटपटांग बयानबाजी पर भाजपा नेताओं को कड़ा प्रतिबंध लगाना चाहिए। वरना आम जनता का भी यह शक गहरा होता जाएगा कि इन हत्याओं से भाजपा और संघ अंदर ही अंदर बहुत प्रसन्न हैं। सरकार में बैठे लोगों का कर्तव्य है कि वे देश के सारे नागरिकों के साथ समान और निष्पक्ष बर्ताव करें, चाहे उनमें से कुछ ने उन्हें वोट दिए हों या न दिए हों। विपक्ष में रहकर आप कैसी भी ‘राजनीति’ करते रहे हों, सत्तारुढ़ होने पर आपको ‘राजनीति’ कम और राष्ट्रनीति ज्यादा चलानी होगी। वरना, यह मानकर चलिए कि आप अभी से विपक्ष में फिर से बैठने की तैयारी में जुट गए हैं।
वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से.