पहली नवम्बर के ‘प्रतिरोध’ की यह सूचना किसी और की तरफ से नहीं, आप ही की ओर से है। देश में सांप्रदायिक उन्माद नया नहीं है, न दलितों और अल्पसंख्यकों का शोषण। न रचनाकारों की अवज्ञा और अपमान। चालीस बरस पहले नागरिक अधिकारों के पतन में इमरजेंसी एक मिसाल मानी गई थी। लेकिन जब हम समझने लगे कि शासन की भूमिका में काले दिनों का वह पतन इतिहास की चीज़ हो गया, नागरिकों पर संकट का नया पहाड़ आ लदा है। मौजूदा संकट ज्यादा भयावह और ख़तरनाक है क्योंकि यह ऐलानिया नहीं है; इसलिए कोई आसानी से इसकी ज़िम्मेदारी भी नहीं लेता। जबकि इसके पीछे एक दकियानूसी, समाज को बांटने और घृणा की खाई में धकेलने वाली वह हिंसक मानसिकता सक्रिय जान पड़ती है, जिसे देश ने कभी बंटवारे के वक़्त देखा-भोगा था और जिसने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की सरेआम हत्या में अंजाम पाया।
वह मानसिकता अब सर्वसत्तामान है। उसके चलते विचार, असहमति, विरोध, बहुलता और सहिष्णुता के वे मूल्य खतरे में हैं जो किसी भी प्रजातंत्र के प्राण होने चाहिए। शिक्षा और संस्कृति जैसे क्षेत्र अब जैसे हाशिये के विषय हैं। समाज-विरोधी और अलगाववादी शक्तियां सत्ता के साथ क़दमताल कर रही हैं; धार्मिक प्रतीकों को सार्वजनिक प्रतीक बनाकर लोगों के घर जलाए जा रहे हैं; अल्पसंख्यकों और दलितों को ज़िंदा जलाया जा रहा है; घर-वापसी, लव-जिहाद जैसे तुच्छ अभियान उच्च संरक्षण में अंजाम दिए गए हैं, जिनसे समुदायों में हिंसा भड़की है; असहमति या विरोध जताने वालों को देशद्रोही क़रार दिया जाने लगा है; कटु सत्य बोलने और लिखने वालों को पंगु बनाया जा रहा है, मौत के घाट उतारा जा रहा है; कार्टून से लेकर किताब, सिनेमा, कला, यहाँ तक भी खाद्य भी प्रतिबंधित घोषित किए जा सकते हैं – किए जा रहे हैं; रचनात्मक इदारों में अयोग्य लोग रोप दिए गए हैं; तोड़े-मरोड़े इतिहास के पाठ्यक्रम बनाए और पढ़ाए जाने लगे हैं; लोगों की रुचियों, खान-पान, पहनावे और अभिव्यक्ति तक को नियंत्रित किया जा रहा है; समाज पर छद्म धार्मिकता, छद्म मूल्यबोध और छद्म सांस्कृतिक-बोध थोपा जा रहा है …
और हमारे रहनुमाओं को अपने फ़ैशन, स्थानीय चुनावों और विदेश यात्राओं से फ़ुरसत नहीं कि इस अनीति, अन्याय और अनर्थ को शासन से सीधे मिल रही शह और संरक्षण से बचा सकें। ज़ाहिर है, सरकार की नीयत और कार्यक्षमता संदेह के गहरे घेरे है। यह संकट अपूर्व है, नियोजित है और इसमें निरंतरता है; इतना ही नहीं इसके पीछे एक ही मानसिकता या विचारपद्धति है। इसलिए, स्वाभाविक ही, स्वस्थ लोकतंत्र और देश की मूल्य-चेतना से सरोकार रखने वाले लोग आहत और चिंतित हैं। ज़रूरी है कि समाज और अभिव्यक्ति पर इस चौतरफ़ा हमले के ख़िलाफ़ अपनी एकजुटता और प्रतिरोध के इज़हार के लिए हम लोग 1 नवम्बर (रविवार) को 2 बजे मावलंकर हॉल, कांस्टीट्यूशन क्लब में जमा हों – और अपनी बात, अपनी आवाज़ और अपना इक़बाल बुलंद करें। पूरा भरोसा है कि आयोजन की सूचना के इस मज़मून से आप सहमत होंगे और इसे आगे से आगे हर स्वतंत्रचेता मित्र तक पहुँचाने में मदद करेंगे, वे चाहे किसी मत या विचारधारा के हों। अगले रविवार दोपहर दो बजे बेनागा ख़ुद तो पहुँच जाएँगे ही।