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दुख-सुख

राहुल सांकृत्यायन की जन्मतिथि 9 अप्रैल और पुण्यतिथि 14 अप्रैल : भागो नहीं, दुनिया को बदलो!

”जिनका हित इस सामाजिक ढाँचे के ऐसे ही बने रहने में है वे हमें शहीदों और महापुरुषों के विचारों पर ध्यान देने के बजाय उन्हें अवतार बनाकर पूजने की शिक्षा देते हैं, उनके ग्रंथों का अध्ययन करने के बजाय उन्हें मत्था टेकना सिखाते हैं और समाज को बदलने का यत्न करने के बजाय अवतार की प्रतीक्षा करने का उपदेश देते हैं।” -राहुल सांकृत्यायन

राहुल सांकृत्यायन Rahul Sankrityayan (1893-1963) भारत में वैचारिक-सांस्कृतिक क्रान्ति के एक ऐसे सूत्रधार थे जिनका यह अटल विश्वास था कि जनता स्वयं अपने इतिहास का निर्माण करती है। महापुरुष कोई आसमानी जीव नहीं होते बल्कि वे लोग होते हैं जो इतिहास-निर्माण के काम में जनता की अगुवाई करते हैं। आम मेहनतक़श जनता को उसकी अपार संगठित शक्ति से परिचित कराना और अन्याय एवं शोषणपूर्ण व्यवस्था के विरुद्ध उसे सामाजिक क्रान्ति के लिए तैयार करना राहुल के जीवन का मिशन था। इसके लिए राहुल ने केवल अपनी लेखनी और वाणी का ही इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि आज़ादी की लड़ाई और किसानों-मज़दूरों के आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, लाठियाँ खाईं, जेल गये और हर तरह की क़ुर्बानी दी।

<p><strong>''जिनका हित इस सामाजिक ढाँचे के ऐसे ही बने रहने में है वे हमें शहीदों और महापुरुषों के विचारों पर ध्यान देने के बजाय उन्हें अवतार बनाकर पूजने की शिक्षा देते हैं, उनके ग्रंथों का अध्ययन करने के बजाय उन्हें मत्था टेकना सिखाते हैं और समाज को बदलने का यत्न करने के बजाय अवतार की प्रतीक्षा करने का उपदेश देते हैं।'' -राहुल सांकृत्यायन</strong></p> <p>राहुल सांकृत्यायन Rahul Sankrityayan (1893-1963) भारत में वैचारिक-सांस्कृतिक क्रान्ति के एक ऐसे सूत्रधार थे जिनका यह अटल विश्वास था कि जनता स्वयं अपने इतिहास का निर्माण करती है। महापुरुष कोई आसमानी जीव नहीं होते बल्कि वे लोग होते हैं जो इतिहास-निर्माण के काम में जनता की अगुवाई करते हैं। आम मेहनतक़श जनता को उसकी अपार संगठित शक्ति से परिचित कराना और अन्याय एवं शोषणपूर्ण व्यवस्था के विरुद्ध उसे सामाजिक क्रान्ति के लिए तैयार करना राहुल के जीवन का मिशन था। इसके लिए राहुल ने केवल अपनी लेखनी और वाणी का ही इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि आज़ादी की लड़ाई और किसानों-मज़दूरों के आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, लाठियाँ खाईं, जेल गये और हर तरह की क़ुर्बानी दी।</p>

”जिनका हित इस सामाजिक ढाँचे के ऐसे ही बने रहने में है वे हमें शहीदों और महापुरुषों के विचारों पर ध्यान देने के बजाय उन्हें अवतार बनाकर पूजने की शिक्षा देते हैं, उनके ग्रंथों का अध्ययन करने के बजाय उन्हें मत्था टेकना सिखाते हैं और समाज को बदलने का यत्न करने के बजाय अवतार की प्रतीक्षा करने का उपदेश देते हैं।” -राहुल सांकृत्यायन

राहुल सांकृत्यायन Rahul Sankrityayan (1893-1963) भारत में वैचारिक-सांस्कृतिक क्रान्ति के एक ऐसे सूत्रधार थे जिनका यह अटल विश्वास था कि जनता स्वयं अपने इतिहास का निर्माण करती है। महापुरुष कोई आसमानी जीव नहीं होते बल्कि वे लोग होते हैं जो इतिहास-निर्माण के काम में जनता की अगुवाई करते हैं। आम मेहनतक़श जनता को उसकी अपार संगठित शक्ति से परिचित कराना और अन्याय एवं शोषणपूर्ण व्यवस्था के विरुद्ध उसे सामाजिक क्रान्ति के लिए तैयार करना राहुल के जीवन का मिशन था। इसके लिए राहुल ने केवल अपनी लेखनी और वाणी का ही इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि आज़ादी की लड़ाई और किसानों-मज़दूरों के आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, लाठियाँ खाईं, जेल गये और हर तरह की क़ुर्बानी दी।

आज़ादी की लड़ाई के दौरान, भगतसिंह की तरह राहुल ने भी कांग्रेसी नेतृत्व के पूँजीवादी चरित्र से जनता को बार-बार आगाह किया और हमेशा इस बात पर बल दिया कि केवल समाजवाद ही किसानों-मज़दूरों और सभी आम लोगों को सच्ची और वास्तविक आज़ादी दे सकता है। राहुल का यह दृढ़ विश्वास था कि दिमागी गुलामी की बेडि़यों को तोड़े बग़ैर हम अपनी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक ग़ुलामी के खिलाफ लड़ने के लिए संगठित नहीं हो सकते। इसलिए उन्होंने भाग्यवाद, रूढि़वाद और अतीत-पूजा की प्रवृत्ति पर लगातार चोट की। धार्मिक कट्टरता और धार्मिक रूढि़यों को वे जनता को निष्क्रिय और ग़ुलाम बनाये रखने का साधन मानते थे। जाति-भेद को वे समाज की जड़ों में पैठा ऐसा दीमक मानते थे जिसने भारतीय मेहनतक़श जनता की एकता को खण्ड-खण्ड तोड़कर उसके मुक्ति-संघर्ष की सफलता को असम्भव बना रखा है।

साथियो! धार्मिक कट्टरता, जातिभेद की संस्कृति और हर तरह की दिमागी गुलामी के खिलाफ राहुल के आह्वान पर अमल हमारे समाज की आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। पूँजी की जो चौतरफा जकड़बन्दी आज हमारा दम घोंट रही है, उसे तोड़ने के लिए ज़रूरी है कि तमाम परेशान-बदहाल मेहनतक़श आम लोग एकजुट हों और यह तभी हो सकता है जब वे धार्मिक रूढि़यों और जात-पाँत के भेदभाव से अपने को मुक्त कर लें। शासक वर्गों के चाकर बौद्धिक और मुल्ला-पुरोहित हमें इनके जाल में फँसाकर मुट्ठीभर लुटेरों के राजपाट की हिफाज़त करते हैं। धर्म और जाति का बँटवारा पूँजीवादी चुनावी राजनीति का एक आधार है। यह चुनावी राजनीति केवल देशी-विदेशी पूँजीपतियों के टट्टुओं को ही सत्ता के शिखर तक पहुँचाती है।

पिछले 69 सालों के दुखदायी सफरनामे ने साफ कर दिया है कि भारतीय जनतंत्र वास्तव में एक भ्रष्ट और आततायी धनतंत्र है। यह संविधान और कानून के रामनामी दुपट्टे में लिपटी उन देशी पूँजीपतियों की तानाशाही है जो साम्राज्‍यवादी लुटेरों के साथ मिलकर आम जनता को लूट रहे हैं। यह हथियारों और नौकरशाही के साथ ही उस वैचारिक-सांस्‍कृतिक तंत्र के बूते पर भी कायम है जो जनता को रूढि़वादी एवं भाग्यवादी बनाता है तथा जाति-धर्म के नाम पर बाँटकर उसकी एकता नहीं बनने देता।

साथियो! इन हालात ने आज देश को अंधी सुरंग के छोर पर ला खड़ा किया है। नकली समाजवाद और पूँजीवादी राष्ट्रवाद के मुखौटे उतरने के बाद देशी लुटेरे अब विदेशी लुटेरों को खुली लूट के लिए डंके की चोट पर न्यौत रहे हैं। कांग्रेस-प्रवर्तित नयी आर्थिक नीतियों को भाजपा शासन ने नई ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया है। उधर संसद में पक्ष-विपक्ष का नाटक जारी है और जनतंत्र के चुनावी खेल की तैयारियाँ भी। जो राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सम्मान की सबसे अधिक बातें करते हैं, वही विश्व-बाजार में देश को खुलेआम नीलाम कर रहे हैं और अमेरिकी डाकुओं के तलवे चाट रहे हैं। पूंजीवादी सड़ांध से पैदा हुए हिटलर और मुसोलिनी के वारिस फासिस्ट धर्म और जाति के आधार पर जनता को बांट रहे हैं, नक़ली राष्ट्रभक्ति के उन्मादी जुनून में हक़ की लड़ाई की हर आवाज़ को दबा रहे हैं, धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर एक नक़ली लड़ाई से असली लड़ाई को पीछे कर दे रहे हैं। पूंजीपति वर्ग अपने संकटों से निजात पाने के लिए फासिज्म को बढ़ावा देता है और ज़ंजीर से बंधे कुत्ते की तरह जनता के खि़लाफ़ उसका इस्तेमाल करना चाहता है, लेकिन जब-तब यह कुत्ता ज़ंजीर छुड़ा लेता है और समाज में भयंकर ख़ूनी उत्पात मचाता है। दूसरी पूंजीवादी चुनावी पार्टियाँ जाति-धर्म की राजनीति करती हुई इन ताकतों को मजबूत बनाती रही हैं, वे इनके विनाशकारी खेल को कतई नाक़ाम नहीं कर सकतीं।

इसके लिए जनता को एक बार फिर क्रान्तिकारी मशाल जलानी होगी। यह नयी क्रान्ति पूँजी की सत्ता के खिलाफ फैसलाकुन होगी। यह नयी लड़ाई तभी संगठित हो सकती है जब मेहनतक़श जनता धार्मिक रूढि़यों एवं जातिभेद की दिमागी गुलामी की ज़ंजीरों को झकझोरकर तोड़ दे तथा निराशा और भाग्यवाद की लम्बी शीतनिद्रा से जागकर उठ खड़ी हो। अतीत की नाक़ामियों से मायूस होने की ज़रूरत नहीं। इतिहास बताता है कि अतीत की सफल क्रान्तियों को भी लम्बे समय के ठहराव और पराजयों का सामना करना पड़ा था। इतिहास कभी रुकता नहीं और न ही पीछे लौटता है। लेकिन यह भी सच है कि क्रान्तियाँ अपने आप नहीं हो जातीं। वे जनता द्वारा सम्पन्न की जाती हैं और उनकी तैयारी के लिए सबसे पहले जनता के सच्चे, बहादुर, विवेकवान सपूतों को आगे आना होता है।

हम जनता के ऐसे ही सच्चे, बहादुर सपूतों का आह्वान करते हैं कि वे राहुल और भगतसिंह के सपनों के भारत के निर्माण के लिए आगे आयें। अब और देर आत्मघाती होगी। या तो पूँजी की सर्वग्रासी गुलामी से मुक्ति या फिर फासीवादी बर्बरता और विनाश- हमारे सामने सिर्फ ये ही दो विकल्प हैं। हम तमाम जिन्दा लोगों का आह्वान करते हैं।

साथियो! धार्मिक कट्टरता और जातिभेद की भावना से खुद को मुक्त करो। यही राहुल का सन्देश है। नौजवानो! अन्याय और ज़ुल्म में डूबा यह देश रसातल को चला जाये तो यह नौजवानी किस काम की? आखिर कब तक तुम अकेले-अकेले, अपने सुखद भविष्‍य की मृगमरीचिका के पीछे भागते रहोगे? बुद्धिजीवियो! तय करो, तुम किस ओर हो? सम्मान और सुविधापूर्ण जीवन की चाह में तुम्हें सत्ता की चा‍करी करनी है या फिर सामाजिक संघर्ष के मोर्चे पर क़लम के सिपाही की भूमिका निभानी है और उसकी हर कीमत चुकानी है! तुम्‍हें तय करना ही होगा क्योंकि बीच का कोई रास्‍ता नहीं होता!

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सामने खड़ी विपत्ति से दो-दो हाथ करने के बजाय शुतुर्मुर्ग की तरह रेत में मुँह छुपाना आत्मघाती होगा। राहुल ने कहा था, “भागो नहीं, दुनिया को बदलो”। यह ज़रूरी है और सम्भव भी। यह इतिहास का नियम है और हमारा ऐतिहासिक दायित्व भी!

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ,

जागरूक नागरिक मंच
नौजवान भारत सभा
स्त्री मुक्ति लीग

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