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शरीर में स्वयं रोग-मुक्त होने की क्षमता होती है: डॉ.चंचलमल चोरडिया

रोग की तीन अवस्थाएँ होती हैं- शारीरिक, मानसिक और आत्मिक। जिस अवस्था का रोग होता है उसके अनुरूप यदि उपचार नहीं किया जाता है तो रोग से मुक्ति सम्भव नहीं होती। आजकल अधिकांश व्यक्ति मानसिक और आत्मिक रोगों को तो रोग मानते ही नहीं, क्योंकि मन की एवं आत्मा की शक्ति का न तो उन्हें सम्पूर्ण ज्ञान होता है और न वे उसको जानने एवं समझने का अपेक्षित प्रयास ही करते हैं। शरीर से मन की शक्ति बहुत ज्यादा होती है और मन से आत्मा की शक्ति अनन्तगुणी होती है। जब आत्मा पर आये कर्मो के आवरण दूर हो जाते हैं तो व्यक्ति अनन्तद्रष्टा अर्थात् त्रिकाल द्रष्टा बन जाता है। मन की शक्ति का उस समय आभास होता है जब व्यक्ति को चलने-फिरने में अत्यधिक कष्ट होता है, परन्तु उसके सामने मारणान्तिक भय उपस्थित होने पर वह दौड़ने लग जाता है। शारीरिक वेदना से तड़फने वाले एवं मृत्यु की शय्या पर पड़ा अन्तिम श्वास गिनने वालों के सामने जब लम्बे समय के पश्चात्, यदि कोई स्नेही परिजन मिलने पहुँचता है तो क्षणमात्र के लिए वह सारे दुःख दर्द कैसे भूल जाता है? कहने का तात्पर्य यही हैं कि चिकित्सा करते समय एक मात्र शरीर को इतना अधिक महत्त्व न दें, जिससे आत्म विकार बढ़ें और मनोबल कमजोर हो। अन्यथा हमारा प्रयास घाटे का सूचक होगा, हमारी प्राथमिकताएँ गलत होंगी। यह तो नौकर को मालिक से ज्यादा महत्त्व देने के समान अबुद्धिमत्ता पूर्ण होगा। अपनी शक्तियों का अवमूल्यन अथवा गलत आंकलन करने के तुल्य होगा। ऐसा करना कर्जा चुकाने के लिए ऊँचे ब्याज की दर पर दूसरों से कर्जा लेकर चुकाने के समान गलत आचरण होता है।

<p>रोग की तीन अवस्थाएँ होती हैं- शारीरिक, मानसिक और आत्मिक। जिस अवस्था का रोग होता है उसके अनुरूप यदि उपचार नहीं किया जाता है तो रोग से मुक्ति सम्भव नहीं होती। आजकल अधिकांश व्यक्ति मानसिक और आत्मिक रोगों को तो रोग मानते ही नहीं, क्योंकि मन की एवं आत्मा की शक्ति का न तो उन्हें सम्पूर्ण ज्ञान होता है और न वे उसको जानने एवं समझने का अपेक्षित प्रयास ही करते हैं। शरीर से मन की शक्ति बहुत ज्यादा होती है और मन से आत्मा की शक्ति अनन्तगुणी होती है। जब आत्मा पर आये कर्मो के आवरण दूर हो जाते हैं तो व्यक्ति अनन्तद्रष्टा अर्थात् त्रिकाल द्रष्टा बन जाता है। मन की शक्ति का उस समय आभास होता है जब व्यक्ति को चलने-फिरने में अत्यधिक कष्ट होता है, परन्तु उसके सामने मारणान्तिक भय उपस्थित होने पर वह दौड़ने लग जाता है। शारीरिक वेदना से तड़फने वाले एवं मृत्यु की शय्या पर पड़ा अन्तिम श्वास गिनने वालों के सामने जब लम्बे समय के पश्चात्, यदि कोई स्नेही परिजन मिलने पहुँचता है तो क्षणमात्र के लिए वह सारे दुःख दर्द कैसे भूल जाता है? कहने का तात्पर्य यही हैं कि चिकित्सा करते समय एक मात्र शरीर को इतना अधिक महत्त्व न दें, जिससे आत्म विकार बढ़ें और मनोबल कमजोर हो। अन्यथा हमारा प्रयास घाटे का सूचक होगा, हमारी प्राथमिकताएँ गलत होंगी। यह तो नौकर को मालिक से ज्यादा महत्त्व देने के समान अबुद्धिमत्ता पूर्ण होगा। अपनी शक्तियों का अवमूल्यन अथवा गलत आंकलन करने के तुल्य होगा। ऐसा करना कर्जा चुकाने के लिए ऊँचे ब्याज की दर पर दूसरों से कर्जा लेकर चुकाने के समान गलत आचरण होता है।</p>

रोग की तीन अवस्थाएँ होती हैं- शारीरिक, मानसिक और आत्मिक। जिस अवस्था का रोग होता है उसके अनुरूप यदि उपचार नहीं किया जाता है तो रोग से मुक्ति सम्भव नहीं होती। आजकल अधिकांश व्यक्ति मानसिक और आत्मिक रोगों को तो रोग मानते ही नहीं, क्योंकि मन की एवं आत्मा की शक्ति का न तो उन्हें सम्पूर्ण ज्ञान होता है और न वे उसको जानने एवं समझने का अपेक्षित प्रयास ही करते हैं। शरीर से मन की शक्ति बहुत ज्यादा होती है और मन से आत्मा की शक्ति अनन्तगुणी होती है। जब आत्मा पर आये कर्मो के आवरण दूर हो जाते हैं तो व्यक्ति अनन्तद्रष्टा अर्थात् त्रिकाल द्रष्टा बन जाता है। मन की शक्ति का उस समय आभास होता है जब व्यक्ति को चलने-फिरने में अत्यधिक कष्ट होता है, परन्तु उसके सामने मारणान्तिक भय उपस्थित होने पर वह दौड़ने लग जाता है। शारीरिक वेदना से तड़फने वाले एवं मृत्यु की शय्या पर पड़ा अन्तिम श्वास गिनने वालों के सामने जब लम्बे समय के पश्चात्, यदि कोई स्नेही परिजन मिलने पहुँचता है तो क्षणमात्र के लिए वह सारे दुःख दर्द कैसे भूल जाता है? कहने का तात्पर्य यही हैं कि चिकित्सा करते समय एक मात्र शरीर को इतना अधिक महत्त्व न दें, जिससे आत्म विकार बढ़ें और मनोबल कमजोर हो। अन्यथा हमारा प्रयास घाटे का सूचक होगा, हमारी प्राथमिकताएँ गलत होंगी। यह तो नौकर को मालिक से ज्यादा महत्त्व देने के समान अबुद्धिमत्ता पूर्ण होगा। अपनी शक्तियों का अवमूल्यन अथवा गलत आंकलन करने के तुल्य होगा। ऐसा करना कर्जा चुकाने के लिए ऊँचे ब्याज की दर पर दूसरों से कर्जा लेकर चुकाने के समान गलत आचरण होता है।

रोग के कारणों से बचना आवश्यक-
 केवल शारीरिक रोगों का ही विचार करें तो, उसके भी अनेक कारण होते हैं। जैसे हमारे पूर्व जन्म के उपार्जित असाता वेदनीय कर्मों का उदय, पैतृक संस्कार, असंयमित, अनियमित एवं अनियन्त्रित जीवन पद्धति, ज्ञानेन्द्रियों का दुरुपयोग, कषाय, प्रमाद एवं अशुभ प्रवृत्तिमय जीवन इत्यादि। पुराने एवं असाध्य रोग की स्थिति में तो उसका कारण ढूंढने के लिये हमें, जीव जब से माता के गर्भ में आता है तब से वर्तमान परिस्थितियों तक रोग के कारणों का अध्ययन करना होगा। सभी प्रकार के रोगों की अभिव्यक्ति शरीर में विभिन्न असन्तुलनों के रूप में प्रकट होती है। एक महत्त्वपूर्ण लोकोक्ति है- ‘पैर गरम, पेट नरम और सिर ठण्डा, फिर डॉक्टर आवे तो मारो डण्डा’ कितनी यथार्थपूर्ण है। अर्थात् जो शारीरिक श्रम करते हैं उनकी पगथली कभी ठण्डी नहीं रह सकती। जिनका पाचन एवं अवांछित तत्त्वों का शरीर से निष्कासन बराबर होता है, उनका पेट प्रायः नरम व स्वच्छ होता है। इसीलिए तो कहा गया है कि ‘पेट साफ तो सब रोग माफ’। जो तनाव मुक्त, चिन्ता मुक्त और मस्त रहता है उसका सिर ठण्डा रहता है। अर्थात् शारीरिक श्रम, सुव्यवस्थित पाचन एवं तनावमुक्त जीवन पद्धति शारीरिक स्वस्थता के लिए आवश्यक है तथा जितनी-जितनी इनकी उपेक्षा होगी, शरीर में रोगों की संभावना बढ़ती जायेगी। इन सब बातों का पालन व्यक्ति को स्वयं ही करना पड़ता है। बाजार से मिलने वाली दवाइयाँ नहीं कर सकती। अतः स्वस्थ जीवन जीने के लिए व्यक्ति की सजगता, सम्यक् पुरुषार्थ, भागीदारी तथा स्वावलम्बी बनने की तीव्रतम भावना आवश्यक होती है। जिस प्रकार खेत में बीज बोने से पूर्व उसकी सफाई अति आवश्यक होती है, फूटे हुए घड़े को भरने से पहले उसके छिद्र को बन्द करना जरूरी है, तालाब खाली करने के लिए पानी की आवक रोकना अनिवार्य होता है। जिस प्रकार बिना सफाई खेत में बीज बोने से, फूटे घड़े में पानी भरने का प्रयास करने, से आते हुये पानी को रोके बिना तालाब खाली करने की कोशिश करने से अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। जैसे मन के लंगड़े व्यक्ति को स्वर्ग के हजारों देवता भी अपने पैरों पर खड़ा नहीं रख सकते। ठीक उसी प्रकार रोग के सही कारणों के निदानकर, उनको दूर किये बिना तथा भविष्य में उनसे बचने हेतु स्वास्थ्य के नियमों का पालन किये बिना, हम लाख प्रयास करने के बावजूद भी दीर्घकाल के लिये रोगों से पूर्ण रूपेण छुटकारा नहीं पा सकते।

चिकित्सा में भ्रम-
 कुछ समय के लिये तात्कालिक राहत पहुँचाने वाली चिकित्सा को प्रभावशाली चिकित्सा मानना एवं भविष्य में उससे पड़ने वाले दुष्प्रभावों की उपेक्षा करना, अपने आपको धोखे में रखना होता है। जिस प्रकार दीमक लगी लकड़ी पर रंग रोगन करने से मजबूती नहीं आ सकती, कचरे को दबाकर अथवा छिपाकर रखने से उसमें अधिक सड़ान्ध एवं अवरोध की समस्या ही पैदा होती है, शत्रु का घर में शरण देना बुद्धिमत्ता नहीं, ठीक उसी प्रकार बाजार में मिलने वाली दवाइयाँ और इंजेक्शन, जो शरीर की प्रतिरोधक शक्ति क्षीण करती हैं, प्रायः रोग के कारणों को मिटाने के बजाय उसको दबाने अथवा रोग को अन्य रूप से प्रकट करने का मार्ग प्रशस्त करती है। जिनसे कभी-कभी भविष्य में अधिक घातक परिणाम होने की संभावना बनी रहती है। रोगी के लिए दवा जीवन का अंग बन जाती है और आलम्बन छोड़ते ही समस्या उग्र रूप धारण करने लग जाती है।
 जनसाधारण की ऐसी मान्यता हो गई है कि जितना महंगा उपचार होता है, डॉक्टर की फीस जितनी ज्यादा होती, उतना ही उपचार प्रभावशाली होता है। भ्रामक विज्ञापन और डॉक्टरों के पास पड़ने वाली भीड़ ही उनकी योग्यता का मापदण्ड बन रही है। वास्तव में अंग्रेजी चिकित्सा का आधार वैज्ञानिक कम एवं विज्ञापन ज्यादा है, जिसका मूल कारण शरीर की असीम क्षमताओं के प्रति हमारा अज्ञान और डॉक्टरों के प्रति हमारी अन्ध श्रद्धा ही समझना चाहिये।

अनन्त शक्ति का स्रोत: मानव शरीर-
 मानव शरीर की संरचना, नियन्त्रण एवं संचालन इस विश्व का सबसे बड़ा आश्चर्य है। आधुनिक विज्ञान की शायद ही कोई ऐसी मशीन है जिससे मिलती-जुलती मशीन हमारे शरीर के अन्दर न हों। मस्तिष्क के जैसा सुपर कम्प्यूटर, हृदय एवं गुर्दें के जैसा शुद्धिकरण संयंत्र, आमाशय के जैसा रासायनिक कारखाना, नासिका तन्त्र के जैसी सफाई व्यवस्था, नाड़ी तंत्र के जैसी मीलों लम्बी संचार व्यवस्था, अन्तःश्रावी ग्रन्थियों के जैसी प्रशासनिक व्यवस्था, आंखों के जैसा कैमरा, प्रकाश की गति से भी तेज गति वाला मन इत्यादि एक ही स्थान पर, अन्यत्र कहीं ढूंढने पर भी मिलने कठिन होते हैं। इससे भी बड़ा आश्चर्य तो यह है कि सारे अंग और अवयव शरीर में व्यवस्थित ढंग से अपना कार्य करते हुये एक दूसरे के साथ पूर्ण सहयोग, समन्वय एवं तालमेल रखते हैं। शरीर के किसी भाग में सुई अथवा पिन चुभने मात्र से सभी ज्ञानेन्द्रियाँ और मन अपना कार्य छोड़कर उस स्थान पर अपना ध्यान केन्द्रित कर देते हैं तथा जब तक चुभन दूर नहीं होती आंखों से अश्रु, मुंह से आह निकलने लगती हैं। प्रश्न खड़ा होता है कि जिस शरीर में इतना सहयोग एवं तालमेल हो, क्या उसमें कभी कोई अकेला रोग हमला बोल सकता है? वास्तव में जिस रोग के लक्षण प्रकट होते हैं वह रोगों के परिवार का नेता होता है और उसके पीछे सैंकड़ों अप्रत्यक्ष सहयोगी रोगों का बहुमत होता है, जिनकी तरफ हमारा ध्यान ही नहीं जाता। आज रोगों के नाम पर रोगियों को गुमराह किया जा रहा है। रोगों की लंबी-लंबी व्याख्यायें की जा रही हैं, परन्तु स्वास्थ्य का मूलाधार गौण किया जा रहा है। मानो पेड़ को सुरक्षित रखने के लिए जड़ को सींचने के बजाय फूल पत्ती को सींचा जा रहा है। शरीर को टुकड़ों-टुकड़ों में बांट कर उसको देखने-समझने का प्रयास हो रहा है। जबकि उपचार करते समय जब तक पूरे शरीर को एक इकाई मानकर प्रकट हुए रोग का इलाज नहीं किया जायेगा, तब तक सम्पूर्ण आरोग्य-प्राप्ति की कल्पना मिथ्या है।
 जब मानव का निर्माता परिपूर्ण हो तो उसके निर्माण में संकट से बचने के लिए सुरक्षा व्यवस्था अवश्य होनी चाहिये। आवश्यकता है अपने आपको देखने-समझने एवं स्वयं की क्षमताओं को पहचानने की। अधिकांश असजग लोगों का आचरण अरबपति बाप के भिखारी बेटे के समान होता है, जो स्वयं के पास सुख-सुविधा एवं संकट से बचने के सारे उपाय होने के बावजूद डॉक्टरों और दवाओं के माध्यम से अपना स्वास्थ्य ठीक रखना चाहता है। हमारा ख्याल हमें स्वयं को ही रखना पड़ता है। पांच मिनट नाक एवं मुंह बंद कर दिया जाये तो हमारी जीवन-लीला समाप्त हो सकती है। परन्तु इतनी अमूल्य श्वास द्वारा प्राण ऊर्जा हमें बिना मूल्य के मिल रही है। क्या कभी हमने चिन्तन किया कि हम पूरा श्वास लेते हैं? जितना दीर्घ श्वास लेंगे, उतनी ही हमें प्राणवायु ज्यादा मिलेगी। आयु बढ़ेगी और शरीर में नई कोशिकाओं का निर्माण होगा। छोटा सा बालक कैसे श्वास लेता है? जरा ध्यान से देखें एवं उसके अनुरूप श्वास लेने का प्रयास करें। पानी हमें ही पीना पड़ेगा परन्तु पानी कब पीयें? कितना पीयें? कैसे पीये? क्या इसके बारे में हमारा सम्यक् चिन्तन चलता है?

भोजन में भावों का महत्त्व-
 हमारा भोजन हमें ही खाना और पचाना पड़ेगा, परन्तु भोजन कैसा हो? कैसे खाया जाए? कहाँ खाया जाए? कब खाया जाए? किसके द्वारा एवं कैसे बनाया जावे? इन बातों की तरफ प्रायः हमारा ध्यान नहीं जाता है। भोजन में आज पौष्टिकता पर तो बहुत जोर दिया जाता है, परन्तु भावों की तरफ तनिक भी ध्यान नहीं दिया जाता है। घर में स्नेही परिजनों द्वारा बनाये गये भोजन में होटलों में मिलने वाले बिना प्रेम के भोजन की अपेक्षा ज्यादा शक्ति होती हैं। इसी कारण रूखी-सूखी खाने वाला मजदूर, नौकरों द्वारा बनाये गये पौष्टिक आहार लेने वाले अमीरों से ज्यादा शक्तिशाली होता है। आज घर में खाना पसन्द नहीं, अथवा बनाते हुए हमें आलस्य आता है। फलतः बाहर खाने को सभ्यता का सूचक समझने की भूल हो रही है। होटलों में बने भोजन में पदार्थों की कितनी शुद्धता, पवित्रता, स्वच्छता का ख्याल रखा जाता हैं, यह तो जहां भोजन बनता है, वहां जाकर देखने से स्पष्ट पता लग जायेगा। उस भोजन बनाने वाले के भाव कैसे होते हैं हम नहीं जानते। इसी कारण आज घर से होटल एवं होटल से हॉस्पीटल रोगों के मंच बन रहे हैं।
 यदि आपको कोई घर पर बुलाये, अच्छे से अच्छे पौष्टिक पदार्थों से आपको भोजन करावे, परन्तु यदि आपकी उपेक्षा करे, अथवा भोजन करने के पश्चात् आपसे मात्र इतना सा कहे-‘आज तक आपको जिन्दगी में कभी किसी ने ऐसा भोजन कराया? तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? एवं आपको ऐसा भोजन क्या ताकत देगा । अतः भोजन में भावों की तरंगों का अत्यधिक महत्त्व होता है जिसकी तरफ शायद ही कोई डॉक्टर प्रेरणा देता है।

उपचार हेतु चेतना को सर्वोच्य प्राथमिकता आवश्यक-
 जीवित मानव शरीर में चेतना की शक्ति होती है, जिससे हमारे मन, इन्द्रियें एवं शरीर की सारी गतिविधियाँ संचालित और प्रभावित होती हैं। चेतना के चले जाने के पश्चात्, शरीर के सभी अंग और अवयव रहते हुए भी उनकी सारी गतिविधियाँ शान्त एवं निष्क्रिय हो जाती हैं। प्राणवायु, ऊपर से डाला गया रक्त, बाजार में उपलब्ध जड़ी-बूटियाँ, ताकत की दवाइयाँ, केप्सूल, इंजेक्शन जिन्हें हम हमारी ऊर्जा का स्रोत मानने का दावा करते हैं, पुनः जीवन संचालन में क्यों प्रभावहीन हो जाते हैं? इसका तात्पर्य यह है कि भोजन,पानी, हवा एवं उपचार के अन्य साधन जीवन संचालन में सहयोगी मात्र होते हैं। बडे़ से बड़ा डॉक्टर एवं अच्छी से अच्छी दवा कारगर नहीं होती जब तक शरीर सहयोग नहीं करता। अतः उपचार करते समय चेतना की शक्ति एवं पवित्रता को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिये तथा उपचार हेतु काम में लाये जाने वाले साधन एवं सामग्री यथा संभव अहिंसक और शुद्ध होनी चाहिये।

शरीर में रोगमुक्त होने की क्षमता-
 जब कभी अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति की उपलब्धियों की चर्चा की जाती है तो शल्य-चिकित्सा के क्षेत्र में प्राप्त सफलताओं का विवेचन करते हुए प्रायः जनसाधारण की जबान नहीं थकती। अनेक साधक भी उसकी आवश्यकता की वकालत करने लग जाते हैं। शल्य चिकित्सा की वाहवाही करते कभी इस बात का चिन्तन नहीं करते कि क्या उसका कोई प्रभावशाली विकल्प भी हो सकता है? आज के इस वैज्ञानिक युग में जब रोग की प्रारंभिक अवस्था में सही निदान एवं प्रभावशाली उपचार के बड़े-बड़े दावे किये जाते हैं वहाँ चन्द जन्मजात रोगियों को छोड़कर तथा अकस्मात् दुर्घटनाओं के अतिरिक्त अन्य रोगियों का उपचार के बावजूद रोग शल्य चिकित्सा की स्थिति में क्यों पहुंचता है? क्या हमारे निदान अधूरे, अपूर्ण अथवा गलत होते हैं, जो रोग की प्रारंभिक अवस्था में उसका उपचार ढूंढनें में समर्थ नहीं होते। वास्तव में शल्य चिकित्सा अंग्रेजी चिकित्सा के विकास का सूचक नहीं, अपितु उसके दुष्प्रभावों एवं खोखलेपन का सूचक होती है।
 जो शरीर हृदय, फेंफड़े, गुर्दे जैसे अंगों का निर्माण स्वयं करता है, रक्त एवं कोशिकाओं जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं करता है, क्या उसमें इतनी क्षमता भी नहीं होती है कि स्वयं को स्वस्थ बना सके? रोग होने के कारणों को तथा उसके सहयोगी अप्रत्यक्ष रोगों को दूर करने से हम बिना शल्य चिकित्सा पुनः स्वास्थ्य प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए रोग होने की विपरीत प्रक्रिया को अपनाना होगा। यदि शरीर में कहीं गांठ होती है तो वह बिखर भी सकती है, उसको संकुचित भी किया जा सकता है, उसको घोला भी जा सकता है। इन प्रक्रियाओं में शिवाम्बु-चिकित्सा, पंचगव्य चिकित्सा, सूजोक, बियोल मेरेडियन ऊर्जा संतुलन चिकित्सा, चुम्बकीय चिकित्सा, सूर्य किरण चिकित्सा, ध्यान एवं एक्युप्रेशर चिकित्सा आदि के सहयोग से जो प्रभावशाली परिणाम सामने आ रहे हैं उनको झुठलाया नहीं जा सकता। स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ शरीर में विजातीय तत्त्वों को निष्कासित कर सन्तुलन बनाने के सिद्धान्त पर कार्य करती हैं, अवरोध मिटाने में तथा शरीर की प्रतिकारात्मक शक्ति बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जहां प्रकाश है वहा अंधेरा रह नहीं सकता। शक्तिशाली राष्ट्र पर कोई आक्रमण की बात सोच नहीं सकता। जो अपनी प्रतिकारात्मक क्षमता बढ़ा लेता है, वहां शल्य चिकित्सा की आवश्यकता नहीं रहती।
 जो आधुनिक चिकित्सा के दुष्प्रभावों को समझता है वही अपनी सुषुप्त मानसिक एवं आत्मिक चेतना को जागृत कर विकल्प का मार्ग चुनता है। स्वावलम्बी बनने की इच्छा रखने वाला परावलम्बन को छोड़ता है। पाप से घृणा करने वाला ही धर्म की तरफ आकृष्ट होता है। पाप को अच्छा मानने वाला धर्मी नहीं बन सकता। अहिंसा में विश्वास रखने वाला हिंसात्मक तरीके नहीं अपना सकता और हिंसा को प्रोत्साहित करने वाली चिकित्सा पद्धतियों का अनुमोदन भी नहीं कर सकता। परन्तु आज रोगी में धैर्य और सहनशीलता की कमी, अज्ञान एवं सम्यक् चिंतन के अभाव के कारण स्वयं की क्षमताओं के प्रति प्रायः हमारा विश्वास नहीं हो रहा है, जिससे निदान की सत्यता को समझे बिना अपनी असजगता एवं डॉक्टर पर अन्धविश्वास के कारण कभी-कभी अपने आपको डॉक्टरों की प्रयोगशाला बनाते व्यक्ति तनिक भी संकोच नहीं करता। रोगी स्वयं कुछ नहीं करना चाहता, इसीलिए शल्य चिकित्सा के दुष्प्रभाव एवं उपचार के अन्य प्रभावशाली विकल्प जनसाधारण को समझ में नहीं आते हैं, परन्तु जो सनातन सत्य है उसको नकारा नहीं जा सकता। पारस को पत्थर कहने से वह पत्थर नहीं हो जाता और पत्थर को पारस कहने मात्र से वह पारस नहीं बन जाता। जो कोई चिकित्सक अथवा वैज्ञानिक पूर्वाग्रह छोड़ अनेकान्त दृष्टि से शारीरिक क्षमताओं का अध्ययन करेंगे उनको इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ेगा कि ‘शरीर में स्वयं रोग मुक्त होने की क्षमता होती है।’

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