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दुख-सुख

दो देहों के बीच संबंध यांत्रिक है, सेक्स यांत्रिक है, कामवासना यांत्रिक है

आखिर तंत्र विज्ञान है क्या ….  अक्षर से क्षर की यात्रा यंत्र, क्षर से अक्षर की यात्रा मन्त्र, अक्षर से अक्षर की यात्रा तंत्र। देह है यंत्र। दो देहों के बीच जो संबंध होता है वह है यांत्रिक। सेक्स यांत्रिक है। कामवासना यांत्रिक है। दो मशीनों के बीच घटना घट रही है। मन है मंत्र। मंत्र शब्द मन से ही बना है। जो मन का है वही मंत्र। जिससे मन में उतरा जाता है वही मंत्र। जो मन का मौलिक सूत्र है वही मंत्र। तो देह है यंत्र। देह से देह की यात्रा यांत्रिक – कामवासना।

आखिर तंत्र विज्ञान है क्या ….  अक्षर से क्षर की यात्रा यंत्र, क्षर से अक्षर की यात्रा मन्त्र, अक्षर से अक्षर की यात्रा तंत्र। देह है यंत्र। दो देहों के बीच जो संबंध होता है वह है यांत्रिक। सेक्स यांत्रिक है। कामवासना यांत्रिक है। दो मशीनों के बीच घटना घट रही है। मन है मंत्र। मंत्र शब्द मन से ही बना है। जो मन का है वही मंत्र। जिससे मन में उतरा जाता है वही मंत्र। जो मन का मौलिक सूत्र है वही मंत्र। तो देह है यंत्र। देह से देह की यात्रा यांत्रिक – कामवासना।

मन है मंत्र। मन से मन की यात्रा मांत्रिक। जिसको तुम साधारणत: प्रेम कहते हो – दो मनों के बीच मिल जाना। दो मनों का मिलन। दो मनों के बीच एक संगीत की थिरकन। दो मनों के बीच एक नृत्य। देह से ऊपर है। देह है भौतिक, मंत्र है मानसिक, मनोवैज्ञानिक, सायकॉलॉजिकल। और आत्मा है तंत्र। दो आकाशों का मिलन। अक्षर से अक्षर की यात्रा। जब दो आत्मायें मिलती हैं तो तंत्र – न देह, न मन। तंत्र ऊंचे से ऊंची घटना है। तंत्र परम घटना है।

तो इससे ऐसा समझो:

देह — यंत्र, सेक्यूअल, शारीरिक।
मन — मंत्र, सायकॉलॉजिकल, मानसिक।
आत्मा — तंत्र, कॉस्मिक, आध्यात्मिक।

ये तीन तल हैं तुम्हारे जीवन के। यंत्र का तल, मंत्र का तल, तंत्र का तल। इन तीनों को ठीक से पहचानो। और तुम्हारे हर काम तीन में बंटे हैं।

फिर बहुत विरले लोग हैं – कृष्ण और बुद्ध और अष्टावक्र – बहुत विरले लोग हैं, जो तांत्रिक रूप से जीते हैं। जिसका प्रतिपल दो आकाशों का मिलन है – प्रतिपल! सोते, जागते, उठते, बैठते जो भी उसके जीवन में हो रहा है, उसमें अंतर और बाहर मिल रहे हैं, परमात्मा और प्रकृति मिल रही है, संसार और निर्वाण मिल रहा है। परम मिलन घट रहा है।

तो तुम अपनी प्रत्येक क्रिया को यांत्रिक से तांत्रिक तक पहुँचाने की चेष्टा में लग जाओ।

~ ओशो ~ (अष्‍टावक्र महागीता, भाग #6, प्रवचन #78)

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उपवास एवम उपासना के अर्थ …. तुम जो समझते हो उपवास का अर्थ और उपासना का अर्थ, वह मेरा अर्थ नहीं। गुरु के पास बैठ जाना — उपासना। सूरज ऊगता हो, उस ऊगते सूरज के पास तल्लीन हो जाना — उपासना। पक्षी गीत गाते हों, आँख बंद करके उनके गीतों में लीन हो जाना, डूब जाना — उपासना। जहाँ कहीं सौंदर्य, सत्य और शिवम् का आविर्भाव होता हो, वहीं आसन मार कर बैठ जाना, वहीं अपने हृदय के द्वार खोल देना, निमंत्रण दे देना परमात्मा को और प्रतीक्षा करना। उपासना निष्क्रिय प्रतीक्षा है, अनाक्रामक प्रतीक्षा है। चेष्टा शून्‍य चेष्टा है।

तुम्हारी चेष्टा से कुछ चीजें नहीं होंगी, नहीं हो सकती हैं। उन चीजों का स्वभाव ऐसा है कि वे चेष्टा से नहीं हो सकती हैं। जैसे रात तुम्हें नींद नहीं आ रही हो तो तुम जो भी चेष्टा करोगे उससे नींद आने में बाधा पड़ेगी, सहयोग नहीं मिलेगा; क्योंकि नींद चेष्टा से आ ही नहीं सकती। सब चेष्टाएँ नींद को तोड़नेवाली हैं। …बस ऐसी ही उपासना भी है। परमात्मा लाया नहीं जा सकता, आता है। अपनी मर्जी से आता है। आ ही रहा है, सिर्फ हम उपासना का आयोजन नहीं कर पाते।

जैसे नींद का आयोजन करते हो, ऐसे ही उपासना का आयोजन करो। सिर्फ अपने को छोड़ दो खाली, मुक्त, शांत, निर्विचार, शिथिल, एक विराम पैदा हो जाए।

~ ओशो ~ (संतो मगन भया मन मेरा, प्रवचन #14)

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