Connect with us

Hi, what are you looking for?

विविध

बनारस के शिल्पकारों का दर्द

आज इस भूमण्डलीकरण के दौर में “विकास” के मुद्दे पर लगभग सभी पार्टियां एकमत हैं, फिर वह कांग्रेस-भाजपा हों या सपा-बसपा, ऐसे माहौल में समाज की यह बुनियादी आवश्यकता है कि वह विकास की प्रक्षेपित सोच को मौलिक चुनौती दे और वे सभी बुनियादी मुद्दे सार्वजनिक बहस के केंद्र में लाए जिन्हें बहस से बाहर किया जा चुका है। उदाहरण के तौर पर यही दो मुद्दे ले लीजिये: 1.मशीनीकरण और 2.बाज़ार।

<p>आज इस भूमण्डलीकरण के दौर में "विकास" के मुद्दे पर लगभग सभी पार्टियां एकमत हैं, फिर वह कांग्रेस-भाजपा हों या सपा-बसपा, ऐसे माहौल में समाज की यह बुनियादी आवश्यकता है कि वह विकास की प्रक्षेपित सोच को मौलिक चुनौती दे और वे सभी बुनियादी मुद्दे सार्वजनिक बहस के केंद्र में लाए जिन्हें बहस से बाहर किया जा चुका है। उदाहरण के तौर पर यही दो मुद्दे ले लीजिये: 1.मशीनीकरण और 2.बाज़ार।</p>

आज इस भूमण्डलीकरण के दौर में “विकास” के मुद्दे पर लगभग सभी पार्टियां एकमत हैं, फिर वह कांग्रेस-भाजपा हों या सपा-बसपा, ऐसे माहौल में समाज की यह बुनियादी आवश्यकता है कि वह विकास की प्रक्षेपित सोच को मौलिक चुनौती दे और वे सभी बुनियादी मुद्दे सार्वजनिक बहस के केंद्र में लाए जिन्हें बहस से बाहर किया जा चुका है। उदाहरण के तौर पर यही दो मुद्दे ले लीजिये: 1.मशीनीकरण और 2.बाज़ार।

हस्तउद्योग का मशीनीकरण और बाजार का विस्तार ये दोनों विकास की आम परिभाषाएँ हैं। मगर ये दोनों सिर्फ आर्थिक आयाम भर हैं जिनमें कोई सामाजिक मूल्य उपस्थित नहीं हैं। कारीगर (आर्टिज़न) के नज़रिये से सवाल मशीनीकरण बनाम हस्तशिल्प या बाज़ार के होने-न-होने का नहीं है। सवाल यह है कि कारीगर समाज में, और पूरे देश में अगर इनके अपने हुनर और ज्ञान के बल पर खुशहाली लानी हो तो इस के लिए अर्थव्यवस्था किस प्रकार की होगी? फिर इसमें मशीन की कितनी भूमिका होगी और बाजार की कितनी, ये सवाल दोयम दर्जे के हैं। हम बात उन कामगारों की कर रहे हैं जो हस्तशिल्प उद्योग से जुड़े हैं। यदि बनारस के साड़ी उद्योग पर एक नज़र डालें तो यह साफ़ हो जायेगा की सवाल हथकरघा बनाम पावरलूम का नहीं है। आज पावरलूम के तेज विस्तार से प्रॉडक्शन तो बहुत बढ़ गया है, लेकिन कारीगर की कमाई पर कोई अच्छा असर नहीं पड़ा है। अगर पहले हथकरघे पर एक दिन में एक मीटर कपड़ा बना कर उसे डेढ़ सौ रूपया मज़दूरी मिलती थी, तो आज मशीन पर एक दिन में एक कारीगर दस गुना कपड़ा तैयार करता है लेकिन दिनभर की कमाई वही डेढ़ सौ रूपया रह जाती है क्योंकि प्रति एक मीटर की दर से मज़दूरी बनी 150 रुपये। बिजली की परेशानी सो अलग। यानी कुल मिला कर कारीगर अपने को वहीँ का वहीँ पाता है। बनारस का कारीगर इस वस्तुस्थिति को भलीभांति समझता है। इसलिए अपने भाग्य को दोष देने की बजाये कारीगर को श्रम एवं रोजगार नीतियों को और उस ढांचे को चुनौती देनी होगी जिसके चलते उसे “विकास” का कोई फायदा नहीं मिल पा रहा है।
इसी तरह नए-नए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार उपलब्ध होने से भी कारीगर को मौजूदा अर्थव्यवस्था में कोई ख़ास फायदा नहीं पहुँचता और अगर पहुँचता भी है तो सिर्फ चंद लोगों को। मोदी जी बनारस से चुनाव जीते हैं। बनारसवासियों के मन में उन्होंने बहुत आशाएं जगाई हैं। उन्होंने बुनकरों, शिल्पकारों के दर्द को समझने का भी दावा किया था और उनके दर्द के निवारण का भी। सरकार ने बड़ा लालपुर में बुनकरों के लिए ट्रेड फेसिलिटेशन केंद्र खोलने की घोषणा तो ज़रूर कर दी है क्योंकि सरकार विकास चाहती है और विकास का मतलब है बाजार का विस्तार लेकिन आज बाजार की रचना कारीगर के हित में ही नही है तो इसके विस्तार से उन्हें क्या लाभ होगा? यदि कपड़े के बाजार की संरचना पर नज़र डालें तो यह स्पष्ट है कि तेज़ी से बदलते फैशन के दौर में रोज़ नए डिजाइन आते हैं और इसके कारण जो रिस्क पैदा होता है वह कारीगर ही को झेलना पड़ता है। व्यवसायी पूंजीपति प्रॉडक्शन से जुडी हर जोखिम अपने कारीगर के कंधे पर डाल देते हैं। यानी डिजाइन चल पड़ी तो फायदा व्यवसायी का और नहीं चली तो नुकसान कारीगर का! विकास के पक्षधर ये कहते नहीं थकते कि हम भविष्य के बारे में सोचते हैं और देश को आगे बढ़ाना चाहते हैं। इनका विरोध हस्तशिल्प को “बचाने” की बात करके नहीं किया जा सकता। यह इस पूरी श्रम श्रंखला को रूढ़िवादी ढर्रे में कैद करने का एक भरसक उपक्रम है। अब वर्त्तमान परिस्थितियों में हमें आने वाले समय की बात करनी होगी न कि बीते हुए कल की और अनुत्पादक परंपरा की। तभी हमारा आनेवाला कल बेरोज़गारी और विस्थापन वाला नहीं होगा। यह समय की महती आवश्यकता है कि कारीगर समाज यह दावा बहुत मजबूती से पेश करे कि वह सबकी खुशहाली का रास्ता दिखला सकता है यदि उसे बाजार और उत्पादन की नीतियों में हस्तक्षेप करने और अपनी राय रखने का अधिकार हो। अगर कारीगर समाज संगठित तरीके से विकास पर सार्वजनिक बहस चलाये तो मेक इन इण्डिया, विदेशी पूँजी आदि सब योजनाओं और नीतियों पर हो रही चर्चा को अर्थशास्त्रियों और अन्य पढ़े-लिखे लोगों की चंगुल से छुड़ा कर समाज के बीच ला सकता है। यह एक ऐसी बहस होगी जिसमें “विकास” “औद्योगीकरण” आदि को लेकर कोई पूर्वाग्रह नहीं होगा।

You May Also Like

Uncategorized

मुंबई : लापरवाही से गाड़ी चलाने के मामले में मुंबई सेशन कोर्ट ने फिल्‍म अभिनेता जॉन अब्राहम को 15 दिनों की जेल की सजा...

ये दुनिया

रामकृष्ण परमहंस को मरने के पहले गले का कैंसर हो गया। तो बड़ा कष्ट था। और बड़ा कष्ट था भोजन करने में, पानी भी...

ये दुनिया

बुद्ध ने कहा है, कि न कोई परमात्मा है, न कोई आकाश में बैठा हुआ नियंता है। तो साधक क्या करें? तो बुद्ध ने...

सोशल मीडिया

यहां लड़की पैदा होने पर बजती है थाली. गर्भ में मारे जाते हैं लड़के. राजस्थान के पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र में बाड़मेर के समदड़ी क्षेत्र...

Advertisement