Connect with us

Hi, what are you looking for?

प्रदेश

उत्तराखण्ड को कब मिलेगी स्थायी राजधानी

इसे उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि डेढ दशक का लंबा समय बीत जाने के बाद भी इस पहाड़ी राज्य को अपनी स्थायी राजधानी नसीब नहीं हो पायी है। उत्तर प्रदेश से 9 नवंबर 2000 को अलग होकर अस्तित्व में आये इस राज्य को अब तक अस्थायी राजधानी देहरादून से ही काम चलाना पड़ रहा है।   पिछले डेढ दशक में उत्तराखण्ड में राजधानी के लिये ही बात होती रही। राज्य आंदोलन और चुनाव के दौरान गैरसैंण राजधानी का मुद्दा भी उठता रहा। भाजपा-कांग्रेस के अलावा उत्तराखण्ड क्रांति दल से सहमति न रखने वाले दलों और संगठनों ने भी गैरसैंण का समर्थन भी किया। अपने तरह से आंदोलन भी चलाये। इस बीच राज्य भी बन गया। राज्य बनने के बाद अपनी सरकारें आयीं। पहले भाजपा की अंतरिम सरकार और बाद में कांग्रेस की चुनी हुयी सरकार। इस डेढ़ दशक में हम इन दो पार्टियों के साथ-साथ उस पार्टी को भी सरकार में देख चुके हैं जिसने राजधनी के रूप में चंद्रनगर में वीर चंद्र सिंह गढवाली की मूर्ति स्थापित कर राजधानी का कभी शिलान्यास किया था।

<p>इसे उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि डेढ दशक का लंबा समय बीत जाने के बाद भी इस पहाड़ी राज्य को अपनी स्थायी राजधानी नसीब नहीं हो पायी है। उत्तर प्रदेश से 9 नवंबर 2000 को अलग होकर अस्तित्व में आये इस राज्य को अब तक अस्थायी राजधानी देहरादून से ही काम चलाना पड़ रहा है।   पिछले डेढ दशक में उत्तराखण्ड में राजधानी के लिये ही बात होती रही। राज्य आंदोलन और चुनाव के दौरान गैरसैंण राजधानी का मुद्दा भी उठता रहा। भाजपा-कांग्रेस के अलावा उत्तराखण्ड क्रांति दल से सहमति न रखने वाले दलों और संगठनों ने भी गैरसैंण का समर्थन भी किया। अपने तरह से आंदोलन भी चलाये। इस बीच राज्य भी बन गया। राज्य बनने के बाद अपनी सरकारें आयीं। पहले भाजपा की अंतरिम सरकार और बाद में कांग्रेस की चुनी हुयी सरकार। इस डेढ़ दशक में हम इन दो पार्टियों के साथ-साथ उस पार्टी को भी सरकार में देख चुके हैं जिसने राजधनी के रूप में चंद्रनगर में वीर चंद्र सिंह गढवाली की मूर्ति स्थापित कर राजधानी का कभी शिलान्यास किया था।</p>

इसे उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि डेढ दशक का लंबा समय बीत जाने के बाद भी इस पहाड़ी राज्य को अपनी स्थायी राजधानी नसीब नहीं हो पायी है। उत्तर प्रदेश से 9 नवंबर 2000 को अलग होकर अस्तित्व में आये इस राज्य को अब तक अस्थायी राजधानी देहरादून से ही काम चलाना पड़ रहा है।   पिछले डेढ दशक में उत्तराखण्ड में राजधानी के लिये ही बात होती रही। राज्य आंदोलन और चुनाव के दौरान गैरसैंण राजधानी का मुद्दा भी उठता रहा। भाजपा-कांग्रेस के अलावा उत्तराखण्ड क्रांति दल से सहमति न रखने वाले दलों और संगठनों ने भी गैरसैंण का समर्थन भी किया। अपने तरह से आंदोलन भी चलाये। इस बीच राज्य भी बन गया। राज्य बनने के बाद अपनी सरकारें आयीं। पहले भाजपा की अंतरिम सरकार और बाद में कांग्रेस की चुनी हुयी सरकार। इस डेढ़ दशक में हम इन दो पार्टियों के साथ-साथ उस पार्टी को भी सरकार में देख चुके हैं जिसने राजधनी के रूप में चंद्रनगर में वीर चंद्र सिंह गढवाली की मूर्ति स्थापित कर राजधानी का कभी शिलान्यास किया था।

भौगोलिक तौर पर गैरसैंण उत्तराखंड के केंद्र में स्थित है, तो राज्य गठन से अब तक राजनीति का भी केंद्र रहा है। कहने को गैरसैंण गढ़वाल के चमोली जिले की तहसील है लेकिन कुमाऊं के अल्मोड़ा से सटे होने की वजह से गैरसैंण को लेकर पूरे उत्तराखंड की भावना एक सी दिखती है। गैरसैंण का महत्व उत्तराखंड बनने से भी पहले का है। राज्य बनाने की मांग में शामिल अग्रणी संगठन उत्तराखंड क्रांति दल ने अस्सी के दशक में राज्य का जो खाका खींचा था उसमें गैरसैंण राजधानी के रूप में सामने आई थी। गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए भी राजनीति होती रही है तो न बने इसकेपीछे भी राजनीति है।

राज्य गठन के बाद मैदानी इलाकों का समावेश होने और मूलभूत सुविधाओं को देखते हुए फौरी तौर पर देहरादून को राजधानी बना दिया गया। देहरादून राजधानी के तौर पर स्थापित हुई है और अब तक आठ मुख्यमंत्रियों की सरकारें यहीं से चली हैं। बावजूद गैरसैंण से लोगों की भावनाएं जुड़ी होने के चलते ही राजनैतिक दलों का अपनापन दिखता रहा है। पहाड़ों से घिरे गैरसैंण में 1994 में उत्तराखंड क्रांति दल ने राजधानी की नींव का पत्थर भी लगा दिया था। 2012 में विजय बहुगुणा सरकार ने गैरसैंण में कैबिनेट की बैठक कर मैसेज देना चाहा। फिर पार्टी में एक गुट विशेष के दबाव में बहुगुणा ने वहां विधानभवन का शिलान्यास भी करा दिया। हालांकि बहुगुणा सरकार ने गैरसैंण में जिस स्थान पर विधानभवन के शिलान्यास का पत्थर लगवाया था आज वह पत्थर भी गायब है। बहुगुणा ने इस मुद्दे को सुलझाना चाहा लेकिन विधानभवन का पेंच उनकी सरकार में और उलझ गया जब देहरादून के राजपुर में स्थायी विधानभवन की घोषणा हुई। उत्तराखंड के राजनेताओं में एक तबका ऐसा भी रहा है जो जम्मू-कश्मीर की तर्ज पर ग्रीष्मकालीन राजधानी की वकालत करता रहा है।

सवाल यह भी है कि अविभाजित उत्तर प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी नैनीताल थी। जहां राजधानी के तौर पर विधानभावन, राजभवन, मुख्यमंत्री एवं विधायक आवास सहित तमाम सुविधाएं व संरचना उपलब्ध थी। फिर ऐसी कौन सी मजबूरी थी जो उत्तराखण्ड निर्माण के बाद नैनीताल को स्थायी राजधानी बनने से रोका गया। उत्तराखण्ड देश का एकमात्र ऐसा पहाड़ी राज्य है जिसकी राजधानी मैदानी क्षेत्र में अवस्थित है। जब पूर्ण सहमति गैरसैंण पर बन चुकी थी तो देहरादून को राजधानी क्यों बनाया गया।

कर्णप्रयाग विधानसभा सीट का दो दशकों से अधिक समय तक प्रतिनिधित्व करने वाले उप्र के पूर्व मंत्री स्वर्गीय डॉ. शिवानंद नौटियाल ने उत्तराखण्ड राज्य अलग होते समय उसके साथ हो रहे भेदभाव और उपेक्षा के संदर्भ में एक खुला पत्र लिखा था। डॉ. नौटियाल ने इस पत्र में कहा था कि, ‘सभी पार्टियों ने उत्तराखण्उ के संघर्ष के काल में जिला चमोली और अल्मोड़ा के सीमान्त क्षेत्र गैरसैंण को राजधानी के रूप में स्वीकार भी कर लिया था। राष्ट्रपति शासन काल में तत्कालीन राज्यपाल मोती लाल बोरा ने 25 लाख की धनराशि स्वीकृत कर इस क्षेत्र का राजधानी के लिये सर्वेक्षण भी करवा दिया था। भाजपा के मंत्रियों ने ढोल नगाड़ों के बीच गैरसैंण को उत्तराखण्ड की राजधानी बनाने की घोषणा कर दी थी। फिर, अब ऐसी चुप्पी का क्या अर्थ लगाया जाय? इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि गढ़वाल-कुमाऊं के लोगों को लड़ाया जाय। यह एक ऐसी सोची समझी चाल है। अन्यथा राजधानी के विषय में ऐसी चुप्पी का क्या अर्थ हो सकता है। यदि भाजपा की सरकार गैरसैंण के अलावा किसी दूसरे स्ािान को राजधानी के रूप में चयनित करना चाहती थी, तो उसका उल्लेख क्यों नहीं किया गया।’

भारतीय जनता पार्टी की अंतरिम सरकार ने गैरसैंण को राजधानी मानने से इंकार किया। उसने जनता के विचार को आयोग की कसौटी में कसने के लिये एक आयोग का गठन किया गया। बाद में कांग्रेस-भाजपा ने उस आयोग का कार्यकाल लगातार बढ़ाया। इस बीच राजधानी गैरसैंण के लिये बाबा मोहन उत्तराखंड़ व अन्य ने अपनी शहादत दी। भाजपा-कांग्रेस किसी को जनता की आकांक्षायें व भावनाएं समझ में नहीं आयीं। एक बड़ी साजिश के तहत देहरादून को स्थायी राजधनी बनाने षडयंत्र अनवरत रूप से आज भी जारी है।

वर्ष 2013 में सभी दलों को गैरसैंण याद आ गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने गैरसैंण में विधानसभा का एक सत्र चलाने की घोषणा कर दी। गैरसैंण में विधानसभा के दो सत्र हो चुके हैं लेकिन बावजूद इसके सरकार या मुख्यमंत्री ने अभी तक नहीं कहा कि इसे कभी राजधानी बनाया जायेगा। उनसे जब भी सवाल किया जाता है, उनका जबाव होता है कि यहां विधानभवन बनाया जा रहा है। विधायकों और अधिकारियों के लिये हॉस्टल बनाये जायेंगे। रेस्ट हाउस बनाये जायेंगे। असल में जब कांग्रेस के एक धड़े को लगा कि मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा गैरसैंण में ‘ड्रामा’ कर राजनीतिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं तो उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि इसे ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करो।

विधानसभा अध्यक्ष गोबिन्द सिंह कुंजवाल जिनका कभी न तो राज्य आंदोलन से और न सरोकारों से कोई लेना देना नहीं रहा वे हरीश रावत के प्रवक्ता बनकर नया राग अलापने लगे हैं। गैरसेंण में जब विजय बहुगुणा का ‘रेस्ट हाउस’ बनाने का कार्यक्रम चल रहा था तो उसके एक हिस्सेदार विपक्ष के नेता अजय भट्ट एक टीवी चैनल में कहते सुने गये कि हम सबको अटल बिहारी का धन्यवाद करना चाहिये जिन्होंने यह राज्य बनाया। अजय भट्ट को हमारे 42 शहादतों और बाबा उत्तराखंड़ी का बलिदान याद नहीं आता। उन्हें अपने उस नेता को अभी भी महिमांडित करने में अपना भविष्य दिखाई देता है जो कभी इस मांग को राष्ट्रद्रोही कह चुके थे।

पहाड़ की जनता के बड़े आंदोलन को देखते हुये वे जनता की भावनाओं के खिलाफ उत्तरांचल के नाम से आंदोलन में घुसे। इसलिये उत्तराखंड राज्य किसी ने खैरात में नहीं दिया है। यह शहादतों से मिला है। अजय भट्ट सहित उनके तमाम नेता कभी भी गैरसैंण के समर्थक नहीं रहे। अब जो नई बात है वह यह कि कांग्रेस-भाजपा दोनों गैरसैंण पर कुछ दिन राजनीति करना चाहते हैं। कांग्रेस में विजय बहुगुणा का धड़ा इसे सिर्फ वर्ष में विधानसभा का एक सत्र का एक पिकनिक स्पॉट बनाना चाहता है तो दूसरा धड़ा अंग्रेजों की तरह ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाकर सैरगाह का अड्डा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

असल में ये सब लोग देहरादून को ही स्थायी राजधानी के रूप में देखना चाहते हैं। यही वजह है कि वहां पहले छोटे-छोटे निर्माण कार्य कराये, बाद में मुख्यमंत्री आवास बनाया गया। सचिवालय से लेकर कई बड़े भवनों का निर्माण या तो हो रहा है या प्रस्तावित है। जिस समय विजय बहुगुणा गैरसैंण में अपने मंत्रिमंडल के बैठक के लिये हेलीकाप्टरों को पोंछकर पांच करोड़ खर्च अपने मंत्रिमंडल की बैठक के लिये खर्च करा रहे थे उसी समय वे देहरादून में विधानसभा भवन और विधायकों के लिये और अच्छे आवास बनें उसके लिये उच्च अधिकारी जमीन और धन की व्यवस्था करवाने में जुटे हुए थे ।

इसलिये राजधानी के सवाल को लोगों की आकांक्षाओं के साथ देखा जाना चाहिये। सरकार यदि गैरसैंण में विधानभवन नहीं भी बनाती तो किसी को कोई शिकायत नहीं होती। वे गैरसेंण में कैबिनेट की बैठक नहीं भी करते तो लोगों को काई नाराजगी नहीं रहती। वे गैरसैंण नहीं भी आते तो भी काम चल जाता। वे सिर्फ इतना कह देते कि आने वाले दस, बीस, तीस, चालीस या पचास वर्षो में गैरसेंण को स्थायी राजधानी बनाना है। वे यह नहीं कह रहे हैं। वे अभी भी कह रहे हैं कि राजधानी बनाना आसान नहीं है। तो फिर इस तरह की धोखाधड़ी क्यों कर रहे है। इसके खिलाफ सबको सोचना होगा ? इस बात को भी सोचना होगा कि गैरसैंण पर राजनीति करने वाले ये लोग जनता के साथ खड़े नहीं हैं। वे गैरसेंण को कभी चन्द्रनगर नहीं कहते। इनका मौका लगे तो ये इसका नाम इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी या किसी दूसरेे के नाम पर भी रख सकते हैं।

प्रदेश में राजधानी कहां बने इसे लेकर उत्तराखंड के पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी ने दीक्षित आयोग का गठन किया था। 11 बार कार्यकाल बढ़ाने के बाद आखिरकार 2008 में  दीक्षित आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौपी थी। इस रिपोर्ट में क्या होगा इसके लिये माथापच्ची करने की जरूरत नहीं, क्योंकि यह आयोग बनाया ही इसलिये गया था कि गैरसैण राजधानी न बन सके। मान लो बिल्ली के भाग्य से छींका फूट जाये और आयोग ने गैरसैण की संस्तुति कर भी दी हो तो भी क्या गैरसैंण राजधानी बन पायेगी ? मानें या न मानें, गैरसैंण नाम का यह स्थान उत्तराखण्ड की राजनैतिक चौसर बन गया है, जिस पर सभी पार्टियां अपने राजनीतिक नफे-नुकसान के हिसाब से राजनीति कर रही हैं।

हरीश रावत इशारे में यह तो जरूर कह रहे हैं कि पहले बहू आने दें फिर पोते की बात करें लेकिन सरकार की असल मंशा क्या इसका खुलासा नहीं कर रहे हैं। कैबिनेट की बैठक या फिर टैंट में विधानसभा सत्र चलाना भावनाओं की कद्र नहीं बल्कि उन्हें भड़काने की तरह है। अगर सचमुच गैरसैंण में ग्रीष्मकालीन सत्र चलाना है तो इसके लिए पहले ढांचागत सुविधाओं की व्यवस्था करनी होगी।

राजधानी को लेकर लाख टके की बात यह है कि अगर भारतीय जनता पार्टी संसद में ही तय कर देती कि राजधानी गैरसैंण बनेंगी तो इस आयोग की नौटंकी की जरूरत ही न पड़ती। नौटंकी इसीलिये कि रायपुर और रांची के लिये सर्वेक्षण नहीं हुआ, कोई किन्तु-परंतु नहीं लगा, जबकि गैरसैंण के लिये ये सब अभी भी जारी है। सरकार को गैरसैंण राजधानी नहीं बनानी है तो न बनाये, परंतु इतना तो अवश्य बताना पड़ेगा कि यहां राजधानी में 80 प्रतिशत के लिये क्या गुंजाइश है ? राज्यवासियों के लिये उत्तराखंड क्या सिर्फ उ.प्र. पर खींची एक लकीर मात्र है या इसकी अपने लोगों के प्रति कोई जिम्मेदारी भी है ?

डेढ़ दशक बाद भी स्थायी राजधानी ने होने के कारण पहाड़ी क्षेत्र के जिस विकास की परिकल्पना की गयी थी वो पूरी नहीं हो पायी। उत्तराखण्ड से पलायन बदस्तूर जारी है। पहाड़ का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिकतर कद्दावर नेता पहाड़ क्षेत्र की सीटें छोड़कर मैदानी सीटों का प्रतिनिधित्व करने लगे। अब इसे क्या कहा जाए। ऐसे नेताओं और नेतृत्व से पहाड़ और पहाड़वासियों का भला होने वाला नहीं है।

भाजपा-कांग्रेस और सरकार को यदि कोई दुविधा है तो वह देहरादून को ही स्थायी राजधनी बना दें। फिर जनता अपनी राजधानी की लड़ाई लड़ लेगी। राज्य आंदोलन के दौरान कभी ‘हिल कोंसिल’ तो कभी ‘केन्द्र शासित’ की मांग कर इन लोगों ने राज्य की जनता को भ्रमित किया था। जनता खड़ी हुयी तो अपना राज्य ले लिया। जिस दिन उठ खड़ी होगी तो अपनी राजधानी भी ले लेगी।

लेखक दिव्य नौटियाल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी उत्तराखण्ड के प्रदेश अध्यक्ष हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

You May Also Like

Uncategorized

मुंबई : लापरवाही से गाड़ी चलाने के मामले में मुंबई सेशन कोर्ट ने फिल्‍म अभिनेता जॉन अब्राहम को 15 दिनों की जेल की सजा...

ये दुनिया

रामकृष्ण परमहंस को मरने के पहले गले का कैंसर हो गया। तो बड़ा कष्ट था। और बड़ा कष्ट था भोजन करने में, पानी भी...

ये दुनिया

बुद्ध ने कहा है, कि न कोई परमात्मा है, न कोई आकाश में बैठा हुआ नियंता है। तो साधक क्या करें? तो बुद्ध ने...

सोशल मीडिया

यहां लड़की पैदा होने पर बजती है थाली. गर्भ में मारे जाते हैं लड़के. राजस्थान के पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र में बाड़मेर के समदड़ी क्षेत्र...

Advertisement