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एक लेखक इतना बड़ा फैसला ले चुकने के बाद बड़ी सहजता से उसे अपनी संगिनी को सुनाता है…

Sandeep Kumar : शुक्रवार को Uday सर द्वारा अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा करते ही उन्हें फ़ोन लगाया. फ़ोन Kumkum जी ने उठाया. कहा- ”उदय जी खेतों की ओर निकल गए हैं. जाने से पहले उन्होंने धीमे से केवल इतना कहा, साहित्य अकादमी लौटा रहा हूँ”. यह बात सुनकर मुझे ‘तिरिछ’ की याद आ गयी. एक लेखक इतना बड़ा फैसला ले चुकने के बाद जब इतनी सहजता से उसे अपनी संगिनी को सुनाता है तो इस पूरी प्रक्रिया में उसके मन में क्या चलता है. उसके बाद जो कुछ हुआ वह अस्वाभाविक नहीं था. वह सब अनुमानित था.

<p>Sandeep Kumar : शुक्रवार को Uday सर द्वारा अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा करते ही उन्हें फ़ोन लगाया. फ़ोन Kumkum जी ने उठाया. कहा- ''उदय जी खेतों की ओर निकल गए हैं. जाने से पहले उन्होंने धीमे से केवल इतना कहा, साहित्य अकादमी लौटा रहा हूँ''. यह बात सुनकर मुझे 'तिरिछ' की याद आ गयी. एक लेखक इतना बड़ा फैसला ले चुकने के बाद जब इतनी सहजता से उसे अपनी संगिनी को सुनाता है तो इस पूरी प्रक्रिया में उसके मन में क्या चलता है. उसके बाद जो कुछ हुआ वह अस्वाभाविक नहीं था. वह सब अनुमानित था.</p>

Sandeep Kumar : शुक्रवार को Uday सर द्वारा अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा करते ही उन्हें फ़ोन लगाया. फ़ोन Kumkum जी ने उठाया. कहा- ”उदय जी खेतों की ओर निकल गए हैं. जाने से पहले उन्होंने धीमे से केवल इतना कहा, साहित्य अकादमी लौटा रहा हूँ”. यह बात सुनकर मुझे ‘तिरिछ’ की याद आ गयी. एक लेखक इतना बड़ा फैसला ले चुकने के बाद जब इतनी सहजता से उसे अपनी संगिनी को सुनाता है तो इस पूरी प्रक्रिया में उसके मन में क्या चलता है. उसके बाद जो कुछ हुआ वह अस्वाभाविक नहीं था. वह सब अनुमानित था.

हिंदी समाज की परम्परा का हिस्सा है वह. बड़ी बात को खा पचा के छुद्र बेमानी बातों पर बहस करना. मैं सच में आज तक उस गुनाह को समझ नहीं पाया जिसकी सजा उदय जी को वह हिंदी समाज देता रहा है जो उन्हें खूब दुतकारता है लेकिन सबसे अधिक उम्मीद भी उन्ही ऐ लगाता है. मैं उनसे कहना चाहता हूँ की वो किसी खरे खोटे की परवाह न करें. उनकी निधि पाठक है और वे पाठकों के दिल में हमेशा रहेंगे. यह वो सम्मान हैं जो ना जुगाड़ से मिलता है न पैसे से!!

Vishnu Nagar : उदय प्रकाश ने प्रोफेसर कलबुर्गी की हिंदुवादियों द्वारा हत्या के बाद साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का जो निर्णय लिया है, उसकी भी कुछ लोगों ने निंदा की है। कुछ पाकर उसे छोडने का फैसला लेने वाले रचनाकार की निंदा करने का कोई कारण नजर नहीं आता। आज की तारीख में एक स्वतंत्र रचनाकार एक लाख रुपये लौटा रहा है अपने आपमें यह भी एक स्वतंत्र फैसला है। अंततः तो उदय हों या कोई और लेखक-जिसे साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला हो या नहीं मिला हो, वह अपने काम के कारण याद किया जाएगा या नहीं किया जाएगा। बीच-बीच में उदय की आलोचना होती रही है, और जो गलत भी पूरी तरह नहीं है, तो उसका बुनियादी कारण भी उनका लेखन है। अगर उनका लेखन महत्वपूर्ण नहीं होता तो किसी भी तरह का विवाद नहीं उठता।

हाँ उदय इस पुरस्कार को लौटाने के बाद क्या कहते या क्या करते हैं, इस पर ज्यादा गौर किया जाएगा और उन्हें ज्यादा संयत ढँग से निर्णय लेते हुए दिखना चाहिए। इसके साथ यह भी गलत है कि हर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त उस लेखक को, जिसे अपना पुरस्कार नहीं लौटाया है- उदय द्वारा प्रस्तुत उदाहरण से ही तौला जाए। लेखक की सारी नैतिकता -अनैतिकता उसने कौन-सा पुरस्कार लिया या नहीं लिया या लेकर छोड़ दिया, इससे तय नहीं होती। पुरस्कार न लौटाने के भी उतने ही मजबूत तर्क हैं या हो सकते हैं, इस बात पर विचार किया जाना चाहिए, इतनी उदारता हर हाल में होनी चाहिए। जिन्हें यह पुरस्कार मिला है और जिन्होंने इससे त्यागने का निर्णय नहीं किया है, वे कायर हैं या वे इस और ऐसी हत्याओं से विचलित नहीं हैं, ऐसा मानना सिरे से गलत होगा। यहाँ तक कि इस पुरस्कार को पानेवाले जो लेखक हिंदूवादीकिस्म के हैं, उन पर भी मैं अविश्वास करना नहीं चाहता, जब तक कि वे इसके विपरीत कुछ कहते-करते न दिखें।

संदीप कुमार और विष्णु नागर के फेसबुक वॉल से.

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