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दुख-सुख

वीरेन दा ये ठीक नहीं किया आपने…….

होली के बाद का महीना था साल 2010 का बरेली में भयंकर दंगे हो रहे थे, अमर उजाला बरेली से अपना टैबलायड अखबार अमर उजाला काम्पैक्ट लांच करने जा रहा था, बरेली अमर उजाला के मालिकों का घर था सो यहां वो किसी किस्म का रिस्क नहीं लेना चाहते थे।  अमर उजाला नोएडा में देवप्रिय अवस्थी जी संपादक थे, (अब तक जीवन में देखे गए संपादकों में बेहद भले, चरित्रवान, समझदार औऱ जहीन इंसान) और बरेली के लिए लोगों को नियुक्त करना अवस्थी जी के जिम्मे था।  मैं अपने घर या घर के नजदीक जाना चाहता था, लेकिन मेरी कुख्याति इतनी थी कि घर यानि लखनऊ के संपादक मुझे किसी हाल में अपने पास लेना नहीं चाहते थे, जानते लगभग सभी मुझको और मेरे काम को थे लेकिन अपना बर्दाश्त करने का लेवल हमेशा शून्य के बराबर रहा है तो कब किसको गलत बात पे गरिया बैठूं, किसे नंगा कर दूं मुझे भी पता नहीं होता था। हां, संपादकों को जरूर पता था कि इस आदत के चलते ये आदमी उनके काम का नहीं है। बरेली छोटा शहर था इतने छोटे शहर में पहली बार पत्रकारिता करने पहुंचा तो मन वैसे ही नहीं लग रहा था बार बार भागने का मन कर रहा था लेकिन दो चीजें भागने नहीं दे रही थी एक तो वसीम बरेलवी और दूसरे वीरेन दा। मेरे जबान पे वीरेन दा की एक कविता खूब चढ़ी थी इतने भोले मत बनना साथी, जैसे होते हैं सर्कस के हाथी….खूब गुनगुनाता था। कुछ लोगों से सुन रखा था बड़े अच्छे इंसान हैं। बस सोचा बरेली से जाते-जाते इन लोगों से मिलकर जाएं तो बेहतर होगा। बेहद अमानवीय संपादक के रहते पता चल चुका था कि बरेली में ज्यादा दिन काम नहीं हो पाएगा। इसलिए जल्द से जल्द मैं वीरेन दा से मुलाकात कर शहर से निकलना चाहता था, इस बीच ये भी पता चल चुका था कि वीरेन दा अखबार के मालिकों के साथ-साथ बहुत सारे लोगों के लिए कितने सम्माननीय हैं। 

<p><img src="images/0abc/viren-da.jpg" alt="" /></p> <p>होली के बाद का महीना था साल 2010 का बरेली में भयंकर दंगे हो रहे थे, अमर उजाला बरेली से अपना टैबलायड अखबार अमर उजाला काम्पैक्ट लांच करने जा रहा था, बरेली अमर उजाला के मालिकों का घर था सो यहां वो किसी किस्म का रिस्क नहीं लेना चाहते थे।  अमर उजाला नोएडा में देवप्रिय अवस्थी जी संपादक थे, (अब तक जीवन में देखे गए संपादकों में बेहद भले, चरित्रवान, समझदार औऱ जहीन इंसान) और बरेली के लिए लोगों को नियुक्त करना अवस्थी जी के जिम्मे था।  मैं अपने घर या घर के नजदीक जाना चाहता था, लेकिन मेरी कुख्याति इतनी थी कि घर यानि लखनऊ के संपादक मुझे किसी हाल में अपने पास लेना नहीं चाहते थे, जानते लगभग सभी मुझको और मेरे काम को थे लेकिन अपना बर्दाश्त करने का लेवल हमेशा शून्य के बराबर रहा है तो कब किसको गलत बात पे गरिया बैठूं, किसे नंगा कर दूं मुझे भी पता नहीं होता था। हां, संपादकों को जरूर पता था कि इस आदत के चलते ये आदमी उनके काम का नहीं है। बरेली छोटा शहर था इतने छोटे शहर में पहली बार पत्रकारिता करने पहुंचा तो मन वैसे ही नहीं लग रहा था बार बार भागने का मन कर रहा था लेकिन दो चीजें भागने नहीं दे रही थी एक तो वसीम बरेलवी और दूसरे वीरेन दा। मेरे जबान पे वीरेन दा की एक कविता खूब चढ़ी थी इतने भोले मत बनना साथी, जैसे होते हैं सर्कस के हाथी....खूब गुनगुनाता था। कुछ लोगों से सुन रखा था बड़े अच्छे इंसान हैं। बस सोचा बरेली से जाते-जाते इन लोगों से मिलकर जाएं तो बेहतर होगा। बेहद अमानवीय संपादक के रहते पता चल चुका था कि बरेली में ज्यादा दिन काम नहीं हो पाएगा। इसलिए जल्द से जल्द मैं वीरेन दा से मुलाकात कर शहर से निकलना चाहता था, इस बीच ये भी पता चल चुका था कि वीरेन दा अखबार के मालिकों के साथ-साथ बहुत सारे लोगों के लिए कितने सम्माननीय हैं। </p>

होली के बाद का महीना था साल 2010 का बरेली में भयंकर दंगे हो रहे थे, अमर उजाला बरेली से अपना टैबलायड अखबार अमर उजाला काम्पैक्ट लांच करने जा रहा था, बरेली अमर उजाला के मालिकों का घर था सो यहां वो किसी किस्म का रिस्क नहीं लेना चाहते थे।  अमर उजाला नोएडा में देवप्रिय अवस्थी जी संपादक थे, (अब तक जीवन में देखे गए संपादकों में बेहद भले, चरित्रवान, समझदार औऱ जहीन इंसान) और बरेली के लिए लोगों को नियुक्त करना अवस्थी जी के जिम्मे था।  मैं अपने घर या घर के नजदीक जाना चाहता था, लेकिन मेरी कुख्याति इतनी थी कि घर यानि लखनऊ के संपादक मुझे किसी हाल में अपने पास लेना नहीं चाहते थे, जानते लगभग सभी मुझको और मेरे काम को थे लेकिन अपना बर्दाश्त करने का लेवल हमेशा शून्य के बराबर रहा है तो कब किसको गलत बात पे गरिया बैठूं, किसे नंगा कर दूं मुझे भी पता नहीं होता था। हां, संपादकों को जरूर पता था कि इस आदत के चलते ये आदमी उनके काम का नहीं है। बरेली छोटा शहर था इतने छोटे शहर में पहली बार पत्रकारिता करने पहुंचा तो मन वैसे ही नहीं लग रहा था बार बार भागने का मन कर रहा था लेकिन दो चीजें भागने नहीं दे रही थी एक तो वसीम बरेलवी और दूसरे वीरेन दा। मेरे जबान पे वीरेन दा की एक कविता खूब चढ़ी थी इतने भोले मत बनना साथी, जैसे होते हैं सर्कस के हाथी….खूब गुनगुनाता था। कुछ लोगों से सुन रखा था बड़े अच्छे इंसान हैं। बस सोचा बरेली से जाते-जाते इन लोगों से मिलकर जाएं तो बेहतर होगा। बेहद अमानवीय संपादक के रहते पता चल चुका था कि बरेली में ज्यादा दिन काम नहीं हो पाएगा। इसलिए जल्द से जल्द मैं वीरेन दा से मुलाकात कर शहर से निकलना चाहता था, इस बीच ये भी पता चल चुका था कि वीरेन दा अखबार के मालिकों के साथ-साथ बहुत सारे लोगों के लिए कितने सम्माननीय हैं। 

    
        उधर लगभग हर दिन कोई न कोई साथी वीरेन दा के घर या बाहर किसी गोष्ठी या परिचर्चा में उनसे मिलकर आता और उनके बारे में हंसी मजाक से भरपूर कोई किस्सा सुनाता। ये सब सुनकर मैं जल भुन जाता कि मैं इस शहर में होकर भी वीरेन दा से नहीं मिल पाया अभी तक। मैंने ये बात अपने एक साथी को बताई जो चट से तैयार हो गए औऱ वो शुभ घड़ी आई जब हम वीरेन दा के घर पहुंचे। दरवाजा खुला ही था, वीरेन दा के ड्राइंग रूम में उनका रिसर्च स्कॉलर बैठा था और वीरेन दा उसके लिए चाय बना रहे थे किचन में। जिस वीरेन डंगवाल, हिंदी के लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार, महान संपादक और चिंतक के बारे में इतना कुछ अच्छा अच्छा सुना था उसकी अच्छाइयों की महक उसके घर के दरवाजे से ही आने लगी थी। वीरेन दा की शख्सियत के बारे में सोच ही रहा था कि वो प्लेट में चाय औऱ बिस्किट लेकर हाजिर थे। हम लोगों को देखते ही खिलखिलाकर बोले अबे लौंडों तुम दोनों कहां से टपक पड़े। वीरेन दा हमेशा खिलंदड़ बने रहे, बेलौस, बेखौफ, खिलखिलाना उनके लिए दस्तूर था, एक रवायत थी। कभी-भी वीरेन दा की कोई फोटो देख लीजिए, वो सारी फोटो में खिलखिलाते नजर आएंगे, बच्चे के मानिंद। इस बात से बेखबर कि वो बहुत बड़े साहित्यकार हैं।  इस बात से भी बेखबर कि उनके सिफारिशी न जाने कितने अखबारों, चैनलो में संपादक हैं और उनके मूल्यों सिद्धांतों की धज्जियां उड़ा रहे हैं, इस बात से भी बेखबर थे कि नए लौंडे उनका कितना लिहाज करते थे, बात-बात पर अच्छे-अच्छों का नाड़ा ढ़ीला कर देने वाले लौंडे वीरेन दा के एक इशारे पर बिना सोचे कुछ भी करने को तैयार थे ऐसों की अच्छी खासी फौज थी। कितने बुद्धिजीवी उनके प्रशंसक थे लेकिन वीरेन दा को इससे कोई मतलब नहीं था। बेवजह के इंसानी अहम से कोसों दूर, इंसानियत की बात करते थे। इंसानियत, मानवीयता, फासीवाद, बेहूदगियों के खिलाफ लिखते थे तो उनके आचरण में भी इंसानियत, सह्रदयता, सज्जनता और दूसरे की बिना झिझक मदद का भाव हमेशा रहता था।
      इधर वीरेन दा हमारे हाल चाल ले रहे थे उधर उनके हंसोड़ और मानवीय पहलू से हम रूबरू होते जा रहे थे। मेरे बारे में काम, घर, जीवन के बारे में पूछते रहे और वेरी गुड़, अरे वाह, करते रहे, ये बताने पर कि पिताजी सरकारी डाक्टर हैं, बोले अबे पढ़े लिखे बाप के लौंडे हो। ये बताने पर कि दादा पोस्ट ग्रेजुएशन किया है पत्रकिरता में बोले वाह, अब लौंडे पढ़े लिखे आ रहे हैं पत्रकारिता को नए लौंडे ही कहीं ले जाएंगे, वीरेन दा से मिलने वालों में मेरे कई भला चाहने वाले लोग भी थे और उन्होंने मेरे बारे में वीरेन दा को बहुत कुछ बता दिया था। खासकर ये भी कि उन्हीं के चेले की नाक में दम कर रखा है मैंने लेकिन उन्हें कोई मलाल नहीं था बल्कि खुशी थी कि एक आदमी अत्याचारी सत्ता के खिलाफ मजबूती से संघर्ष कर रहा था। मैं वीरेन दा का शिष्य या शिष्यनुमा कोई चीज कभी नहीं रहा उनके चाहनेवालों की फेहरिस्त में भी काफी नया था लेकिन इंसानियत के तराजू पर उन्होंने शायद तौल लिया था और उनके लिए किसी इंसान को मापने का शायद यही पैमाना था औऱ मैं उस एक मुलाकात के बाद उनका इतना मुंहलगा रहा कि हमेशा हक के साथ उनसे कुछ भी कहता सुनता रहा। वीरेन दा से खूब बात हुई उस दिन, चूंकि हमने वीरेन दा से बाद में चाय पीने की बात कही थी तो करीब दो घंटे बातचीत के बाद वीरेन दा ने कहा कि अबे मैं चाय बनाता हूं, मैंने कहा कि दादा मैं चाय अच्छी बनाता हूं आप बैठिए तो बोले अबे पहली बार घर आए हो औऱ पहली बार ही काम पे लगा दूं। घर से बाहर जाते ही गरियाओगे…हम लोग बेसाख्ता हंसने लगे, इतने में मैम ( उनकी पत्नी) आ गयी, अपनी पत्नी से भी हंसोड़ अंदाज में बोले श्रीमती जी ये लौंडे आए हैं इनको बढ़िया सी चाय बनाके पिलाओ, क्या लौंडे बिना खाए पिए ही चले जाएंगे, नए लौंडे हैं गरियाएंगे बहुत, हंसी मजाक के माहौल में हमारे लिए चाय आई और हम सबने वीरेन दा के साथ चाय पी, हंसी मजाक के साथ-साथ वीरेन दा अखबार, उसके हालात, हमारी दुश्वारियों के बारे में भी पूछते रहे। चूंकि संपादक नकारेपन पर आमादा थे, ऐसे में अमर उजाला बरेली के कई साथी बेहद विचलित थे। हमारे साथी चाहते थे कि वीरेन दा मामले में हस्तक्षेप करें लेकिन मुझे जानकर बेहद खुशी हुई कि वो संपादक नाम की सत्ता को स्वतंत्र तरीके से ही काम करते रहने देना चाहते थे। मेरे साथी से बोले कि अमर उजाला बरेली में जो हो रहा है मुझे पता है, अखबार, पत्रकारों और इस शहर के लिए ये सब ठीक नहीं है, मैं इस उम्मीद में चुप हूं कि चीजें ठीक हो जाएंगी, मेरी तय की हुई मियाद जिस दिन खत्म हो जाएगी उस दिन मैं उचित मंच पर इन सारे मुद्दों को रखूंगा। अगर मैं अभी तुम लोगों के साथ आंदोलन में कूद पड़ूं और माहेश्वरी बंधुओं पर कोई दबाव डालूं तो लिहाज में वो मेरी हर बात मान लेंगे लेकिन ये ठीक नहीं होगा। अभी मैं अपने चेले का भी पक्ष जानना और देखना चाहता हूं, वो अलग बात है कि वो मुझे इस लायक नहीं समझता कि मुझसे बात करे। वीरेन दा जैसा महान और बड़ा आदमी बेहद गंभीर और बड़ी-बड़ी बातें हंसी मजाक में कहे जा रहे थे, हम जिंदगी के न जाने कितने सबक उनकी खिलखिलाहटों के बीच ही सीख जाते थे। शायद बड़ी से बड़ी या गंभीर से गंभीर बात कहने का उनका यही तरीका था।
     बात-बात में वीरेन दा ने पूछ ही लिया कि इतने लड़ाकू काहे हो, बोला कि दादा बर्दाश्त नहीं होता, बोले वेरी गुड़। पहला ऐसा आदमी मुझे पूरे जीवन में मिला जिसने दुनियादारी के चोंचले नहीं बताए। जो सिर्फ उन मूल्यों के बारे में जान रहा था, बात कर रहा था हमारी आस्था मजबूत कर रहा था जिनमें उसका उस जैसे तमाम इंसानी मूल्यों में यकीन रखने वाले लोगों का विश्वास था। हम करीब दो घंटे वीरेन दा के साथ रहे। फिर तो जब मन आया फोन घनघना दिया। कभी बेटा, कभी क्या बे, कभी लड़ाकू विमान ये सब अपने लिए सुनना आदत सी हो गयी थी। बरेली में जब तक रहा कई बार मिला कहीं किसी गोष्ठी में मिल गए, कभी घर चले गए, कभी वीरेन दा से किसी की शादी में मुलाकात हो गई। हर बार मैं उनसे मिलने के बाद महसूस करता कि पहले से बेहतर इंसान बन गया हूं।

   आज देखता हूं फेसबुक, ट्विटर पर बड़ी बड़ी डींगे हांकते पत्रकारों, संपादकों को जो एक नंबर के लंपट और धूर्त हैं जिनमें से कईयों की लंपटपन और धूर्तता के साक्षात दर्शन भी किए हैं।लेकिन हमारे वीरेन दा ने कभी लंबी-लंबी बातें नहीं की। न फेसबुक पर झूठी विरूदावलियां गाई, न नैतिकता के लंबे भाषण दिए। वो जिंदगी भर बेहद बुनियादी बातों पर जोर देते रहे। इंसानियत औऱ इंसान पर उनकी अगाध आस्था थी औऱ जिंदगी पर अपनी कलम अपने कर्म औऱ वचन से उसी इंसानियत को जिंदा रखा। उन्होंने एक शानदार औऱ बेदाग आदमी, बच्चों के साथ बच्चा और बड़ों के साथ बड़ा। इतना बड़ा साहित्यकार, उतना बड़ा पत्रकार इस खांचे में कभी बैठे ही नहीं, इंसानी मूल्यों का विकटतम पैरोकार नहीं रहा। मन आहत है। बड़े भाई औऱ बेहद सीनियर पत्रकार सौवीर दादा ने अपनी वाल पर लिखा था कि पहले जीभर कर रो तो लूं, अनिल यादव ने बीबीसी में लिखा की आंसू अपने आप निकले जा रहे हैं। मैंने भी इन आंसुओं से कहा नहीं निकलो लेकिन निकल रहे हैं अपने आप मान नहीं रहे। पत्रकारिता में नौकरी लेने वाले तो कई देखे। लेकिन नौनिहालों को सहेजने वाला उनकी उम्मीदों को परवाज देने वाला वीरेन दा जैसा कोई नहीं देखा। दादा अगर अमर उजाला में हनक, ठसक और रूतबे के साथ नौकरी की तो उसकी वजह आप थे दादा। सिर्फ आप। मुझ जैसे बेहद छोटे आदमी को उसकी उम्मीदों को उसकी आस्था को जिंदा रखने के लिए शुक्रिया दादा। वाकई मन आहत है बेहद..कुछ सूझ भी नहीं रहा..वीरेन दा कुछ बोलो यार….तुम तो मंझधार में छोड़के चले गए…इस बार तुमने गलत कर दिया दादा, मेरी कोई गलती नहीं है…ठीक नहीं किया यार इस बार तुमने…ठीक नहीं किया वीरेन दा

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