जम्मू-कश्मीर में पहली बार सत्ता में आने वाली भाजपा के लिए वही झंडे अब चिंता का कारण बनने लगे हैं जिनके सहारे उसने राज्य की राजनीति में अपना प्रभुत्व जमाया। हालात यह है कि इन झंडों की राजनीति में उसका भविष्य खतरे में नजर आने लगा है। चिंता तो यह भी है कि कहीं ये झंडे उसको ले न डूबें। सबको 1992 की 26 जनवरी याद होगी, जब भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी श्रीनगर के लाल चौक में संगीनों के साए में और कर्फ्यू के हालात में तिरंगा फहराकर वाहवाही लूट चुके हैं, पर अब उसी तिरंगे के कारण भाजपा की किरकिरी एनआईटी श्रीनगर के प्रकरण ने करवा दी है।
एनआईटी प्रकरण को चाहे अन्य राजनीतिक दल किसी भी नजरिए से देखें, पीडीपी समेत जो इसे गैर मुद्दा करार देते हुए सत्ता पार्टनर भाजपा की बात भी सुनने को राजी नहीं है, पर यह प्रदेश भाजपा के लिए किसी करारी चोट से कम नहीं था कि उसके राज में श्रीनगर में तिरंगा फहराने की कोशिश करने वालों पर लाठियां बरसाई गईं। मामला यहीं पर खत्म नहीं हो जाता बल्कि गैरकश्मीरी छात्रों पर ही हिंसा भड़काने का आरोप मढ़कर कश्मीर की उस सरकार ने दो छात्रों के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज कर ली जिसकी सत्ता पार्टनर वह भाजपा है जिसने तिरंगे की खातिर बलिदान देने की कथाएं छाती ठोंककर जग को बतलाई है। इस पर भाजपा में भी मतभेद हैं।
भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता प्रो. वीरेंद्र गुप्ता आप कहते हैं कि पुलिस की यह कार्रवाई अनुचित है, पर भाजपा के ही उपमुख्यमंत्री निर्मल सिंह के लिए यह मामूली घटना थी तो मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के लिए गैर मुद्दा था। चर्चा का विषय यह नहीं है कि एनआईटी प्रकरण क्यों हुआ और किसकी उपज थी बल्कि चिंता का विषय यह है कि प्रदेश भाजपा झंडों के खेल में उलझती जा रही है। उसके लिए झंडों का संजाल उसी समय पिछले साल आरंभ हो गया था जब ‘दो प्रधान और दो निशान’ की मजबूरी को ढोते हुए भाजपा ने सत्ता सुख की खातिर अपने उस नारे से दूरी बना ली थी जिसकी खातिर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बलिदान दिया था। भाजपा ने तब तो अपने ही उस नारे को भी भुला दिया जिसे मुद्दा बना वह 62 सालों से राज्य की जनता समेत देश के लोगों को ‘बेवकूफ’ बनाती आई थी। यह नारा था- ‘देश में न ही दो संविधान चलने देंगे और न ही दो निशान होंगे।’
झंडों की सियासत की शुरुआत उसे शुरू से भारी पड़ने लगी थी। सरकार में शामिल होने के 1 महीने के अंदर ही प्रशासनिक विभाग के उस आदेश ने भाजपा के गलियारों में खलबली जरूर मचा दी थी जिसमें स्टेट फ्लैग को सरकारी वाहनों और इमारतों पर फहराया जाना अनिवार्य करार दिया गया था। इस आदेश ने भाजपा के लिए कई मुसीबतें इसलिए पैदा कर दी थीं, क्योंकि वह एक तो इसके लिए तैयार नहीं थी और दूसरा वह हैरान इसलिए थी कि उसकी मंजूरी लिए बिना कैसे प्रशासनिक विभाग ने इस आदेश को जारी किया था?
हालांकि काफी हंगामे के बाद इस आदेश को विभाग ने वापस तो ले लिया लेकिन भाजपा की छवि खराब जरूर हो गई। झंडों की राजनीति में वह इतनी उलझ गई कि अब उसी के शासन में कश्मीर में तिरंगा फहराया जाना मुश्किल हो गया है। यह बात अलग है कि उसके शासनकाल में आतंकी समर्थकों द्वारा कितनी बार श्रीनगर समेत अन्य कस्बों में पाकिस्तानी और आईएसआईएस के झंडों को फहराया गया है, कोई गिनती ही नहीं है। पाक झंडों के लगातार फहराए जाने के क्रम ने उसकी खूब फजीहत इसलिए भी करवा दी है, क्योंकि इन मामलों में पिछले डेढ़ साल में मात्र दर्जनभर युवकों को चेतावनी देकर छोड़ दिया गया।
शायद भाजपा की मजबूरी थी कि वह चाहकर भी कुछ नहीं कर पाई, क्योंकि पहली बार मिला सत्ता का सुख वह छोड़ना नहीं चाहती। तभी तो अक्सर उसके नेता कहते फिरते हैं कि धारा 370 समेत अन्य मुद्दे सुलझाने में वक्त लगेगा, तब तक सत्ता सुख क्यों छोड़ा जाए जबकि जनता ने उसे सत्ता में बने रहने के लिए वोट दिए हैं। माना कि जनता ने उसे सरकार बनाने को वोट दिए हैं, पर जम्मू समेत देश के अन्य भागों के निवासी तिरंगे का अपमान सहन नहीं कर सकते, इसे वह याद नहीं रखना चाहती। एनआईटी प्रकरण का मुद्दा चाहे जो भी था, मामला तिरंगे की आन-बान-शान पर आया तो देश में ज्वाला भड़क उठी है और अब यही लगने लगा है कि कहीं झंडे भाजपा को न ले डूबें। वैसे यह चिंता अब भाजपा के शीर्ष नेताओं को भी सताने लगी है।
जम्मू कश्मीर से सुरेश एस डुग्गर की रिपोर्ट.