: बिहार में इस बार लड़ाई जाति बनाम विकास की : बिहार में चुनाव की बाकायदा घोषणा के साथ जाति के अपने-अपने समीकरण की गुपचुप चर्चा खुलेआम हो चुकी है। अब विकास भी बिहार में एक मुद्दा बन गया है, इसलिए उसकी भी चर्चा हो जाती है। चर्चाओं में बेचारा विकास अकसर जाति के समीकरण से मारा जाता है। जातीय समीकरण का इतिहास बहुत पुराना है। 1937 से 2005 के अक्टूबर तक का इसका उदाहरण इसके पास है। बिहार में विकास का कोई इतिहास नहीं है। है भी तो 2009 के लोक सभा का जो कि 2009 के विधान सभा के उप-चुनाव के समय टूट गया। 18 में से 13 विधान सभाई सीटें उन्हें मिलीं जो विकास की बात करने वाले शासक दल– राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का विरोध कर रहे थे। यह महज आंकड़ा है। यह वोट विकास विरोधी वोट नहीं था, बल्कि नीतीश कुमार की रणनीति की विफलता का समर्थन था।
अब प्रश्न है कि क्या नीतीश कुमार ने अपनी असफलता से कुछ सीखा या नहीं– यह फैसला भी चुनाव नतीजों के बाद ही समझ में आएगा। लेकिन यह सच है कि बिहार में ही नहीं पूरे देश में विकासीय समीकरण का कोई इतिहास नहीं बना है। जाति चुनाव में ही नहीं, हर जगह एक महत्वपूर्ण कारक है।लोग अब तक भूल चुके होंगे कि जातीय समीकरण का बहुत चतुराई के साथ इस्तेमाल इंदिरा गांधी ने 1971 के लोकसभा के मध्यावधि चुनाव में किया था। इस चुनाव के पूर्व 1969 से श्रीमती गांधी ने अपनी तस्वीर गरीबपरवर की और सामंतवाद के विरोध की बनाई थी।
चंद्रशेखर जैसे लोगों के साथ और समर्थन के कारण समाजवादी छवि भी थी और चुनाव में साम्यवादी पार्टी के साथ समझौता ने ही, उनके नारे- ‘वह कहते हैं इंदिरा हटाओ, इंदिरा जी कहती हैं गरीबी हटाओ’ को सार्थक चेहरा दिया था। इंदिरा गांधी भी सामुदायिक समीकरण में पीछे नहीं थीं। दलित, मुसलमान, पिछड़ा और ब्राह्मण का सामुदायिक समीकरण उन्होंने बनाया था। तथाकथित सामंती समुदायों के मुकाबले पिछड़ी जातियों के उम्मीदवारों को उन्होंने मुकाबले में उतारा था। अब यह कहना मुश्किल है कि इंदिरा हटाओ का ही इस्तेमाल उन्होंने नारेबाजी में क्यों किया था। शायद इसलिए कि मुकाबले में एक संगठन कांग्रेस था। तब से पार्टी से बड़ा व्यक्ति होता गया।
बिहार में लालू प्रसाद की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का कोई महत्व नहीं रहा, लालू जी का महत्व हो गया है। लालू जी ने और लोगों ने भी पाया कि उनका और रामबिलास पासवान का मिलन बहुत मारक होता है। यह मारक समीकरण 2004 के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को पीट चुका है लेकिन 2009 के चुनाव में पिटा भी चुका है। विधान सभा के स्तर पर दोनों 2005 के फरवरी और अक्टूबर में अलग अलग थे, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से पिछड़ गए। अब एक साथ हैं इसलिए माना जा रहा है कि वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को पीट देंगे।
कहने वाले यहां तक कहते हैं कि पांच साल में कोसी की बाढ़ में लालू–रामबिलास का समीकरण भी बह चुका है। जवाब दिया जाता है कि 2005 का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का सवर्ण यानी राजपूत–भूमिहार वोट उनसे बिदक चुका है। इसका एक नमूना सितंबर 2009 में 18 विधान सभा क्षेत्रों के उपचुनाव में दिखा, जिसमें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के बजाय वोटर ने लालू–रामबिलास–कांग्रेस–बसपा को पसंद किया। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को कुल 5 सीटें मिली थीं। पर अभी कांग्रेस पार्टी का लालू–रामबिलास से कोई गठबंधन नहीं है। बिहार बसपा के सारे विधायक बसपा छोड़ चुके हैं या निकाले जा चुके हैं। इसका मतलब यह भी होता है कि बसपा के लिए व्यक्तियों का कोई महत्व नहीं होता है। यह बिहार में 243 सीटों पर भी लड़ सकती है। इसे पता है कि जातीय समीकरण का कौन सा वोट उसका पक्का वोट है। बस उसके उम्मीदवार को उस क्षेत्र के जातीय समीकरण से तालमेल बिठाना है। अभी तक यह उत्तर प्रदेश से सटे बिहार के विधान सभा क्षेत्रों से जीतती रही है।
बिहार में पार्टियां लगभग लेटरहेड होती हैं। उनका किसी किस्म का लोकतांत्रिककरण नहीं होता। यह चलन कांग्रेस पार्टी ने शुरु किया था। अब वह प्रबंधित लोकतांत्रिककरण की ओर जा रही है। बिहार के वोटर को पता है कि राहुल गांधी या सोनिया गांधी के अलावा कांग्रेस पार्टी के पास राज्य स्तरीय कोई वोट बटोरु नेता नहीं है। राहुल गांधी ने संगठन के स्तर पर प्रतिबंधित लोकतंत्र का जो संगठन बनाया है, वह भीड़ तो नहीं जुटा सकता –सिर्फ हंगामा कर सकता है। अभी भी राहुल गांधी या कांग्रेस पार्टी को उनका सहारा लेना पड़ता है, जो तथाकथित आपराधिक छवि, जैसे पप्पू यादव की पत्नी रंजीता रंजन और आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद का सहारा लेना पड़ता है। दोनों देवियां लोक सभा सदस्य रह चुकी हैं। सच तो यह भी है कि इन देवियों ने स्थानीय नेताओं के बजाए राहुलगांधी/सोनिया गांधी को अपना नेता चुना। इनके समर्थको का तर्क भी सही है कि जब एकाधिकार को ही चुनना है तो देश की सबसे बड़ी पार्टी को क्यों न चुना जाए।
स्थानीय स्तर की तीनों पार्टियां जदयू–राजद–लोजपा बुनियादी तौर पर व्यक्तियों– नीतीश कुमार–लालू प्रसाद–रामबिलास पासवान की पार्टी है। यह माना जा रहा है कि नीतीश कुमार के पास कोयरी–कुरमी–अतिपिछड़ों और पिछड़े मुसलमानो के साथ रविदास–पासवान के अतिरिक्त अन्य दलितों का वोट बैंक के साथ विकास का वोट है, यानी सभी समुदाय का वोट है। इस मान्यता के आधार पर माना जा रहा है कि अगली सरकार नीतीश कुमार की ही बनेगी। इस मानने के विरोध में तर्क है कि लालू प्रसाद–रामबिलास पासवान की जोड़ी यादव–पासवान–अन्य पिछड़े–राजपूत और मुसलमान समुदाय के वोट के बल पर सरकार बना लेगी। कांग्रेस पार्टी अपने नेता राहुल गांधी/सोनिया गांधी के करिश्मे के साथ ब्राह्मण–भूमिहार–दलित–मुसलमान का वोट ले कर वहां पहुंच जाएगी कि किसी भी सरकार को इनके समर्थन की जरूरत पड़ेगी या सरकार ही नहीं बनेगी ।
इन खिलाड़ियों के अलावा हर पार्टी में एक न एक चेहरा है जो अपनी पार्टी के खिलाफ वोट मांग रहा है। ऐसे खिलाड़ियों में नंबर एक हैं ललन सिंह उर्फ राजीवरंजन सिंह। जदयू का यह लोक सभा सदस्य खुलेआम कांग्रेस पार्टी के लिए वोट मांग रहा है। जातीय समुदाय में सबसे खतरनाक तौर पर कोयरी समुदाय उभर रहा है। इसमें एक नहीं अनेक नेता हैं । इन्हें लगता है कि बिहार की सत्ता की राजनीति में इन्हें वह हिस्सा नहीं मिल पाया है जो इन्हें मिलना चाहिए। बहरहाल, बिहार विधान सभा का यह चुनाव इस मायने में महत्वपूर्ण होगा कि या तो यह जाति की जकड़न को तोड़ेगा या जाति की जकड़न में बंध जाएगा। इसका पता भी उम्मीदवारों के टिकट की घोषणा से हो जाएगा।
जुगनू शारदेय हिंदी के जाने-माने पत्रकार हैं. ‘जन’, ‘दिनमान’ और ‘धर्मयुग’ से शुरू कर वे कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादन/प्रकाशन से जुड़े रहे. पत्रकारिता संस्थानों और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में शिक्षण/प्रशिक्षण का भी काम किया. उनके घुमक्कड़ स्वभाव ने उन्हें जंगलों में भी भटकने के लिए प्रेरित किया. जंगलों के प्रति यह लगाव वहाँ के जीवों के प्रति लगाव में बदला. सफेद बाघ पर उनकी चर्चित किताब “मोहन प्यारे का सफ़ेद दस्तावेज़” हिंदी में वन्य जीवन पर लिखी अनूठी किताब है. इस किताब को पर्यावरण मंत्रालय ने भी 2007 में प्रतिष्ठित “मेदिनी पुरस्कार” से नवाजा. फिलहाल दानिश बुक के हिन्दी के कंसल्टिंग एडिटर हैं तथा पटना में रह कर स्वतंत्र लेखन कर हैं.