प्रभाषजी अपने पसंदीदा गायक कुमार गंधर्व के इस भजन को ताउम्र सुन सुनकर रीझते रहे…निर्भय निर्गुण गुण रे गाउंगा…। आखिर रीझते भी क्यूं नहीं, जिद जो थी पत्रकारिता की डगरिया पर निर्भयतापूर्वक निर्गुण के गुण गाने का। जब से प्रभाष जी इस नश्वर शरीर को छोड़कर परमब्रह्म में लीन हुए हैं, मैं लगातार कुमार साहब के गाए कबीर के इस भजन में प्रभाष जी के उस विराट व्यक्तित्त्व को निरेख रहा हूं जिसने बगैर किसी लाग लपेट के अपनी ठेठ देशजता में न सिर्फ पत्रकारिक बल्कि तमाम जनतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिए अंगारों पर चलना स्वीकार किया।
किसे नहीं मालूम कि हर युग में विरोध के अपने खतरे रहे हैं। लेकिन सुकरात, कबीर, गांधी जैसी शख्सीयतों ने विरोध के रास्ते पर चलना स्वीकार किया क्योंकि उन सबमें गजब की निर्भयता थी। अकेले चलने का माद्दा था। प्रभाष जी का आगमन जिस समय पत्रकारिता में हुआ, देश को नई-नई आजादी मिली थी। पत्रकारिता ही नहीं, राजनीति सिनेमा, सहित्य, दर्शन और कला के तमाम समकालीन आयामों पर आदर्शवादिता की सनक थी। एक तरफ अगर जनतांत्रिक मूल्यों को लेकर लोगों की अपेक्षाएं हिलकोरे मार रही थी तो दूसरी तरफ वैश्विक राजनीति की धुरी में हो रहे बदलाव को लेकर भी लोगों की रुमानियत कम नहीं थी। मैं जिस व्यवस्था की ओर संकेत कर रहा हूं आप समझ ही गए होंगे। लेकिन आदर्शवादिता और रुमानियत के इन दोनों पाटों के बीच कहीं कोई चीज गुम हो रही थी और वह थी अपन के व्यावहारिक मूल्यों की राजनीति, पत्रकारिता कला साहित्य, सिनेमा —– क्योंकि जनतंत्र और समाजवाद नाम की इन दोनों नई व्यवस्थाओं की न सिर्फ जन्मभूमि बल्कि कर्म भूमि भी यूरोप की ही जमीन थी।
आज तक जितना मैं समझ सका हूं उसकी बिना पर यह कहने में कोई हिचक नहीं कि गांधी के रास्ते और दृष्टिकोण स्वतंत्र भारत के लिए सर्वाधिक उपयुक्त रहे हैं और रहेंगे क्योंकि गांधी में उपरोक्त व्यवस्थाओं की खामियों और बुराइयों को ताड़ने की कूव्वत थी। सही मायने में कहें तो गांधी का जनतंत्र को लकर दृष्टिकोण भारतीय जनमानस के सर्वाधिक अनुकूल है। आप कहेंगे मैं विषयांतर हो रहा हूं लेकिन आप मुझे थोड़ा माफ करें इसलिए कि प्रभाष जी पर बात करूं और गांधी पर न करूं, ये अपने आप से बेमानी होगी। प्रभाष जी तो मेरे लिए अलग छवि बनकर कभी सामने आए ही नहीं, उनमें मुझे हमेशा कभी कोई कबीर, गांधी या कुमार गंधर्व नजर आया।
जिस समय पर अभी मैं टिका हूं, उस समय स्वतंत्र भारत में भाषायी पत्रकारिता के लिए भी राजनीति, कला, साहित्य और सिनेमा की तरह उपरोक्त दोनों प्रवृत्तियां और विचारधाराएं हावी थीं। लेकिन सबसे चुभने वाल बात यह थी कि इन दोनों प्रवृत्तियों की अगुआई करने वाली आंग्ल भाषा की पत्रकारिता हिंदी पत्रकारिता को अपने साये तले दुबकने पर मजबूर कर रही थी। लेकिन प्रभाष जी और राजेंद्र माथुर को यह कैसे गंवारा हो सकता था कि न सिर्फ हिंदी पत्रकारिता बल्कि तमाम भाषायी पत्रकारिता की नियति फेंटू बनकर भोंपू बजाने के लिए बाध्य रहे। एक बात यहां पर मैं और स्पष्ट कर दूं कि हर एक समय की तरह ठीक उस समय भी राजनीति, पत्रकारिता, कला साहित्य और दर्शन के क्षेत्र में भी अपने अपने स्तर पर अपने क्षेत्र विशेष को गांधीवादी मूल्यों से लैस करने की सार्थक कोशिश की जा रही थी।
मेरे पास इस समय बात को कुल मिलाकर पत्रकारिता और राजनीति तक सीमित रखने की विवशता है क्योंकि प्रभाष जी केंद्र में हैं। उपरोक्त दोनों प्रवृत्तियों और व्यवस्थाओं की तंगनजरी को देखते हुए लोहिया, विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, मधु लिमये और किशन पटनायक जैसे नेता वैकल्पिक राजनीति की जमीन तैयार करने में लगे हुए थे और प़त्रकारिता के लिए ठीक ऐसा ही कर रहे थे प्रभाष जोशी। कारण, जोशी जी उन लोगों में नहीं थे जिनके लिए पत्रकारिता सिर्फ कागद काला करने का जरिया था। उनका मानना था कि सरोकारों से संबद्व होने के लिए पत्रकारिता का कला के विविध आयामों के साथ मिलकर राजनीति और समाज के विभिन्न स्तरों पर हस्तक्षेप जरूरी है। तभी तो स्वतंत्र भारत में हुए तमाम बडे़ राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलनों में जोशी जी की सक्रियता जगजाहिर रही। मैं तो प्रभाष जी को गांधी, लोहिया, नरेंद्र और जयप्रकाश की पांचवीं कड़ी मानता हूं। लेकिन आप ये मत समझिए कि ऐसा कहने का मतलब यह है कि जोशी जी किसी खास विचारधारा के अनुयायी थे।
वक्त आया तो वे इन खांटी समाजवादियों की खिंचाई से भी बाज नहीं आए। लेकिन गहरी राजनैतिक प्रतिबद्वता के बावजूद उन्हें पत्रकारिक धर्म का हमेशा खयाल रहा। समाचारों की वस्तुनिष्ठता को लेकर कभी कोई समझौता नहीं किया। वहीं विचारों की अतिवादिता के भी शिकार नहीं हुए। अपने पत्रों में अभिव्यक्ति के जनतंत्र को हमेशा बहाल रखा। प्रभाष जी का व्यक्तित्व भी जनतंत्र के प्रयोगशाला से कम नहीं था। तभी तो जब भी कभी राजनीति या विचार में अथारिटेरियनिशप यानी अधिनायकत्व का असर बढ़ा, उन्होंने इसका जी भी कर प्रतिरोध किया। आपातकाल का विरोध इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। हालांकि उस समय धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा जैसे साहित्यकार और प़त्रकार भारतीय लोकतंत्र के उस काले अध्याय का प्रशस्ति पत्र रचने में लगे थे। विचारों के जनतंत्र की बहाली के उनके प्रयास को तो अनेक मौकों पर पोंगापंथी, कट्टरवादी और दकियानूस तक करार दिया गया। याद कीजिए रूपकंवर के सती होने के मामले को और हिंदुत्व को लेकर उनके विचार से उपजे विवाद और आलोचना को या इंदिरा जी के निधन के बाद आई उनकी प्रतिकिया को लेकर हुई उनकी आलोचना को। हालांकि मैं यह नहीं कहता कि उन तमाम मामलों को लेकर प्रभाष जी के विचार से सबको इत्तफाक रखना चाहिए या उनके सभी विचार सही हैं क्योंकि ये भी अपने आप में सर्वसत्तावादी सोच ही है। लेकिन किसी व्यक्ति विशेष के किसी पहलू या परंपरा या कहें तो किसी भी मुद्दे पर सिर्फ आपके विचार किसी को इस बात की इजाजत नहीं देते कि वो सिर्फ उसके किसी खास आलोचना और विचार के दम पर आपको उस व्यक्ति, परंपरा या विचार विशेष का समर्थक या पिछलग्गू करार दे।
अगर किसी खास समय में प्रभाष जी ने रूप कंवर के मामले को लकर परंपरा के तह तक जाने की कोशिश की या उसके किसी खास सकारात्मक पहलू पर अपने विचार रखे तो इसका यह मतलब कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि प्रभाष जी सती प्रथा के समर्थक थे। रंगीले आधुनिकों, प्रगतिशीलों और परंपराविरोधियों को मैं यह बता दूं कि कोई भी परंपरा या रीति रिवाज किसी खास समय की जरूरत और मजबूरी के चलते ही पनपता है। उस समय उसका उद्देश्य भी वृहतर समाज की भलाई में या बुराई से बचाने के तरीकों में ही निहित होता है। बाद में भले ही वर्ग या व्यक्ति विशेष क्यूं न उसे अपने-अपने फायदे के लिए रूढ़िवादिता में तब्दील कर देता हो। अभी के ही ताजा उदाहरण को देख लीजिए।
रक्त की शुद्धता पर उन्होंने क्या अपने कुछ विचार रखे कि तथाकथित प्रगतिशीलों की फौज उनके पीछे हाथ धोकर पड़ गई और उन्हें जातिवादी, पोंगापंथी और सठिया सिद्ध करने से भी बाज नहीं आए। मैं पूछता हूं कि आखिर यह भी तो विचारों की सर्वसत्तावादी सोच नहीं तो और क्या है। लेकिन प्रभाष जी ने विचारों के जनतंत्र को खास मुहावरे और परिधि में बांध कर रखने वालों की कभी रत्ती भर भी परवाह नहीं की। आखिर उनके संघर्षों के मूल में ही था विचारों के अधिनायकत्व का विरोध। क्योंकि उनके लिए जनतंत्र अगर साध्य था तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता साधन। वे मानते थे कि किसी लोकतंत्र में लोक की प्रतिष्ठा बगैर अभिव्यक्ति की गरिमामयी और जिम्मेदार स्वतंत्रता के हो ही नहीं सकती। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उन्होंने अराजक और अनैतिक विचारों को भी कभी जायज करार नहीं दिया। आखिर अपार जीवनानुभव से ही उनका व्यक्तित्त्व इतना लचीला और बेबाक बना।
मैं यह मान नहीं सकता कि बगैर लोक के अनुभव के किसी के व्यक्तित्व में इतनी गहराई, व्यावहारिकता और लचीलापन आ सकता है। आप ही सोचो, बगैर लोक को समझे गांधी और कबीर क्या होते। जिस तरह कुमार गंधर्व को सुनकर, असीम प्रशांतता का बोध होने लगता है। प्रभाष जी के लिखे को पढ़ने के बाद भी उसी तरह की प्रशांतता शून्य में तिरने लगती है। कुमार गंधर्व कहते थे- निर्गुण वही गा सकता है जिसके गायन में शून्य पैदा करने की क्षमता हो। मैं कहता हूं- निर्गुण सुन भी वही सकता है जिसका व्यक्तित्व प्रभाष जी जैसा उदात्त, गंभीर और धीर हो।
लेखक अजीत कुमार रिसर्च एनालिस्ट हैं.