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खबरों को रफ्तार देने में समचार बन गया कबड्डी और खो-खो

शायद दूर-दराज़ के गावों या शहरों के लोगों को इस बात का कतई अंदाज़ा नहीं होगा कि शहरी लाइफ इतनी व्यस्त या भागम-भाग भरी होगी. इस बात का एहसास मुम्बई रेलवे स्टेशनों या फिर दिल्ली के मेट्रो स्टेशनों पर भागती दौड़ती जिंदगी को देख कर लगाया जा सकता है. लेकिन इन सब से इतर एक और चीज़ है जो इस बात का एहसास कराती है, वो है हमारे न्यूज़ चैनलों में दिखाए जानो वाले खबरों की रफ़्तार. या फिर यूँ कहें कि लोगों की भागती-दौड़ती ज़िन्दगी और उनमें समय के अभाव के नब्ज़ को चैनलों ने पकड़ा. क्योंकि ज्यादातर न्यूज़ चैनलों के प्रोग्राम शहरी दर्शकों को फोकस करके बनाये और दिखाए जाते हैं. पिछले दो सालो में न्यूज़ चैनलों के कंटेंट में ज़रूर सुधार आया है क्योंकि समाचारों से विपरीत दिखाई जाने वाले चीज़ें समाचार चैनलों के अस्तित्व को नकार रही थी या उन पर एक सवालिया निशान लगा रही थी.

<p>शायद दूर-दराज़ के गावों या शहरों के लोगों को इस बात का कतई अंदाज़ा नहीं होगा कि शहरी लाइफ इतनी व्यस्त या भागम-भाग भरी होगी. इस बात का एहसास मुम्बई रेलवे स्टेशनों या फिर दिल्ली के मेट्रो स्टेशनों पर भागती दौड़ती जिंदगी को देख कर लगाया जा सकता है. लेकिन इन सब से इतर एक और चीज़ है जो इस बात का एहसास कराती है, वो है हमारे न्यूज़ चैनलों में दिखाए जानो वाले खबरों की रफ़्तार. या फिर यूँ कहें कि लोगों की भागती-दौड़ती ज़िन्दगी और उनमें समय के अभाव के नब्ज़ को चैनलों ने पकड़ा. क्योंकि ज्यादातर न्यूज़ चैनलों के प्रोग्राम शहरी दर्शकों को फोकस करके बनाये और दिखाए जाते हैं. पिछले दो सालो में न्यूज़ चैनलों के कंटेंट में ज़रूर सुधार आया है क्योंकि समाचारों से विपरीत दिखाई जाने वाले चीज़ें समाचार चैनलों के अस्तित्व को नकार रही थी या उन पर एक सवालिया निशान लगा रही थी.

शायद दूर-दराज़ के गावों या शहरों के लोगों को इस बात का कतई अंदाज़ा नहीं होगा कि शहरी लाइफ इतनी व्यस्त या भागम-भाग भरी होगी. इस बात का एहसास मुम्बई रेलवे स्टेशनों या फिर दिल्ली के मेट्रो स्टेशनों पर भागती दौड़ती जिंदगी को देख कर लगाया जा सकता है. लेकिन इन सब से इतर एक और चीज़ है जो इस बात का एहसास कराती है, वो है हमारे न्यूज़ चैनलों में दिखाए जानो वाले खबरों की रफ़्तार. या फिर यूँ कहें कि लोगों की भागती-दौड़ती ज़िन्दगी और उनमें समय के अभाव के नब्ज़ को चैनलों ने पकड़ा. क्योंकि ज्यादातर न्यूज़ चैनलों के प्रोग्राम शहरी दर्शकों को फोकस करके बनाये और दिखाए जाते हैं. पिछले दो सालो में न्यूज़ चैनलों के कंटेंट में ज़रूर सुधार आया है क्योंकि समाचारों से विपरीत दिखाई जाने वाले चीज़ें समाचार चैनलों के अस्तित्व को नकार रही थी या उन पर एक सवालिया निशान लगा रही थी.

लेकिन चंद महीनो में जो सबसे बड़ा बदलाव आया वो है न्यूज़ चैनलों में खबरों की रफ़्तार. सभी के सभी चैनल चाहे वो बड़े ब्रांड हो या छोटे चैनल सब के सब खबरों को रफ़्तार देने के चक्कर में पड़े है कुछ वैसे ही जैसे बचपन में हम और आप खो-खो और कबड्डी का खेल खेलते थे. जब कि आज भी मीडिया संस्थानों में समाचारों के सिद्धांत में यही पढ़ाया जाता है एक आइडियल स्टोरी एक से डेढ़ मिनट की होती है. लेकिन कोई चैनल 5 मिनट में पचास तो कोई 15 मिनट में दो सौ खबरें. यानी समाचारों के नाम केवल और केवल हेडलाइनें ही बची हैं. इसकी शुरुआत सबसे पहले टीवी टुडे नेटवर्क के चैनल तेज ने किया. उसके बाद से इसकी होड़ सी मच गयी. सबसे बड़ी बात यह कि  इससे न्यूज़ चैनलों के टीआरपी में इजाफा भी हुआ. और टीआरपी के दौड़ में वो चैनल पीछे चले गए जो इस ट्रेंड अपना नहीं सके या फिर अपनाने में देरी कर रहे हैं. हां ये ज़रूर है कि अभी इंग्लिश इलेक्ट्रानिक मीडिया अभी इससे दूर है.

आज कोई राजधानी या शताब्दी के रफ़्तार से खबरें दिखा रहा है तो कोई बुलेट की रफ़्तार से भी तेज़, तो कोई दुनिया का सबसे तेज बुलेटिन दिखा रहा है. पता नहीं इसके मापने का पैमाना बनाया क्या होगा. बस टीवी स्क्रीन पर उभरते दो चहरे और फटा-फटा खबरें. और अंत में, आप लोग इस आर्टिकल को पढ़ क्या सोच रहे होंगे लेकिन मेरा नजरिया अभी भी सकारात्मक है और उस दिन के इंतजार में हूँ जब हम और आप रॉकेट, मिसाईल, ध्वनि और प्रकाश की गति से भी तेज़ रफ़्तार से खबरें देखेंगे.

लेखक अवधेश कुमार मौर्य पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं.

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