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गिलगित को तिब्‍बत बनाने का चीनी षड्यंत्र

समरनीति के बारे में दृष्टि दोष हमारा राष्ट्रीय रोग रहा है। घर के बाहर जुटते तूफानों का आभास हमें तब होता है तब तूफान हमें बुरी तरह झकझोर देता है। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित एक महत्त्वपूर्ण गोष्ठी में वरिष्ठ राजनयिक जी. पार्थसार्थी का कहना है कि हम ने दो ही समरनीति विशारद पैदा किए, प्राचीन भारत में कौटिल्य और हाल के इतिहास में महाराजा रणजीत सिंह। रणजीत सिंह को इस बात का एहसास था कि हमारी पश्चिमी सीमा के बाहर राजनैतिक और सांप्रदायिक स्थितियां हर समय अस्थिर रहतीं हैं और समय-समय पर जब उन में उबाल आता है तो पश्चिमोत्तर भारत पर आक्रमण होता है। उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि सीमाओं के बाहर आकार लेते हुए इस तूफान को अप्रभावी करने के लिए उस के भारत का रुख करने की प्रतीक्षा करने के बदले उस के स्रोत पर ही वार करना होगा।

<p>समरनीति के बारे में दृष्टि दोष हमारा राष्ट्रीय रोग रहा है। घर के बाहर जुटते तूफानों का आभास हमें तब होता है तब तूफान हमें बुरी तरह झकझोर देता है। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित एक महत्त्वपूर्ण गोष्ठी में वरिष्ठ राजनयिक जी. पार्थसार्थी का कहना है कि हम ने दो ही समरनीति विशारद पैदा किए, प्राचीन भारत में कौटिल्य और हाल के इतिहास में महाराजा रणजीत सिंह। रणजीत सिंह को इस बात का एहसास था कि हमारी पश्चिमी सीमा के बाहर राजनैतिक और सांप्रदायिक स्थितियां हर समय अस्थिर रहतीं हैं और समय-समय पर जब उन में उबाल आता है तो पश्चिमोत्तर भारत पर आक्रमण होता है। उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि सीमाओं के बाहर आकार लेते हुए इस तूफान को अप्रभावी करने के लिए उस के भारत का रुख करने की प्रतीक्षा करने के बदले उस के स्रोत पर ही वार करना होगा।

समरनीति के बारे में दृष्टि दोष हमारा राष्ट्रीय रोग रहा है। घर के बाहर जुटते तूफानों का आभास हमें तब होता है तब तूफान हमें बुरी तरह झकझोर देता है। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित एक महत्त्वपूर्ण गोष्ठी में वरिष्ठ राजनयिक जी. पार्थसार्थी का कहना है कि हम ने दो ही समरनीति विशारद पैदा किए, प्राचीन भारत में कौटिल्य और हाल के इतिहास में महाराजा रणजीत सिंह। रणजीत सिंह को इस बात का एहसास था कि हमारी पश्चिमी सीमा के बाहर राजनैतिक और सांप्रदायिक स्थितियां हर समय अस्थिर रहतीं हैं और समय-समय पर जब उन में उबाल आता है तो पश्चिमोत्तर भारत पर आक्रमण होता है। उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि सीमाओं के बाहर आकार लेते हुए इस तूफान को अप्रभावी करने के लिए उस के भारत का रुख करने की प्रतीक्षा करने के बदले उस के स्रोत पर ही वार करना होगा।

काबुल पर चढ़ाई पंजाब के राजा की क्षेत्रीय भूख का परिणाम नहीं था, अपने राज्य की सुरक्षा की आवश्यकता का सही आकलन था। लेकिन पश्चिमोत्तर और पूर्वोत्तर दिशाओं से होने वाले सभी अन्य खतरों के बारे में स्वतंत्र भारत की सरकारों के समरनैतिक अंधत्व का ही परिचय मिलता है। वह 1947 में उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत से  कश्मीर पर होने वाले कबाइली हमला हो, 1962 में पूर्वोत्तर से चीनी आक्रमण हो या फिर हाल में कारगिल का आक्रमण हो। वास्तव में तिब्बत पर चीनी अधिकार को स्वीकार करना स्वतंत्र भारत की सब से बड़ी राजनैतिक भूल थी जिसका निराकरण हम तब भी नहीं कर पाए जब चीन ने बाकायदा चीन में फौजी कार्रवाई करके दलाई लामा को पलायन करने पर मजबूर कर दिया। विस्तारवादी चीन और भारत के बीच एक मित्र देश एक सुरक्षा दीवार की तरह काम कर सकता था। लेकिन इस के विलीन होने के बाद चीन की सीमाएं भारत के साथ ही नहीं आई, अपितु हमारी अपनी सीमाएं विवादस्पद बन गईं। नेपाल और भारत के बीच अविश्वास की खाई भी इसी कारण पैदा हुई और पाकिस्तान और चीन की सामरिक धूरी भी इसी का परिणाम हैं।

लेकिन अब हमें एक और खतरे का सामना करने के लिए तैयार होना चाहिए। जम्मू कश्मीर के बीच ही नए तिब्बत का विकास किया जा रहा है, जो न केवल कश्मीर के एक बड़े भू-भाग को भारत से अलग कर सकता है अपितु जिससे पूरे भारत की प्रभुसत्ता भी खतरे में पड़ सकती है। एक अमेरिकी अनुसंधान संस्थान के इस दावे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि पाकिस्तान और चीन के बीच एक समझौता होने जा रहा है, जिस के तहत पाकिस्‍तान गिलगित और बल्तिस्तान के एक बडे़ क्षेत्र को चीन के हवाले करेगा। सामान्यतया पश्चिमी स्रोतों से छपे बहुत से समाचारों पर एकदम विश्वास करना मुश्किल होता है, क्योंकि उन का उद्देश्य अमेरिकी हितों को ही साधना होता है। लेकिन इस समाचार का मूल स्रोत अमेरिका नहीं, स्वयं बल्तिस्तान ही है। बांगे रोजनामा सहर ने इस समाचार को अपने विषेश संवाददाता के नाम से छापा कि पाकिस्तान चाहता है कि चीन कश्मीर में भारत के खिलाफ राजनैतिक और सैनिक सहयोग के अतिरिक्त ग्वादर में सैनिक बंदरगाह बनाने में मदद करे। लेकिन चीन इस बदले पाकिस्तान से मांग कर रहा है कि वह कश्मीर के गिलगित और बल्तिस्तान क्षेत्रों को पच्चास साल के पट्टेपर चीन के हवाले करे ताकि वहां पर्याप्त संख्या में चीनी सेनाऐं तैनात की जा सकें।

साफ है चीन केवल अपनी सेना को कश्मीर में केवल कारोकरम राजमार्ग की सुरक्षा के लिए नहीं रखना चाहता है अपितु वह स्थाई तौर पर इस इलाके पर अपना शासन स्थापित करने के दूरगामी षड्यंत्र पर काम कर रहा है। चीन के इरादों का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि सियाचिन ग्लेशियर के पार शक्सगाम घाटी में भी चीन और पाकिस्तान के बीच ऐसा ही एक समझौता हुआ है। हांलांकि समझौते की शर्तों में यह बताया गया था कि जब इस क्षेत्र का अंतिम फैसला होगा, यानी जब कश्मीर पर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद सुलझ जाएगा तो जो देश शक्सगाम का कानूनी उत्तराधिकारी होगा उसके साथ नया समझौता किया जाएगा। लेकिन कुछ साल बाद मूल समझौते में से यह शर्त भी हटा दी गई। स्पष्ट है कि चीन ने इस समझौते को सर्वकालिक मान लिया है। यह दावा सही नहीं है कि कारोकरम राजमार्ग की सुरक्षा के लिए उसे सेना रखना आवश्यक है। इस काम के लिए सेना तो एक दशक से शक्सगाम में तैनात है। शक्सगाम की ही तरह चीन गिलगित और बल्तिस्तान में भी स्थाई तौर पर पांव जमाना चाहता है। अगर यह योजना अमल में आ गई तो इस से कश्मीर के एक बडे इलाके में पाकिस्तान के अतिरिक्त चीन भी दावेदार बन जाएगा। और कश्मीर की धरती को विदेशी अधिकार से मुक्त कराना पहले से भी दुष्कर हो जाएगा। इसलिए समय रहते इस षड्यंत्र का पर्दाफाश होना आवश्यक है। भारत के विदेश और रक्षा मंत्रालयों को कारगर समरनीति पर तुरंत विचार करना होगा। खतरे को देखकर रेत में मुंह छिपाने की नीति देश के लिए घातक सिद्ध होगी।

लेखक जवाहरलाल कौल वरिष्‍ठ पत्रकार हैं तथा जम्‍मू-कश्‍मीर अध्‍ययन केंद्र से जुड़े हुए हैं.

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