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चीन से भारत को लड़ा कर मानेंगे अमेरिकी!

पिछले महीने चीन के बड़े वरिष्ठ राजनयिक और भारत-चीन सीमा विवाद पर वार्ता के लिए नियुक्त विशेष दूत, दाइ बिंगगुवो की दिल्ली यात्रा और अगले महीने राष्ट्रपति हू चीन थाओ की प्रस्तावित यात्रा के बीच एक दिलचस्प घटना हुई है। अमेरिका की नेशनल इंटेलिजेंस के निदेशक जेम्स क्लैपर ने सीनेट के सामने बयान देते हुए कहा कि भारतीय सेना चीन के साथ बड़े युद्घ को सन्निकट तो नहीं मानती, लेकिन सीमा पर सीमित युद्घ के लिए अपनी ताकत को जरूर बढ़ा रही है। भारतीय सेना हिंद महासागर में चीन की शक्ति को भी संतुलित करना चाहती है। एक सीनेटर के सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि चीन के साथ तनाव को भारत सार्वजनिक तौर पर व्यक्त नहीं करता, लेकिन हमारा मानना है कि विवादास्पद सीमा, हिंद महासागर और एशिया-प्रशांत क्षेत्रों में चीन के आक्रामक तेवरों से उसकी चिंता बढ़ रही है। इसके साथ ही उन्होंने यह जानकारी भी सार्वजनिक की कि भारत ने एशिया में अमेरिका की उपस्थिति और पूर्वी एशिया में सशक्त अमेरिकी सैनिक तेवरों को समर्थन प्रदान किया है।

<p>पिछले महीने चीन के बड़े वरिष्ठ राजनयिक और भारत-चीन सीमा विवाद पर वार्ता के लिए नियुक्त विशेष दूत, दाइ बिंगगुवो की दिल्ली यात्रा और अगले महीने राष्ट्रपति हू चीन थाओ की प्रस्तावित यात्रा के बीच एक दिलचस्प घटना हुई है। अमेरिका की नेशनल इंटेलिजेंस के निदेशक जेम्स क्लैपर ने सीनेट के सामने बयान देते हुए कहा कि भारतीय सेना चीन के साथ बड़े युद्घ को सन्निकट तो नहीं मानती, लेकिन सीमा पर सीमित युद्घ के लिए अपनी ताकत को जरूर बढ़ा रही है। भारतीय सेना हिंद महासागर में चीन की शक्ति को भी संतुलित करना चाहती है। एक सीनेटर के सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि चीन के साथ तनाव को भारत सार्वजनिक तौर पर व्यक्त नहीं करता, लेकिन हमारा मानना है कि विवादास्पद सीमा, हिंद महासागर और एशिया-प्रशांत क्षेत्रों में चीन के आक्रामक तेवरों से उसकी चिंता बढ़ रही है। इसके साथ ही उन्होंने यह जानकारी भी सार्वजनिक की कि भारत ने एशिया में अमेरिका की उपस्थिति और पूर्वी एशिया में सशक्त अमेरिकी सैनिक तेवरों को समर्थन प्रदान किया है।

पिछले महीने चीन के बड़े वरिष्ठ राजनयिक और भारत-चीन सीमा विवाद पर वार्ता के लिए नियुक्त विशेष दूत, दाइ बिंगगुवो की दिल्ली यात्रा और अगले महीने राष्ट्रपति हू चीन थाओ की प्रस्तावित यात्रा के बीच एक दिलचस्प घटना हुई है। अमेरिका की नेशनल इंटेलिजेंस के निदेशक जेम्स क्लैपर ने सीनेट के सामने बयान देते हुए कहा कि भारतीय सेना चीन के साथ बड़े युद्घ को सन्निकट तो नहीं मानती, लेकिन सीमा पर सीमित युद्घ के लिए अपनी ताकत को जरूर बढ़ा रही है। भारतीय सेना हिंद महासागर में चीन की शक्ति को भी संतुलित करना चाहती है। एक सीनेटर के सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि चीन के साथ तनाव को भारत सार्वजनिक तौर पर व्यक्त नहीं करता, लेकिन हमारा मानना है कि विवादास्पद सीमा, हिंद महासागर और एशिया-प्रशांत क्षेत्रों में चीन के आक्रामक तेवरों से उसकी चिंता बढ़ रही है। इसके साथ ही उन्होंने यह जानकारी भी सार्वजनिक की कि भारत ने एशिया में अमेरिका की उपस्थिति और पूर्वी एशिया में सशक्त अमेरिकी सैनिक तेवरों को समर्थन प्रदान किया है।

अमेरिकी मंशा का विश्लेषण करने से पहले भारत-चीन संबंधों का परिदृश्य देखते हैं। दाइ ने दिल्ली पहुंचने से एक दिन पहले प्रकाशित अपने लेख में, सामान्य कूटनीतिक दायरे को पार करते हुए सारगर्भित संदेश दिया, हमारे भारतीय मित्र चीन के साथ मैत्री के प्रबल भाव में विश्वास कर सकते हैं। अपने विकास के लिए कवोर परिश्रम करते हुए चीन, भारत के साथ दूरगामी मैत्री और सहयोग बढ़ाने के लिए पूर्णरूपेण प्रतिबद्घ है। हमारी आशा है कि भारत समृद्घ होता रहे और यहां की जनता प्रसन्न रहे। यह कहना गलत है कि चीन, भारत पर हमले के लिए प्रयत्नशील है या भारत के विकास को अवरुद्घ करना चाहता है। शांतिपूर्ण विकास के पथ पर चलते रहने के लिए चीन की प्रतिबद्घता पहले की तरह बनी रहेगी।

अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक आचरण में शांति और मैत्री की  अभिव्यक्तियों का कभी-कभी कोई मतलब नहीं होता, इसलिए भारत भी चीन पर भरोसा क्यों करे? दाइ के दिमाग में यह बात रही होगी। उन्होंने मैत्री और शांति के इरादों के पीछे शुद्घ राष्ट्रीय कारण भी बताए, ज्ज्शांतिपूर्ण  विकास के लिए चीन की आस्था निराधार नहीं है। चीन की महान संस्कृति और परंपरा में उसकी जड़ें हैं। यह विचार कोई अचानक नहीं आया। सुधार और खुलेपन की प्रक्रिया ने इसे उत्पन्न किया है। इसे चीन की राजकीय नीति और रणनीति का दृढ़ समर्थन प्राप्त है। यह कोई अवसरवादी नीति नहीं है। शांतिपूर्ण विकास चीन की बुनियादी नीति है और वक्त के तकाजे के अनुरूप एक तर्कसंगत सामरिक नीति भी है। चीन भविष्य में जब पूरी तरह विकसित हो जाएगा, शांतिपूर्ण विकास के रास्ते पर चलते रहने की प्रतिबद्घता तब भी बनी रहेगी।

चीन अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भावुकता का प्रदर्शन नहीं करता। लेकिन दाइ ने कहा, ”हमें एक-दूसरे का अच्छा दोस्त, अच्छा पड़ोसी और अच्छा साझीदार बने रहने की हमेशा जरूरत रहेगी। जीवन के आववें दशक में होने के नाते मैं वास्तव में आशा करता हूं कि हमारे बच्चे और बच्चों के बच्चे सदैव शांति, मैत्री और सहयोग की स्थितियों में रहेंगे। भारत-चीन संबंधों को विकसित करने का यह स्वर्णिम दौर है। दुनिया में भारत और चीन के लिए बहुत जगह है। अगले महीने  दिल्ली में ब्रिक्स देशों (ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका) का सम्मेलन होने जा रहा है। चीन और भारत दुनिया में सर्वाधिक तेजी से उभर रही ताकतें हैं। ब्राजील, लैटिन अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका अफ्रीकी महाद्वीप की सबसे बड़ी ताकत हैं।”

तमाम समस्याओं के बावजूद रूस आज भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में वीटो के अधिकार से लैस देश है। सीरिया पर अमेरिकी-यूरोपीय सैनिक दबाव के बीच रूस ने भूमध्य सागर की ओर अपने जंगी जहाज भेज कर साबित किया कि उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। अपने-अपने कारणों से ये पांचों देश अमेरिका से दोस्ताना रिश्ते चाहते हैं, लेकिन उसका दुमछल्ला कोई नहीं बन सकता। ब्रिक्स का अमेरिकी आंख की किरकिरी बनना स्वाभाविक है। नाटो, विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे जिन संगवनों पर अमेरिका का वर्चस्व है, उनके अलावा उसे किसी और संगठन का वजूद अच्छा नहीं लगता। अमेरिका को यह रास नहीं आ सकता कि इन पांच देशों में, खासतौर से भारत और चीन में संबंध प्रगाढ़ बनें, क्योंकि इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका का वजन घटता है। जिन हालात में क्लैपर ने भारत-चीन सीमित युद्घ की आशंका जताई है, वे अमेरिकी इरादों को स्पष्ट कर देते हैं। उसी बैवक में उनके एक और बयान से यही सहज निष्कर्ष निकलता है कि अमेरिका इस पूरे इलाके में भ्रम और आपसी अविश्वास का माहौल बनाए रखना चाहता है। भारत-पाकिस्तान संबंधों के संदर्भ में उन्होंने कहा, ज्ज्पाकिस्तान अपने वजूद को भारत की ओर से खतरा देखता है। ऐसी संभावना नहीं  है कि भारत सैनिक या भारी (फौजी) साजोसामान अफगानिस्तान भेजेगा क्योंकि भारत, पाकिस्तान को भड़काना नहीं चाहता। इसे सामरिक कल्पना की उड़ान ही तो कहेंगे!

भारत और अफगानिस्तान के बीच पाकिस्तान है। भारत के पास हवाई मार्ग से लोग और सामान भेजने की इतनी क्षमता नहीं है कि ताजिकिस्तान के रास्ते कई डिवीजन फौज, तोपें और टैंक अफगानिस्तान में उतार दे। उसे उतारना चाहिए भी क्यों? भारत के सैन्य विशेषज्ञ बेवकूफ नहीं हैं कि जहां सोवियत संघ और अमेरिका हाथ जला चुके हों, वहां वह कूद पड़ें लेकिन क्लैपर ने भारत और चीन में संशय पैदा करने में कसर नहीं छोड़ी। उन्हें कूटनीतिक शिष्टाचार के नाते यह नहीं कहना चाहिए था कि भारत ने पूर्वी एशिया में अमेरिका के सशक्त सैनिक तेवर और एशिया में मौजूदगी को समर्थन दिया है। एशिया में चीन को बेलगाम होने से रोकने के लिए अमेरिका की उपस्थिति भारत के लिए निस्संदेह अनुकूल है मगर भारत खुल कर यह नहीं कहता। अमेरिका अपने खेमे में भारत को खींचने और भारत-चीन सहयोग की संभावनाएं क्षीण करने के उद्देश्य से नई दिल्ली की प्रच्छन्न कूटनीति को सार्वजनिक करने में संकोच नहीं करता। यह खेल कई वर्षो से चल रहा है। पोखरण बम विस्फोट के बाद उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को पत्र लिखा था कि चीन को ध्यान में रख कर यह कदम उवाया गया। इस पत्र को अविलंब लीक कर दिया गया।

साउथ ब्लॉक  से लेकर पूरे भारत में एक ताकतवर लॉबी की चले तो भारत को अमेरिका की गोद में बैवा कर ही दम ले। चीन का भय दिखाने से इन कोशिशों पर राष्ट्रहित की चिंता का मुलम्मा चढ़ जाता है। इसी लॉबी ने नेहरू को कोंच-कोंच कर ऐसे मोड़ पर पहुंचा दिया था कि 1962 का युद्घ अपरिहार्य हो गया था। युद्घ से पहले चीन अक्साई चीन के बदले अरुणाचल पर भारत की प्रभुसत्ता मानने को तैयार था। बाद में वह भी संभव नहीं रहा। तो क्या दाइ की बातों पर अक्षरश: विश्वास कर निश्चिंत होकर बैवा जाए? विश्वास के साथ ही युद्घ के लिए तैयार रहना अंतरराष्ट्रीय आचरण का दस्तूर है। भारत बस उसी दस्तूर को निभा रहा है। वर्तमान में या निकट भविष्य में भारत पर चीन के हमले की संभावना नगण्य है। दाइ की बात पर उसी हद तक यकीन किया जा सकता है। पूर्णरूपेण विकसित होने के बाद चीन क्या करेगा, यह भविष्य के गर्भ में है।

लेखक प्रदीप कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं. नवभारत टाइम्स, अमर उजाला, दैनिक भास्कर समेत कई अखबारों में संपादक रह चुके हैं. उनसे संपर्क 9810994447 के जरिए किया जा सकता है. उनका यह लिखा शुक्रवार मैग्जीन में प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है.

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