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नेपाल में बहुत कठिन है बाबूराम भट्टरई की डगर

लोकतंत्र बहाली के बाद से नेपाल में नेतृत्व शून्यता की कमी निरंतर झलक रही है। इस कमी में माओवादियों के बीच से कामरेड डॉ. बाबूराम भट्टरई एक जरूरी उम्मीद बनकर सामने आए हैं। प्रधानमंत्री भट्टरई का भारत से बेहतर रिश्ता है। इसलिए खुशी दिल्ली में भी है। बरसों की गहन नाउम्मीदी के बाद रायसीना हिल्स के साउथ ब्लॉक के कमरों में बंद रहने वाले नेपाल डेस्क के विदेशी नीति नियंताओं के चेहरे पर मुस्कान है।

<p>लोकतंत्र बहाली के बाद से नेपाल में नेतृत्व शून्यता की कमी निरंतर झलक रही है। इस कमी में माओवादियों के बीच से कामरेड डॉ. बाबूराम भट्टरई एक जरूरी उम्मीद बनकर सामने आए हैं। प्रधानमंत्री भट्टरई का भारत से बेहतर रिश्ता है। इसलिए खुशी दिल्ली में भी है। बरसों की गहन नाउम्मीदी के बाद रायसीना हिल्स के साउथ ब्लॉक के कमरों में बंद रहने वाले नेपाल डेस्क के विदेशी नीति नियंताओं के चेहरे पर मुस्कान है।

लोकतंत्र बहाली के बाद से नेपाल में नेतृत्व शून्यता की कमी निरंतर झलक रही है। इस कमी में माओवादियों के बीच से कामरेड डॉ. बाबूराम भट्टरई एक जरूरी उम्मीद बनकर सामने आए हैं। प्रधानमंत्री भट्टरई का भारत से बेहतर रिश्ता है। इसलिए खुशी दिल्ली में भी है। बरसों की गहन नाउम्मीदी के बाद रायसीना हिल्स के साउथ ब्लॉक के कमरों में बंद रहने वाले नेपाल डेस्क के विदेशी नीति नियंताओं के चेहरे पर मुस्कान है।

यह खुशी काठमांडू में भारत के नए राजदूत जयंत प्रसाद के घर में भी देखी सुनी जा रही है। खुशी इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि पारस्परिक नजदीकी सांस्कृतिक और समाजिक संबंध वाले पड़ोसी देश नेपाल में लगातार मिल रही कूटनीतिक विफलता ने दिल्ली पर सफलता के लिए जबदस्त दबाव बढा दिया था। यह सफलता राजदूत जयंत प्रसाद के पदभार ग्रहण करने के पांचवें दिन ही आई है।

नेपाल की भौगोलिक स्थिति है कि यह नवोदित महाशक्ति चीन और भारत के बीच फ्रूट जैम या पेस्ट की तरह मौजूद है। दिल्ली हमेशा से महसूस करता रहा है कि देश उत्तरी सीमा की सुरक्षा के लिए रोटी-बेटी के रिश्ते से पूरी तरह जुडे नेपाल का भारत उन्मुख रहना जरूरी है। नेपाल और चीन के बीच सीमा के तौर पर हिमालय के दुर्गम पर्वत हैं। हिमालय की ऊंचाई से पार पाकर ही चीन और नेपाल के सीधे संबंध कायम हो सकते हैं । इसलिए भी नेपाल के लिए भारत का महत्व है। फिर भी नेपाल में चीन की सक्रियता ने पिछले कुछ बरसों से भारत को बुरी तरह से पानी पिला रखा है।

ऐसे में दिल्ली के जेएनयू से डाक्टरेट की पढाई करने वाले और मार्डन सिटी चंडीगढ में समय बीता चुके कामरेड बाबूराम भट्टरई के नेपाल के प्रधानमंत्री बन जाने से तात्कालिक राहत महसूस किया जा रहा है। नाजुक हालत को इस पृष्ठभूमि में बेहतर समझा जा सकता है कि देश के राजनीतिक हालत से परेशान होकर नेपाल के राजा सर्मथकों ने दिल्ली में डेरा डाल लिया था। साउथ ब्लॉक को समझाने की प्रक्रिया तेज थी कि नेपाल को सम्हालने के लिए अब राजशाही के पुनर्वापसी की पहल जरूरी है। लेकिन भारत के लिए नेपाल में लोकतंत्र बहाली के खास आग्रह के आगे सदा की तरह एकबार फिर राजशाही की बात अपच हो गई।

फिलहाल तीन महीने के लिए सही भट्टरई का प्रधानमंत्री बनना थका देने वाली प्रक्रिया के उम्मीद भरे मकाम पर पहुंचने की दिलचस्प कहानी है। एक तरफ भट्टरई ‘काल के गाल’ में रहकर यानी घोर महत्वाकांक्षी कामरेड प्रचंड की पार्टी में रहकर खुद के लिए कारगर समर्थन जुटाने की अथक मेहनत करते रहे। हालात से थक हारकर प्रचंड तैयार हुए तो दूसरी तरफ मधेशी दलों के बिखरे नेताओं को डॉ. भट्टरई के समर्थन में गोलबंद कर लिया गया। हां, भट्टरई सरकार बनाने की पूरी प्रक्रिया में नेपाली कांग्रेस और यूएमएल के नेताओं से किनाराकशी एक मुश्किल भरी दास्तान बनकर सामने आई। अब मुश्किल का हल करने के लिए प्रधानमंत्री भट्टरई ने नेपाल में राष्ट्रीय सहमति की सरकार बनाने के लिए पहल करने की बात कही है। इससे नेपाल के निर्माण में सभी दलों के नेताओं के शामिल होने की महत्वाकांक्षा जगी है।

राजशाही खत्म होने के बाद से नेपाल अस्थिर है। गणतंत्र बने तीन साल बीत गए पर लोकतंत्र कायम करने का काम अधूरा है। संविधान निर्माण की प्रक्रिया अधूरी है। नेपाल की संविधान सभा के सदस्यों का निर्वाचन दो साल में देश का नया संविधान बनाने के लिए हुआ था। लेकिन साल भर की देरी के बाद भी संविधान नहीं बना है। दो साल के लिए चुने गए प्रतिनिधि संविधान सभा के विस्तार के लिए फिर से जनता के बीच जाने के बजाय सभासद आपस में ही मिल बैठकर सभा के कार्यकाल का विस्तार कर ले रहे हैं। मजबूर सुप्रीम कोर्ट से विस्तार पर सहमति का ठप्पा लगवाकर वैधता हासिल कर लिया जा रहा है। निराश आम जनता ठगी सी महसूस कर रही है और संविधानसभा के कार्यकाल विस्तारित करने का काम अनंतकाल तक चलने वाली प्रक्रिया में तब्दील हो गया है।

गौरतलब है कि राजशाही के खात्मे के बाद चुनाव के लिए तय विधान के मुताबिक चयनित सभासदों को दो साल में नया संविधान तैयार कर लेना था। फिर गणतांत्रिक संविधान के मुताबिक नेपाल में नया चुनाव होना था। नई विधायिका बननी थी। लेकिन तीन साल के विलंब के बाद भी यह काम निष्ठापूर्वक शुरू नहीं हो पाया है। सभासद संविधान बनाने में लगने के बजाय सरकार चला रहे हैं।

नेपाल की राजनीति में अविश्वास का बेमिसाल माहौल है। इसी अविश्वास की वजह से नित नए प्रधानमंत्री चुने जा रहे हैं। चेयर रेस की तर्ज पर मंत्री बदले जा रहे हैं। महज तीन साल की उम्र वाली संविधान सभा ने स्व.गिरिजा प्रसाद कोईराला से प्रधानमंत्री बदलने का जो काम शुरू किया वह पुष्पदहल कमल ‘प्रचंड’, माधवकुमार नेपाल और झलनाथ खनाल से होता हुआ अब पांचवें प्रधानमंत्री के तौर पर डॉ. बाबूराम भट्टरई पर आकर ठहरा है।

कूटनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि संयुक्त नेपाल काम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) के अध्यक्ष पुष्पदहल कमल प्रचंड का मन और मिजाज साफ होता तो माओवादियों में अंदरूनी कलह हावी नहीं होती। भट्टरई ढाई साल पहले ही प्रधानमंत्री बन गए होते। जनयुद्ध की अपेक्षा के अनुरूप माओवादी नेता प्रचंड नेपाल की पहली जनतांत्रिक सरकार नहीं चला पाए। घबराकर उन्होने सेना अध्यक्ष से एक छोटे विवाद के बहाने इस्तीफा दे दिया। साथ ही पिछले दरवाजे से प्रचंड ने संसद में तीसरी बडी पार्टी यूएमएल के नेता कामरेड माधव नेपाल को प्रधानमंत्री बनाने का पासा चल दिया। कूटनीतिज्ञ माधवकुमार नेपाल के सामने आते ही प्रधानमंत्री की वैकेंसी खत्म हो गई। माधव नेपाल तमाम हो हंगामे के बावजूद दो साल तक अल्प बहुमत की सरकार चला ले गए। इससे अंदरूनी तौर पर प्रचंड के प्रतिस्पर्धी बाबूराम भट्टरई के प्रधानमंत्री बनने की संभावना धूमिल रही।

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इतना ही नहीं सबसे बडे नेता कामरेड प्रचंड के काबू से माओवादी विरोध बाहर चला गया तो प्रचंड ने प्रधानमंत्री माधवकुमार नेपाल की पार्टी एमाले में फूट दिलवा दी। माधव नेपाल की पार्टी के अध्यक्ष झलनाथ खनाल में प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद्वार जगा दी। बुजुर्ग खनाल प्रधानमंत्री के उम्मीद्वार के तौर पर सामने आ गए तो माओवादियों को सरकार में महत्वपूर्ण विभाग दिलवा दिया गया। लेकिन मधेशवादी दलों ने नेपाली कांग्रेस के साथ मिलकर खनाल सरकार के खिलाफ संशय का माहौल पैदा कर दिया। अध्यक्ष खनाल की पार्टी में ही सरकार की खिलाफत होने लगी। नतीजतन खनाल को माओवादी प्रधानमंत्री बन जाने की सीढी बनने का श्रेय लेकर संतोष करना पडा। कामरेड खनाल के इस्तीफे ने डॉ. भट्टरई के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता खोला है।

राजनीतिक विश्वास की कमी की वजह से डॉ. भट्टरई की चुनौती विकराल है। प्रधानमंत्री के तौर पर भट्टरई को काम के लिए महज नब्बे दिन का सीमित वक्त मिला है। संविधान सभा का विस्तारित मौजूदा कार्यकाल 30 नवंबर को पूरा हो रहा है। इस दौरान प्रधानमंत्री भट्टरई को संविधान बनाने के काम को सहजता से अंजाम तक पहुंचाना है। शांत,समझदार और व्यवहार कुशल कामरेड भट्टरई इस चुनौती को बेहतर समझते हैं इसलिए तो प्रधानमंत्री बनने के साथ ही राष्ट्रीय सहमति की सरकार बनाने का राग छेड़ दिया है।

इनके राजनीतिक कौशल का आलम है कि पार्टी के अंदरूनी जंग में बडी उस्तादी से दाएं बाएं छकाते हुए प्रचंड से आगे निकल आए हैं। नेपाल की राजनीति की समझ रखने वालों के लिए पुष्पदहल कमल के अध्यक्ष रहते हुए उपाध्यक्ष बाबूराम भट्टरई का नाम प्रधानमंत्री के तौर पर आगे आना किसी चमत्कार से कम नहीं है। मतलब साफ है कि विनम्र राजनीति के उस्ताद भट्टरई को नब्बे दिनों के सीमित वक्त में कुछ ऐसा कर दिखाना है कि अगर राष्ट्रीय सहमति की सरकार बनती है तो भट्टरई को ही उसके अगुआ के तौर पर चयनित किया जाए।

सरकार बनाने, प्रधानमंत्री बनने और प्रधानमंत्री गिराने के जटिल राजनीतिक प्रक्रिया के बीच आम नेपालियों की शिकायत है कि उनको  हजार दिनों के बाद भी पता नहीं चल पाया है कि राजशाही से गणतंत्र कैसे अच्छा है ? हालात में फर्क बस इतना आया है कि आम नेपालियों की नजर में राजनीति एक चोखा पर धोखे का धंधा बन गया है। लगातार प्रधानमंत्री चुनने में व्यस्त राजनेता चमचमाती गाडियों में शान से घूम रहे हैं। आम जनता गरीबी और जहालत का सामना करती हुई बेचैन है। आर्थिक तरक्की के मापदंडों का जिक्र करें तो नेपाल की हालात बदतर होती जा रही है। नेपाल की विस्तृत अंतर्राष्ट्रीय सीमा से लगा भारतीय राज्य बिहार की सड़कें चमचमा रही हैं। राज्य के किसानों की आर्थिक स्थिति में बदलाव आ रहा है। खेती की दशा बेहतर होती जा रही,तो सीमावर्ती किसान और मजदूरों में काठमांडू में सक्रिय राजनेताओं के प्रति रोष बढता जा रहा है। नेपाल के प्रति व्यक्ति आय घटकर न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है। हाल के बरसों में भूटान में हुए जरूरी सुधार के बाद से अब नेपाल दक्षिण एशिया के सबसे पिछडा मुल्क करार दिया गया है। रोष है कि बदतर हालत के बीच नया संविधान बनाने के लिए चुनकर भेजे गए सभासदों का ज्यादातर वक्त प्रधानमंत्री चुनने और चुने प्रधानमंत्री को हटाने में बीत रहा है।

नए प्रधानमंत्री के तौर पर बाबूराम भट्टरई के सामने सरकार को काठमांडू के दायरे से बाहर निकालकर आम लोगों को गणतांत्रिक सरकार के गठन का आभास देने और संविधान बनाने का काम पूरा करने तो है ही साथ में स्थायी शांति बहाली के लिए कंटोलमेंट में रह रहे माओवादी लडाकूओं के समायोजन की समस्या सूरसा की तरह मुंह बाए खडी है। लेकिन भट्टरई से उम्मीद इसलिए भी बडी है कि वो आमसहमति की राजनीति के पक्षकार हैं। तथ्य है कि प्रचंड के नेतृत्व में जनयुद्ध में लगी नेपाल काम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) ने 2005 में राजशाही से हाथ मिलाकर व्यवस्था परिवर्तन की पहल की थी,तो पार्टी के अंदर बाबूराम भट्टरई ने खिलाफत कर दी। भट्टरई बाकी राजनीतिक पार्टियों को विश्वास में लेकर राजशाही को उखाड फेंकने के पक्ष में थे। बाद में यहीं हुआ पर तब पार्टी के अंदर डॉ भट्टरई और उनके समर्थकों को विशेष श्रम की सजा झेलनी पडी थी। मतलब भट्टरई उनलोगों में से हैं जो कठिन सजा भुगतकर भी समस्या के राजनीति समाधान के पक्ष में होते हैं।

प्रधानमंत्री के तौर पर यूनाइटेड नेपाल काम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) के उपाध्यक्ष बाबूराम भट्टरई की सफलता पार्टी के अंदरूनी राजनीति के लिए भी जरूरी है। पार्टी के अंदर प्रतिद्वंदी धारा के मोहन वैद्य किरण जैसे कामरेड को बस इसी इंतजार में हैं कि भट्टरई कोई भूल करें और दलगत राजनीति में उनका हिसाब किया जाए। जाहिर तौर पर प्रचंड भी अपनी नंबर एक की धाक को बचाए रखने के लिए पार्टी में नंबर दो के भट्टरई की सफलता को एक सीमा तक ही बर्दाश्त कर पाएंगें। अंदरूनी राजनीति के अलावा भट्टरई को ताक में बैठे नेपाली कांग्रेस के घाघ नेताओं और यूएमएल के राजनीतिज्ञ काम्युनिष्टों से भी पार पाना है। इतिहास में पहली बार है कि गणतांत्रिक राजनीति में नेपाली कांग्रेस और यूएमएल के बिना कोई सरकार बनी है। राजशाही के दौरान भी इन दो दलों में से किसी न किसी को साथ लेकर लोकतांत्रिक सरकार बनाने और चलाने का ढकोसला किया जाता रहा।

भट्टरई की सरकार के लिए राजशाही के खिलाफ छेडे गए जनवादी युद्ध के माओवादी लडाकूओं की पहचान और उनको व्यवस्था में समायोजित कर मुल्क के लिए काम लेना आसान नहीं है। ये सब तीन साल से कंटोलमेंट में रहकर शांति समर्थक नेताओं से उम्मीद की बाट जोह रहे है। ऐसा नहीं है कि डॉ. भट्टरई से उम्मीद सिर्फ समर्पण कर सरकारी कंटोलमेंट में रहने वाले माओवादी लडाकूओं को है बल्कि आम नागरिकों को माओवादियों की शिकायत से न्याय मिलने का इंतजार है। शिकायत से न्याय की उम्मीद तब और बढ जाती है जब एक ऐसे माओवादी कामरेड के हाथ देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी थमा दी गई है जो लगातार राजनीतिक समाधान की पैरवी करता रहा है।

नेपाल के आम नागरिक की शिकायत है कि लडाकूओं ने जनयुद्ध के नाम पर लोगों की संपदा और जमीनें हडप रखी है। सरकार के प्रति भरोसा जगाने के लिए बार बार कहा जा रहा है कि अराजक तरीके से हडपी गई संपदा को वापस लौटाए जाएगा। इससे संविधान सभा से चुनी गई सरकार और प्रधानमंत्री के प्रति आम लोगों में विश्वास बहाल हो सकता है। जनवादी लडाकू और आम जनता, दोनों पक्षों को साधे बगैर नेपाल में स्थायी शांति बहाली की उम्मीद धुंधली है।

व्यवस्था में समावेशित होने के लिए तैयार पूर्व लडाकूओं की संख्या 19 हजार बताई जा रही है। यह सरकार की संचालित शिविरों से रह रहे हैं। पेंशन-भत्ता पा रहे हैं। फिर भी तीन सालों में इनकी विस्तृत पहचान का काम नहीं हो पाया है। ऐसे में सरकार के खिलाफ खडी नेपाली कांग्रेस की तेज होती मांग जायज है कि राजशाही के खिलाफ सिर्फ माओवादियों ने ही लडाई नहीं लडी। नेपाली कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों के लोग भी खिलाफत की वजह से राजशाही के दमन चक्र का शिकार हुए। शहीद हुए हैं। जेल गए हैं। उन सबकी पहचान होनी चाहिए। अगर सशस्त्र लडाकूओं को स्वतंत्रता सेनानी बनाकर व्यवस्था में समावेशित करने की बात हो रही है तो गांव-देहात और शहरों में रहकर आलोक कुमारराजशाही के खिलाफ लडने वाले अन्य राजनीतिक दलों के शहीद सदस्यों के परिजनों की भी सुध ली जानी चाहिए।

लेखक आलोक कुमार करीब दो दशक से मीडिया में सक्रिय हैं. विभिन्न न्यूज चैनलों, अखबारों, मैग्जीनों में वरिष्ठ पदों पर कार्यरत रहे. वे काठमांडू में नेपाल वन टीवी के मैनेजिंग एडिटर भी रहे हैं.

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