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भयानक अवसरवादी नेता हैं लालकृष्ण आडवाणी

वैसे एलके आडवाणी को अवसरवादी कहने वालों की कमी नहीं है। कुछ उदाहरण देकर बताया जाता है कि वे भारी अवसरवादी है। आडवाणी सत्‍ता हासिल करने के लिए भी कुछ कर सकते हैं। अपनी जान बचाने के लिए भी कुछ भी कर सकते हैं। उनके शुरुआती जीवन का उदाहरण देकर उनके विरोधी बताते है कि विभाजन के दौरान कराची में एक बम बलास्ट में आडवाणी का नाम आया और वे ट्रायल फेस करने के बजाए पाकिस्तान छोड़कर भारत भाग आए। हालांकि इसमें कितनी सच्चाई है, यह तो आप कह नहीं सकते है। लेकिन अस्सी साल की उम्र बीत जाने के बाद भी सता हासिल करने के लिए जो लोलुपता आडवाणी ने दिखायी है, उससे साबित होता है कि वे भारी अवसरवादी है।

<p>वैसे एलके आडवाणी को अवसरवादी कहने वालों की कमी नहीं है। कुछ उदाहरण देकर बताया जाता है कि वे भारी अवसरवादी है। आडवाणी सत्‍ता हासिल करने के लिए भी कुछ कर सकते हैं। अपनी जान बचाने के लिए भी कुछ भी कर सकते हैं। उनके शुरुआती जीवन का उदाहरण देकर उनके विरोधी बताते है कि विभाजन के दौरान कराची में एक बम बलास्ट में आडवाणी का नाम आया और वे ट्रायल फेस करने के बजाए पाकिस्तान छोड़कर भारत भाग आए। हालांकि इसमें कितनी सच्चाई है, यह तो आप कह नहीं सकते है। लेकिन अस्सी साल की उम्र बीत जाने के बाद भी सता हासिल करने के लिए जो लोलुपता आडवाणी ने दिखायी है, उससे साबित होता है कि वे भारी अवसरवादी है।

वैसे एलके आडवाणी को अवसरवादी कहने वालों की कमी नहीं है। कुछ उदाहरण देकर बताया जाता है कि वे भारी अवसरवादी है। आडवाणी सत्‍ता हासिल करने के लिए भी कुछ कर सकते हैं। अपनी जान बचाने के लिए भी कुछ भी कर सकते हैं। उनके शुरुआती जीवन का उदाहरण देकर उनके विरोधी बताते है कि विभाजन के दौरान कराची में एक बम बलास्ट में आडवाणी का नाम आया और वे ट्रायल फेस करने के बजाए पाकिस्तान छोड़कर भारत भाग आए। हालांकि इसमें कितनी सच्चाई है, यह तो आप कह नहीं सकते है। लेकिन अस्सी साल की उम्र बीत जाने के बाद भी सता हासिल करने के लिए जो लोलुपता आडवाणी ने दिखायी है, उससे साबित होता है कि वे भारी अवसरवादी है।

यह एक विडंबना ही है कि संघ का यह सदस्य सत्‍ता हासिल करने के लिए सोशलिस्ट जेपी और कम्युनल जिन्ना का सहारा ले सकता है। अपने से वल्लभ भाई पटेल की तुलना करने वाला यह शख्श मौलाना मसूद अजहर जैसे आतंकी को कांधार तक छुड़वा सकता है तो कभी सता के लिए सिंधी प्रेम तो कभी सता के लिए बिहारी प्रेम भी दिखा सकता है। आडवाणी का यही अवसरवाद कमजोर होती कांग्रेस को उतारने में बाधा है। आडवाणी का अवसरवादी व्यक्तित्व देखें। शुरुआती जीवन संघ के साथ बीता और संघ की सेवा कर उप प्रधानमंत्री पद पर आसीन हो गए। लेकिन बीच-बीच में अपने को बाकी भाजपा नेताओं से अलग दिखाने के लिए कांग्रेस के बड़े नेताओं से अपनी तुलना करत रहे। सरदार वल्लभ भाई पटेल राष्ट्रवादी थे, हिंदूवादी नहीं। वे कांग्रेस के दक्षिणपंथी चेहरा थे, कट्टर हिंदू नहीं। लेकिन अपने आप को महान बताने और भाजपा के अन्य नेताओं से अलग दिखने के लिए किसी टाइम आडवाणी ने अपनी तुलना पटेल से करनी शुरू कर दी।

सुनोयोजित तरीके से मीडिया के कुछ चाटुकारों और चमचों के माध्यम से उन्होंने अपने आप को पटेल के तौर पर प्रोजेकट करना शुरू कर दिया। यह वो टाइम था जब भाजपा उभार पर थी, पर अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व के सामने उनका व्यक्तित्व छोटा पड़ता था, इसलिए अटल से अलग दिखने के लिए उन्होंने वही कुछ फोटो स्टेट के तौर पर दिखाने की कोशिश की जो जवाहर लाल नेहरू और पटेल के बीच था। यह एक चालाकी भरा कदम था। लेकिन आडवाणी की यह सारे पटेलियत उस समय फुस्स हो गई जब तीन खूंखार आंतकियों को लेकर जसवंत सिंह कांधार पहुंचे, जिसमें मौलाना मसूद अजहर जैसे खतरनाक देवबंदी आतंकी शामिल था। उस समय देश के गृह मंत्री आडवाणी थे। एक पटेल थे जिन्होंने जूनागढ़ और हैदराबाद की रिसायत का भारत में विलय कराया और एक आडवाणी थे जिनके निर्देशों पर तीन आतंकियों को हवाई जहाज में ले जाकर कांधार छोड़ा गया।

अपने आप को देश के नेताओं से ज्यादा महान साबित करने के लिए एलके आडवाणी ने एक और अवसरवादी चेहरा दिखाया। पाकिस्तान पहुंचे और मोहम्मद अली जिन्ना को सेक्यूलर कह डाला। भारत के सारे इतिहास लेखकों को झूठ ठहराते हुए जिन्ना को सेक्यूलर कह आडवाणी ने फिर अलग दिखने की कोशिश की। यह भी एक अवसरवादी चरित्र था जिसमें पाकिस्‍तान से ज्यादा भारतीय मुसलमानों को प्रभावित करने की ख्वाहिश थी, जिनके नेता कभी जिन्ना नहीं है। जिन्ना गुजराती एलिट मुसलमान थे, जो आम मुसलमानों से हाथ मिलाने से भी परहेज करते थे। उनकी दूरी पिछड़े मुसलमानों से ठीक वैसे ही थी जैसे अगड़े हिंदुओं की दलितों के साथ रही है। जिन्ना का जमींदारी चरित्र ने पाकिस्तान में लोकतंत्र डेवलप नहीं होने दिया और आजतक वहां जमींदारी चरित्र ही राज कर रहे है। आडवाणी पर अवसरवाद इतना हावी था कि समर्थकों के कहने पर भारतीय मुसलमानों को लुभाने के लिए जिन्ना को सेक्यूलर कह बैठे। आडवाणी को कम से कम यह तो मालूम होना था कि जिन्ना भारतीय मुसलमान तो क्या, पाकिस्तानी मुसलमानों में भी लोकप्रिय नहीं रहे है और उनकी हालत भी ठीक महात्मा गांधी की तरह हो गई। जिन्ना पाकिस्तान के सरकारी कार्यालयों और पाकिस्तानी रुपयों में फोटो के तौर पर ही सीमित हो गए।

अभी तक सारे रथयात्राओं के दौरान आडवाणी को पटेल याद आए। सोमनाथ से यात्रा शुरू करने के पीछे यही तर्क होता था। लेकिन आज एकाएक उन्हें जेपी याद आ गए जिनकी कांग्रेस की राजनीति में पटेल से कभी नहीं बनी। पटेल हमेशा कांग्रेस के दक्षिणपंथी राजनीति के प्रमुख थे तो जेपी वामपंथी राजनीति के प्रमुख थे। दोनों में कांग्रेस के अंदर विचारधारा की लड़ाई थी। लेकिन यह आडवाणी जी जैसे ही नेता है जो सत्‍ता हासिल करने के लिए दोनों नेताओं की विचारधाराओं को अवसर के हिसाब से अपना सकते है। आज आडवाणी को जेपी याद आ गए। व्यवस्था परिवर्तन की बात अब आडवाणी करने लगे है। जेपी कांग्रेस में आजादी के दौरान एक्टिव रोल कर रहे थे और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया। आजादी के बाद संपूर्ण क्रांति की बात की। लेकिन आडवाणी को संपूर्ण क्रांति और व्यवस्था परिवर्तन का दो मौका मिला। 77 में भी वे मंत्री थे और 1999 में तो वाजपेयी सरकार में गृह मंत्री बन बैठे। लेकिन व्यवस्था परिवर्तन की बात तो छोड़े वही दलाल चरित्र के लोग सरकार चलाने लगे जो कांग्रेस के समय में हावी थे। रातों-रात चने और गुड़ खाकर प्रचार करने वाले संघ और भाजपा के नेता करोड़पति हो गए और एयरकंडिशन महंगी गाड़ियों में घूमने लगे। चारित्रिक पतन अलग नजर आने लगा। तो क्या इनसे व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद जनता करे।

आडवाणी का चरित्र देखें। सता हासिल करने के लिए कभी दक्षिणपंथी नेता पटेल के प्रिय शहर सोमनाथ से रथयात्रा की शुरुआत करते है तो कभी कांग्रेस में वाम ग्रुप के नेता रहे जेपी के जन्म स्थान से रथयात्रा की शुरूआत करते है। अब तक कई रथयात्रा निकाल चुके आडवाणी की रथयात्रा के प्रति लोगों में कोई दिलचस्पी नहीं है। ये वही आडवाणी है जो राम मंदिर के लिए रथयात्रा पर निकले। पर जब बाबरी मस्जिद केस में इनका नाम आया तो आडवाणी झूठ बोलने लगे। कहने लगे कि मस्जिद गिराने में उन की कोई भूमिका नहीं थी। कराची बम विस्फोट की घटना से लेकर बाबरी मस्जिद तक की घटना ने यह दिखाया कि आडवाणी कायर और डरपोक भी हैं। वे अपनी जान बचाने के लिए झूठ बोलने में माहिर हैं। आडवाणी जैसे डरपोक व्यक्ति से आप व्यवस्था में परविर्तन की क्या उम्मीद कर सकते हैं। चाहे विचारधारा से दक्षिणपंथी हो या वामपंथी स्टैंड पर तो कायम रहना चाहिए? कम से कम पटेल और जेपी ने अपने जीवन में यह दिखाया। फिर रथयात्रा में आडवाणी के परिवार का क्या काम है? उनकी हर रथयात्रा में उनकी बेटी उनके साथ होती है। क्या यह उसी कांग्रेसी परिवारवाद का प्रतीक नहीं है जिसे लेकर भाजपा टन-टन की गालियां कांग्रेस को देते है? जेपी और पटेल ने तो अपने परिवार के किसी सदस्य को स्थापित करने की कोशिश नहीं की। क्योंकि जेपी और पटेल वाकई में व्यवस्था परिवर्तन के प्रतीक थे। लेकिन आज एलके आडवाणी की बेटी हर जगह दिखती है, मानो लगता है कि आडवाणी उन्हें स्थापित करने के लिए रथयात्रा निकाल रहे हों।

आडवाणी से एक अहम सवाल है। भ्रष्टाचार और व्यवस्था परिवर्तन में उनके सिपाही कौन हैं? अनंत कुमार संयोजक है, भ्रष्टाचार विरोधी रथयात्रा के, जो 2जी स्पेक्ट्रम की नीरा राडिया की लॉबीइंग करते रहे। नीरा राडिया का पहला बिजनेस अनंत कुमार की दया से ही भारत में शुरू हुआ। उनके सिपाही यदुरप्पा, रमण सिंह और अर्जुन मुंडा जैसे लोग हैं। ये अपने राज्यों में क्या गुल खिला रहे हैं, यह तो देश की जनता जानती है। शीबू सोरेन से जैसे व्यक्ति से समझौता कर सरकार चलाने वाले लोग इस देश में कैसे व्यवस्था परिवर्तन करेंगे? संघ के बड़े-बड़े पदाधिकारी जो भूखे नंगे आज से पच्चीस साल पहले नजर आते थे, आज अरबपति-करोड़पति बन गए। यह अहम सवाल है कि उनके पास नोट तोड़ने के पेड़ कहां से आए? अगर यही लोग व्यवस्था परिवर्तन करेंगे तो देश में कांग्रेसी भ्रष्टाचार से मुक्ति संभव नहीं है।

लेखक संजीव पांडेय पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं.

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