नीमच। देश के श्रमिक संगठनों की हड़ताल में इस बार जिस प्रकार से मजदूरों ने पूरे आयोजन में भागीदारी की उस भागीदारी ने यह जाहिर कर दिया कि निजी और शासकीय क्षेत्र के उद्योगों और कार्यालयों में होने वाले शोषण के अब बर्दाश्त की सीमा अब समाप्त हो गई है। शासकीय नीतियों के खिलाफ भी जब श्रमिक मुखर हुए तो सरकार की पेशानी पर भी बल पड़ गए। पूरे देश में मजदूर संगठनों ने 28 फरवरी को रैलियां निकालकर ज्ञापन सौंपे गए और इस महाहड़ताल में देश भर में लगभग 20 करोड़ श्रमिकों ने शामिल होकर इतिहास रच दिया है।
इस बारे में जानकारी देते हुए सीटू के मप्र इकाई सचिव कामरेड शैलेंद्र सिंह ठाकुर ने बताया कि आर्थिक उदारीकरण नीतियों के देश में आने के बाद देश में भ्रष्टाचार और बेरोजगारी बराबर अनुपात में बढ़े हैं। श्रम की लगातार गिरती कीमत ने मेहनतकश वर्ग के लोगों को इन नीतियों के खिलाफ खडे़ होने के लिए मजबूर किया है। श्री ठाकुर ने बताया कि हर साल देश के विभिन्न कॉलेजों से लाखों इंजीनियर एवं स्नातक निकल रहे हैं, लेकिन इसके विपरित बंद होते कारखानों व सरकार की हायर एंड फायर की नीति ने इस युवा पीढ़ी का भविष्य गर्त में डाल दिया है। उन्होंने बताया कि हर क्षेत्र में ठेकेदारी प्रथा, संविदाकरण और आउटसोर्सिंग के कारण पर्याप्त वेतन न मिल पाने और सामाजिक सुरक्षा से वंचित होने के कारण ही मजदूरों का गुस्सा देशभर में सड़कों पर फूटा है। मजदूरों से 12 घंटे काम लिया जा रहा है और वेतन के मामले में उनकी सुनने वाला कोई नहीं है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रिंट मीडिया एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से इस विषय को लेकर जो अपेक्षा थी वह कहीं भी नजर नहीं आई है। न्यू मीडिया ने इसमें कुछ समर्थन दिया है। हड़ताल के दौरान अंसगठित क्षेत्र के 35 करोड़ से अधिक मजदूरों ने 10 हजार रुपए प्रति माह न्यूनतम वेतन की मांग रखी, लेकिन अपवाद को छोड़ दें तो अधिकांश प्रिंट मीडिया ने इस प्रमुख मांग को अपने अखबार में स्थान ही नहीं दिया। आजादी के बाद देश में इतिहास में यह सबसे बड़ी हड़ताल थी। जिसमें 18 से 20 करोड़ मजदूर कर्मचारियों ने भाग लिया। केंद्र और राज्य सरकार के लिए यह चेतावनी है कि आवाज-ए-खल्क को नक्कार-ए-खुदा समझो, नहीं तो फिर तख्त गिराए जाएंगे और ताज उछाले जाएंगे।