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30 मई को अपने मालिकों के शोषण का विरोध करें

अगर सही में पत्रकार हित की बात कर रहे हैं, सबसे पहले अख़बार मालिकों के खिलाफ लड़िये। इस लड़ाई के बिना पत्रकारों के लिए कुछ भी हासिल नहीं कर सकते। चाहे बीमा का मामला हो या अधिमान्यता का या फिर किसी भी प्रकार की सुविधा का पत्रकार जब तक अपने आप को कर्मचारी नहीं साबित करता तब तक सब कुछ बेकार है। तरह तरह के वेतनमान, तरह तरह की अनुशंसाओं को अखबार मालिकों ने कचरे के डब्बे में डाल दिया है। श्रमजीवी पत्रकारों को मिलने वाला फायदा भी यही मालिक ही उठा रहे है। एक नंबर की लड़ाई की प्रतिस्पर्धा में शामिल पत्रिका, भास्कर, हरिभूमि, नवभारत में ही पूरे प्रदेश में सम्पादकीय व फील्ड मिलाकर एक हजार से ज्यादा पत्रकार बिना नियुक्ति पत्र के दिहाड़ी मजदूर से बुरी स्थिति में काम कर रहे हैं। हाकर की स्थिति तो अब सुधर जाएगी, क्‍योंकि सरकार ने उन्हें भी असंघठित मजदूर मान कर स्मार्ट कार्ड देने का निर्णय कर लिया है, पर दुर्भाग्य तो उन पत्रकारों का है, जो जान जोखिम में डाल कर इन अख़बारों का सर्कुलेशन और चैनलों की टीआरपी बढ़ाने का काम करते हैं।

<p style="text-align: left;">अगर सही में पत्रकार हित की बात कर रहे हैं, सबसे पहले अख़बार मालिकों के खिलाफ लड़िये। इस लड़ाई के बिना पत्रकारों के लिए कुछ भी हासिल नहीं कर सकते। चाहे बीमा का मामला हो या अधिमान्यता का या फिर किसी भी प्रकार की सुविधा का पत्रकार जब तक अपने आप को कर्मचारी नहीं साबित करता तब तक सब कुछ बेकार है। तरह तरह के वेतनमान, तरह तरह की अनुशंसाओं को अखबार मालिकों ने कचरे के डब्बे में डाल दिया है। श्रमजीवी पत्रकारों को मिलने वाला फायदा भी यही मालिक ही उठा रहे है। एक नंबर की लड़ाई की प्रतिस्पर्धा में शामिल पत्रिका, भास्कर, हरिभूमि, नवभारत में ही पूरे प्रदेश में सम्पादकीय व फील्ड मिलाकर एक हजार से ज्यादा पत्रकार बिना नियुक्ति पत्र के दिहाड़ी मजदूर से बुरी स्थिति में काम कर रहे हैं। हाकर की स्थिति तो अब सुधर जाएगी, क्‍योंकि सरकार ने उन्हें भी असंघठित मजदूर मान कर स्मार्ट कार्ड देने का निर्णय कर लिया है, पर दुर्भाग्य तो उन पत्रकारों का है, जो जान जोखिम में डाल कर इन अख़बारों का सर्कुलेशन और चैनलों की टीआरपी बढ़ाने का काम करते हैं।

अगर सही में पत्रकार हित की बात कर रहे हैं, सबसे पहले अख़बार मालिकों के खिलाफ लड़िये। इस लड़ाई के बिना पत्रकारों के लिए कुछ भी हासिल नहीं कर सकते। चाहे बीमा का मामला हो या अधिमान्यता का या फिर किसी भी प्रकार की सुविधा का पत्रकार जब तक अपने आप को कर्मचारी नहीं साबित करता तब तक सब कुछ बेकार है। तरह तरह के वेतनमान, तरह तरह की अनुशंसाओं को अखबार मालिकों ने कचरे के डब्बे में डाल दिया है। श्रमजीवी पत्रकारों को मिलने वाला फायदा भी यही मालिक ही उठा रहे है। एक नंबर की लड़ाई की प्रतिस्पर्धा में शामिल पत्रिका, भास्कर, हरिभूमि, नवभारत में ही पूरे प्रदेश में सम्पादकीय व फील्ड मिलाकर एक हजार से ज्यादा पत्रकार बिना नियुक्ति पत्र के दिहाड़ी मजदूर से बुरी स्थिति में काम कर रहे हैं। हाकर की स्थिति तो अब सुधर जाएगी, क्‍योंकि सरकार ने उन्हें भी असंघठित मजदूर मान कर स्मार्ट कार्ड देने का निर्णय कर लिया है, पर दुर्भाग्य तो उन पत्रकारों का है, जो जान जोखिम में डाल कर इन अख़बारों का सर्कुलेशन और चैनलों की टीआरपी बढ़ाने का काम करते हैं।

सारे खतरे पत्रकार के हिस्से!! फायदा पूरा मालिक का!! यही पत्रकार है जो शोषण, उत्पीडन की खबर खोज कर सबको न्याय दिलाने का काम करते हैं। जबकि उनकी खुद की कोई सुनवाई नहीं है। सरकार ने तरह-तरह का वेतनमान घोषित कर रखा है, पर यह लालीपाप ही साबित हुआ। इन सबका फायदा लेने के लिए वह नाक रगड़ कर भी नियुक्ति पत्र हासिल नहीं कर सकता। एक अनुमान के अनुसार पूरे प्रदेश में 5 हजार से ज्यादा पत्रकार मालिकों के शोषण के शिकार होकर पूरे परिवार के भविष्य के लिए खतरा उठा कर केवल शौक या सेवा के नाम पर इस पेशा को अपनाये हुए हैं। इनमें वे लोग शामिल नहीं है, जो इस पवित्र व्यवसाय को अपने काले – पीले धंधे की आड़ के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। पत्रकारिता में निर्भीकता व निरपेक्षता दिखाने- करने वाले पत्रकारों से ये संस्थान उस समय नाता ही तोड़ लेते हैं, जब इस जवाबदारी के निर्वहन की वजह से उन पर कोई मुसीबत आती है। हत्यारों के शिकार बनने के तुरंत बाद उमेश राजपूत से और फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने के बाद हेमचन्द्र पाण्डेय से “नई दुनिया” का बेशर्मी से नाता तोड़ना आपको याद होगा। “पत्रिका” ने मेरे साथ जो कुछ किया वह भी सभी साथी भूले नहीं होंगे।

आइये आगामी 30 मई को मनाए जाने वाले पत्रकार दिवस के दिन इस बार अखबार मालिकों द्वारा किये जा रहे पत्रकारों के शोषण के खिलाफ विरोध दर्शायें। विरोध का तरीका क्या हो? सभी पत्रकार संघ को इस मुद्दे में एक मंच पर कैसे लायें? इस विषय पर पत्रकार साथियों सहित चौथे स्तम्भ का भार सँभालने वाले सभी साथियों, हितैषियों से विचार आमंत्रित है। कृपया अधिक से अधिक मीडिया के साथियों के साथ शेयर करें, मैं इस बात से सहमत हूँ कि आन्दोलन राजधानी मुख्यालय में किया जाये। पर ज्ञापन शासन के मुखिया के साथ ही बड़े अख़बार मालिकों को भी सौंपा जाये। प्रतीकात्मक विरोध, मालिकों के नाम पत्र लेखन, मौन प्रदर्शन जैसे सुझाव भी कुछ साथियों ने फोन से दिए हैं। छत्तीसगढ़ में मालिकों की तानाशाही का विरोध कैसे हो? इस पर चर्चा के लिए आज कल में अगर सक्रिय साथियों कि बैठक हो जाये तो अच्छा होता। कुछ साथियों के विचार मिले हैं —– जो नीचे हैं – कमल शुक्‍ला।

बहुत घटिया किरदार है अखबार का मालिक

है बहुत घटिया किसी किरदार का मालिक
हाँ, वही अक्सर मिला अखबार का मालिक

अनेक अखबार अवसरवादी हैं. जब तक पत्रकारों से हित सधता है, वे इस्तेमाल करते हैं मगर जैसे ही पत्रकार पर प्रशासन का दमन शुरू होता है, ये उसे पहचानने से भी इनकार कर देते है. अखबार के कुछ मालिकों का यही चरित्तर है. ये वक्‍त पड़ने पर अपने पिताश्री को भी न पहचाने. खतरनाक है अधिकतर मालिक. माफिया भी शरमा जाये इनसे. मगर दुखद बात यह है कि ये लोग ही सम्मानित हैं. क्योंकि इनके पास अखबार की ताकत है. हम कुछ नहीं कर सकते, सिवाय कोसने के. सत्ता इनके साथ, प्रशासन-मफिया इनके साथ. नेता इनके साथ. पत्रकारिता का बेहद संक्रमण काल है यह. अब पुरानी पत्रकारिता का दौर वापस नहीं हो सकता. बाजारवाद ने निर्वस्त्र कर के चौराहे पर खड़ा कर दिया है. मुझे संतोष है कि थोड़े-बहुत लोग फिर भी संघर्ष करके रास्ता बनानी की कोशिश कर रहे हैं. ये लोग ही अभिव्यक्ति के असली सिपाही हैं. मै किसी सार्वजनिक विरोध के किसी कार्यक्रम में तो शामिल हो सकता हूँ, मगर किसी नेता या दो कौड़ी के किसी बड़े अफसर वगैरह को ज्ञापन देने नहीं जाऊँगा. क्योंकि वहां इंतजार करना पड़ता है, और यह मुझे अपमान लगता है. कुल मिला कर सच्चाई यही है की हर संघर्षशील पत्रकार को अपनी लडाई आप लड़नी पड़ेगी. कोई संगठन हमेशा के लिए साथ भी नहीं दे पाता. इसलिए पत्रकार या किसी भी सच्चे व्यक्ति को यह ध्यान रखना चाहिए कि

आसमान से टूटा इक तारा नहीं हूँ मैं
जब तलक ज़िंदा हूँ हारा नहीं हूँ मैं

या फिर…
हो मुसीबत लाख पर यह ध्यान रखना तुम
मन को भीतर से बहुत बलवान रखना तुम
आसमान से टूटा इक तारा नहीं हूँ
मैं जब तलक ज़िंदा हूँ हारा नहीं हूँ
मैंया फिर…हो मुसीबत लाख
पर यह ध्यान रखना तुम
मन को भीतर से बहुत बलवान रखना तुम

पत्रकार की जिंदगी घिसी प्‍लेट हो गई है

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क्या कभी किसी पत्रकार को किसी संगठन ने मदद किया है। क्या कभी किसी पत्रकार के लिए कोई संगठन लड़ा है। मैं तो पिछले 27 साल से देख रहा हॅ। संघ या संगठन के जो अध्यक्ष होते हैं वो प्रेस मालिक से अपने लिए जुगाड़ कर लेते हैं और बेचारा पत्रकार मोहरा बन कर रह जाता है। वही पत्रकार आज सफल है जो, चाणक्य के बने रास्ते पर चलते है। वर्ना हर पत्रकार जब प्रेस से निकलता है सारी कालिख अपने चेहरे पर लेकर निकलता है। जो केवल उसे ही दिखती है। उसके घर वालों को दिखती है। आज पत्रकार की जिन्दगी अखबार की जिन्दगी घिसी प्लेट की तरह हो गई है। और अखबार राजनीति की रखैल।

राजेश कुमार रिपु
पत्रकार

अपने संगठन तले एक स्वर में एक मांग उठायें

पत्रकार दिवस पर सभी पत्रकार संगठन और पत्रकार एक साथ मिलकर या अगर एक साथ एक जगह पर न बैठ सकें तो अलग-अलग जगह पर अपने अपने संगठन तले एक निश्चित मांग को उठायें तभी पत्रकारों की जायज मांग को बल मिल पायेगा। संगठन के बड़े पदाधिकारी अपने अपने इगो (हठ) को लेकर अगर साथ न बैठ पायें तो सरकार और नक्सलियों के बीच मध्यस्थ रख जिस तरह से वार्ता हुई उसी भाँति मध्यस्थ सभी संगठन प्रमुख से मिलकर पत्रकारों के हित को ध्यान में रख एक मांग पत्र तैयार कर लेवें। फिर सभी संगठन एक स्वर में एक मांग उठायें। आपसी मतभेद के चलते पत्रकारों की जायज मांगों पर कोई फैसला नहीं हो पा रहा है। पेपर मालिकों द्वारा किया जा रहां शोषण-ज्यादती किसी से छिपा नहीं रह गया है और छोटे ग्रामीण-दुर्गम अंचल में विषम परिस्थिति में श्रमजीवी पत्रकारों को काम पड़ता है उससे भी सभी वाकिफ हैं। अत्यंत विडम्बना है की केन्द्र एवं राज्य की सरकार ने असंगठित मजदूरों, राजमिस्त्रियों एवं समाज के सभी वर्ग के हित व खुशिहाली के लिए नियम कानून योजना बनाया परन्तु पत्रकारों के लिए ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे पत्रकार का पेट भर सके-परिवार स्वाभिमान पूर्वक जी सके -पत्रकार निश्चिन्त होकर अपना फर्ज निर्वाह कर सके और अपने बुढापे में दो टाईम के भोजन-प्राण रक्षक दवा प्राप्त कर सके।

कृष्णदत्त उपाध्याय
पत्रकार

विरोध रायपुर में ही करेंगे

प्लान बना लो. विरोध रायपुर में ही करेंगे और ज्ञापन भी सौंपेंगे मुख्यमंत्री को. उनको पता भी तो चले की उनके पीछे घूमने वाले निपोरचंदों की आखिर औकात क्या है.

अहफाज रशीद

कमलजी क्योंकि जिनका पेट गले तक भरा हुआ है

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जिनको प्रेस मालिको की ज्यादती ज्यादती नहीं लगाती है,जिनका स्वार्थ प्रेस की आड़ मैं पूरा हो रहा है वो चाटुकार, दलाल, मक्कार और स्वार्थी लोगों को ये बात कह रहे हैं क्या आप नहीं जानते हैं…? माफ़ कीजियेगा आप को मालूम है न ये सरकार चाहेगी न ही प्रेस के मालिक चाहेंगे और तो और हमारे अपने भाई जिन्हें हम पत्रकार साथी कहते हैं वो एक होना चाहेंगे, प्रेस क्लब, श्रमजीवी पत्रकार संघ जर्नलिस्ट संघ और न जाने कितने संघ पूरे प्रदेश में हैं, कब से हैं पर क्या उनको ये बात समझ में नहीं आता है आता है पर साथ ही स्वार्थ भी तो आड़े आता है. बढ़िया है आप का प्रयास सराहनीय है ईश्वर करे आपको, आप के प्रयास को सफलता मिले.

दिनेश मिश्र
पत्रकार

Arun Kumar Jha कमल भाई आप तों ठीक कह रहे हैं, लेकिन ऐसे कितने पत्रकार भाई है, जो पत्रकारिता धर्म के लिए पत्रकार बने हुए हैं? शायद १० प्रतिशत, ९० प्रतिशत पेटभरु पत्रकार से ऐसी उम्मीद करना क्या उचित है, हाँ आशा करके देखी जा सकती इनकी फितरत। इनके अलावा कौशल तिवारी मयूख, संदीप तिवारी राज, अशित बोस, राजेंद्र सेन, राकेश शुक्ल, शंकर सरकार, अरुणकांत शुक्ल, दिनेश चाँद, सकेश भदौरिया, मंजरी शुक्ला, तपेश जैन, शशि परगनिहा, पुर्नेंद्र परगनिहा, अमन मिश्र, रक्षेन्द्र प्रताप सिंह “बेबाक”, समर सिह, अमित कुमार सिंह, रीमा सिंह, अमित कुमार सिंह, विकाश हरिहर्नो, संजीव गुप्ता, संतोष गुप्ता, अनिल पाण्डे, सावन विर्दी, अभिषेक जैन, गोपाल जी राय, दमन चंद्राकर, सुमित ठाकुर, अशोक अग्रवाल, अफसर पठान, प्रशांत त्रिवेदी, आलोक शर्मा, लाल चाँद शर्मा, हिमांशु पाण्डे , सुशील सलाम, अजय शुक्ला, मनोज तिवारी व जनसरोकार संस्था ने भी हमारे मुद्दे के साथ सहमती जताई है। हम इनके आभारी है।

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