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दुख-सुख

असली दवाइयों की काली छाया : मुझे 40 रुपये की दवाइयों के लिए 315 रुपये देने पड़े

भगवान के बाद किसी पर आम लोगों का सबसे ज्यादा भरोसा है तो वे हैं दवा, डॉक्टर और दुकानदार। दवा, डॉक्टर और दुकानदार के इस त्रयी के प्रति हमारी भोली-भाली जनता इतनी अंधभक्त है कि डॉक्टर साहब जितनी फीस मांगते हैं, दुकानदार महोदय जितने का बिल बनाते हैं, उसको बिना लाग-लपेट के अपनी घर-गृहस्थी को गिरवी रखकर भी चुकता करती है। इसी परिप्रेक्ष्य में  एक छोटी-सी घटना से अपनी बात  कहना चाहूंगा। पिछले दिनों  मालाड, मुम्बई स्थित एक अस्पताल में मेरे मित्र की पत्नी अपना ईलाज कराने गई। डॉक्टर ने उन्हें स्लाइन (पानी बोतल) चढ़ाने की बात कही। अस्पताल परिसर में स्थित दवा दुकानदार के पास डाक्टर द्वारा लिखी गई दवाइयों को खरीदने मैं खुद गया। डॉक्टर ने जो मुख्य दवाइयां लिखी थी उसमें मुख्य निम्न हैं-

<p>भगवान के बाद किसी पर आम लोगों का सबसे ज्यादा भरोसा है तो वे हैं दवा, डॉक्टर और दुकानदार। दवा, डॉक्टर और दुकानदार के इस त्रयी के प्रति हमारी भोली-भाली जनता इतनी अंधभक्त है कि डॉक्टर साहब जितनी फीस मांगते हैं, दुकानदार महोदय जितने का बिल बनाते हैं, उसको बिना लाग-लपेट के अपनी घर-गृहस्थी को गिरवी रखकर भी चुकता करती है। इसी परिप्रेक्ष्य में  एक छोटी-सी घटना से अपनी बात  कहना चाहूंगा। पिछले दिनों  मालाड, मुम्बई स्थित एक अस्पताल में मेरे मित्र की पत्नी अपना ईलाज कराने गई। डॉक्टर ने उन्हें स्लाइन (पानी बोतल) चढ़ाने की बात कही। अस्पताल परिसर में स्थित दवा दुकानदार के पास डाक्टर द्वारा लिखी गई दवाइयों को खरीदने मैं खुद गया। डॉक्टर ने जो मुख्य दवाइयां लिखी थी उसमें मुख्य निम्न हैं-</p>

भगवान के बाद किसी पर आम लोगों का सबसे ज्यादा भरोसा है तो वे हैं दवा, डॉक्टर और दुकानदार। दवा, डॉक्टर और दुकानदार के इस त्रयी के प्रति हमारी भोली-भाली जनता इतनी अंधभक्त है कि डॉक्टर साहब जितनी फीस मांगते हैं, दुकानदार महोदय जितने का बिल बनाते हैं, उसको बिना लाग-लपेट के अपनी घर-गृहस्थी को गिरवी रखकर भी चुकता करती है। इसी परिप्रेक्ष्य में  एक छोटी-सी घटना से अपनी बात  कहना चाहूंगा। पिछले दिनों  मालाड, मुम्बई स्थित एक अस्पताल में मेरे मित्र की पत्नी अपना ईलाज कराने गई। डॉक्टर ने उन्हें स्लाइन (पानी बोतल) चढ़ाने की बात कही। अस्पताल परिसर में स्थित दवा दुकानदार के पास डाक्टर द्वारा लिखी गई दवाइयों को खरीदने मैं खुद गया। डॉक्टर ने जो मुख्य दवाइयां लिखी थी उसमें मुख्य निम्न हैं-

 

डेक्सट्रोज 5%
आर.एल
आई.वी.सेट
निडिल
डिस्पोजल सीरिंज
और कुछ टैबलेट्स।

डेक्सट्रोज 5% का एम.आर.पी-24 रूपये, आर.एल का-76 रूपये, आई.वी.सेट का-117 रूपये, निडिल का-90 रूपये और डिस्पोजल सीरिंज का 8 रूपये था।

मेरे लाख समझाने के बावजूद दवा दुकानदार एम.आर.पी. (मैक्सिमम् रिटेल प्राइस) से कम मूल्य पर दवा देने को राजी नहीं हुआ। वह कहते रहा  कि मुम्बई दवा दुकानदार एसोसिएशन ने ऐसा नियम बनाया है जिसके  तहत वह एम.आर.पी. से कम पर दवा  नहीं दे सकता। मजबूरी में  मुझे वे दवाइयां एम.आर.पी. पर खरीदनी ही पड़ी।

गौरतलब है कि  डेक्सट्रोज 5% का होलसेल प्राइस 8-12 रूपये, आर.एल का 10-17 रुपये, निडिल का 4-8 रुपये, डिस्पोजल सिरिंज का-1.80-2.10 रूपये तक है। वहीं आई.वी.सेट का होलसेल प्राइस 4-10 रूपये है।

ऐसे में सबकुछ जानते हुए मुझे 117 (आई.वी.सेट) + 90 (निडिल) + 76 (आर.एल) + 24 (डेक्सट्रोज) + 8 (डिस्पोजल सिरिंज) का देना पड़ा। यानी कुल- 117 + 90 + 76 + 24 + 8 = 315 रुपये देने ही पड़े। ध्यान देने वाली बात यह है कि इन दवाइयों का औसत  होलसेल प्राइस 10 + 14 + 6 + 2 + 8 = 40 रुपये बैठता है। यानी मुझे 40 रूपये की कुल दवाइयों के लिए 315 रूपये वह भी बिना किसी मोल-भाव के देने पड़े। इस मुनाफे को अगर प्रतिशत में काउंट किया जाए तो 900 फीसद से भी ज्यादा का बैठता है।

ऐसे में यह वाजिब-सा सवाल है कि इस देश की गरीब जनता असली दवाइयों की इस काली छाया से कब मुक्त होगी।  एम.आर.पी. के भूत का कोई तो ईलाज होना चाहिए।

दवाओं ने तो लूट लिया है!!!

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क्या आप बता सकते हैं कि कोई ऐसा घर जहाँ पर कोई बीमार नहीं पड़ता, जहाँ दवाइयों की जरूरत नहीं पड़ती। नहीं न! यानी जिना है तो दवा तो खानी ही पड़ेगी। यानी दवा उपभोग करने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है। किसी न किसी रूप में लगभग सभी लोगों को दवा का सेवन करना ही पड़ता है। कभी बदन दर्द के नाम पर तो कभी सिर दर्द के नाम पर।

भारत एक लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा वाला विकासशील राष्ट्र है। जहाँ आज भी 70 प्रतिशत जनता 30 रूपये प्रति दिन भी नहीं कमा  पाती। ऐसी आर्थिक परिस्थिति  वाले देश में दवा कारोबार की कलाबाजारी अपने चरम  पर है। मुनाफा कमाने की होड़ लगी हुयी है। मैं  कुछ तथ्य को सामने रखकर बात करना चाहता हूं।

सबसे कॉमन बीमारी है सिर दर्द/बदन दर्द।  इसके लिए दो प्रकार की दवाएं  बाजार में बहुत कॉमन है।  एक है डाक्लोफेनेक सोडियम+पैरासेटामल नामक सॉल्ट से निर्मित  दवाएं, जिसमें डाइक्लोविन प्लस, आक्सालजीन डी.पी जैसी ब्रान्ड नेम वाली दवाएं उपलब्ध हैं। रोचक तथ्य यह है कि डाइक्लोविन प्लस टैबलेट का होलसेल प्राइस 30-40 पैसा प्रति टैबलेट है और यह रिटेल काउंटर पर 2 रूपये प्रति टैबलेट की दर से यानी 500 प्रतिशत से भी ज्यादा मुनाफा लेकर बेची जा रही है। ठीक इसी तरह बहुत ही पॉपुलर सॉल्ट है निमेसुलाइड। यह भी एंटी इन्फ्लामेट्री टैबलेट है। दर्द निवारक गोली के रुप में इसकी भी पहचान बन चुकी है। इस सॉल्ट से सिपला जैसी ब्रान्डेड कंपनी निसिप नामक उत्पाद बनाती है। जिसमें 100 मि.ग्रा. निमेसुलाइड की मात्रा रहती है। इस दवा की होलसेल प्राइस 4 रूपये से 4.5 रूपये ( हो सकता है कि कही-कही इससे भी कम हो) प्रति 10 टैबलेट यानी प्रति स्ट्रीप है। मार्केट में इस दवा को धड़ल्ले से 2 से ढ़ाई रूपये प्रति टैबलेट बेचा जा रहा है। यानी प्रति स्ट्रीप 20 रूपये का मुनाफा। लगभग 500 प्रतिशत का शुद्ध लाभ।

इसी तरह दैनिक जीवन में उपभोग में लाइ जाने वाली कुछ दवाएं हैं, जिनमें कॉटन, बैंडेज, स्पिरिट, डिस्पोजल सीरिंज है। इन दवाओं पर भी लगभग 300 प्रतिशत से लेकर 700 प्रतिशत तक मुनाफा कमाया जाता है।

यह तो कुछ बानगी भर है। अंदर तो अभी और कितनी  परत है। जिसे धीरे-धीरे खोलने का प्रयास करूंगा। फिलहाल सोचनीय यह है कि आखिर में ये दवा कंपनियां अपने उत्पाद का विक्रय मूल्य  इतना बढ़ा कर किसके कहने पर रखती है? क्या सरकार को मालुम नहीं है कि इन दवाओं को बनाने में वास्तविक कॉस्ट कितना आता है? अगर सरकार को नहीं मालुम हैं तो यह शर्म की बात है। और अगर जानते हुए सरकार अंधी बनी हुयी है तो यह और भी शर्म की बात है!!

अब तो अन्हेर नगरी के चौपट राजाओं को लखेदने का समय आ गया है। नहीं तो दवा के लुटेरे कारोबारी गरीब भारतीयों को और गरीब करते जायेंगे। धन्य देश हमारा, धन्य है हमारी सरकार!!

लेखक आशुतोष कुमार सिंह ‘संस्कार पत्रिका’से जुड़े हुए हैं. उनसे सम्पर्कः08108110151 या [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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