हमारे ऋषि-मुनियों ने एकासन करने की जो बात कहीं, उसके पीछे यही उद्देश्य था कि मुँह में जब चाहे कुछ न डाला जाये। जो कुछ खाना हो एक या दो बार ही खाया जाये। ताकि हमारे आमाशय को बाकी समय पूर्ण आराम मिल जाये। जब हम कोई भी पदार्थ मुंह में डालते हैं, चाहें उसकी मात्रा बहुत कम ही क्यों न हो, सारी पाचन व्यवस्था को सजग और सक्रिय हो कार्य करना पड़ता है। जिस प्रकार किसी रेलवे फाटक पर कार्यरत चैकीदार को चाहे अकेला इंजिन उधर से निकले अथवा राजधानी एक्सप्रेस, फाटक बंद करने की प्रक्रिया में उसे कोई फरक नहीं पड़ता। किसी बस में चाहे एक यात्री हो अथवा पूरी बस भरी हो, बस चालक को अन्तर नहीं पड़ता।
पेट्रोल की खपत में भी बहुत ज्यादा अन्तर नहीं पड़ता। इसी प्रकार जितनी अधिक बार मुँह में कुछ भी डाला जायेगा, उतना पाचन अंगों को अधिक कार्य करना पड़ेगा। परिणाम स्वरूप जब हमारा मुख्य भोजन होगा तब वे अपनी पूर्ण क्षमता से कार्य नहीं कर पाते। समय पर अच्छी भूख नहीं लगती। भोजन समय की नियमितता नहीं रहती। इसी कारण आज अधिकांश व्यक्तियों का पाचन प्रायः ठीक नहीं होता। जितनी कम बार खाया जायेगा, उतनी भूख अच्छी लगेगी और पाचन अच्छा होगा।
जो मधुमेह अथवा पाचन संबंधी रोगों से पीडि़त हैं, उन्हें तो बार-बार कभी नहीं खाना चाहिये। परन्तु आज के आहार विशेषज्ञों का सोच इसके विपरीत पाया गया है। रोगी को थोड़ा-थोड़ा, बार-बार खाने के लिये प्रेरित किया जाता है। जिस पर बिना किसी पूर्वाग्रह शोध एवं चिन्तन आवश्यक है, ताकि मधुमेह तथा पाचन रोग जैसी असाध्य बीमारी से रोगी को राहत दिलाई जा सके। इसी कारण आज दुनियाँ में 80 प्रतिशत से अधिक व्यक्ति खाने का विवेक न होने से रोगी होते हैं। इसीलिये तो हमारे यहाँ एक लोकोक्ति प्रसिद्ध है- ‘‘एक समय खाने वाला योगी, दो समय खाने वाला भोगी, तीन समय खाने वाला रोगी तथा उससे ज्यादा खाने वाला महारोगी।’’ हम स्वयं आत्म निरीक्षण करें कि हम कौनसी श्रेणी में है।
लेखक डा. चंचलमल चोरडिया से संपर्क 0291-2621454 या 94141 34606 के जरिए कर सकते हैं.