Connect with us

Hi, what are you looking for?

दुख-सुख

आंबेडकर के लिए इतने घमासान के निहितार्थ समझिए

-राहुल वर्मा-

डॉ. भीमराव आंबेडकर अपनी 125वीं जयंती पर भारतीय राजनीति में नए चुनावी जोड़ तोड़ के केंद्र में हैं. कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी, आप और वाम पार्टियाँ उन्हें अपना घोषित करने की तेज़ लडाई में लगी हैं. अधिकतर राजनीतिक टिप्पणीकारों का दावा है कि आंबेडकर और उस की धरोहर को हथियाने को लेकर पार्टियों में यह वाकयुद्ध दलितों को जीतने के लिए है. क्या इस से हमें हैरानी होनी चाहिए? आखिरकार सभी पार्टियों का उद्देश्य अपने वोट बैंक को बढ़ाना और कुर्सी जीतना है. दिलचस्प प्रश्न तो यह है कि अब भाजपा डॉ. आंबेडकर को हथियाने के लिए उतावली क्यों है, पांच या दस साल पहले क्यों नहीं थी? पिछले कुछ महीनों से बीजेपी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के अधीन दलितों को पटाने के प्रयास में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है. मोदी ने स्वयं को आंबेडकर भक्त कहा है, महाराष्ट्र में देवेन्द्र फडनविस की सरकार ने लन्दन में पढ़ने के दौरान आंबेडकर जिस मकान में रहते थे को खरीद लिया है.

<p><strong>-राहुल वर्मा-</strong></p> <p>डॉ. भीमराव आंबेडकर अपनी 125वीं जयंती पर भारतीय राजनीति में नए चुनावी जोड़ तोड़ के केंद्र में हैं. कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी, आप और वाम पार्टियाँ उन्हें अपना घोषित करने की तेज़ लडाई में लगी हैं. अधिकतर राजनीतिक टिप्पणीकारों का दावा है कि आंबेडकर और उस की धरोहर को हथियाने को लेकर पार्टियों में यह वाकयुद्ध दलितों को जीतने के लिए है. क्या इस से हमें हैरानी होनी चाहिए? आखिरकार सभी पार्टियों का उद्देश्य अपने वोट बैंक को बढ़ाना और कुर्सी जीतना है. दिलचस्प प्रश्न तो यह है कि अब भाजपा डॉ. आंबेडकर को हथियाने के लिए उतावली क्यों है, पांच या दस साल पहले क्यों नहीं थी? पिछले कुछ महीनों से बीजेपी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के अधीन दलितों को पटाने के प्रयास में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है. मोदी ने स्वयं को आंबेडकर भक्त कहा है, महाराष्ट्र में देवेन्द्र फडनविस की सरकार ने लन्दन में पढ़ने के दौरान आंबेडकर जिस मकान में रहते थे को खरीद लिया है.</p>

-राहुल वर्मा-

डॉ. भीमराव आंबेडकर अपनी 125वीं जयंती पर भारतीय राजनीति में नए चुनावी जोड़ तोड़ के केंद्र में हैं. कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी, आप और वाम पार्टियाँ उन्हें अपना घोषित करने की तेज़ लडाई में लगी हैं. अधिकतर राजनीतिक टिप्पणीकारों का दावा है कि आंबेडकर और उस की धरोहर को हथियाने को लेकर पार्टियों में यह वाकयुद्ध दलितों को जीतने के लिए है. क्या इस से हमें हैरानी होनी चाहिए? आखिरकार सभी पार्टियों का उद्देश्य अपने वोट बैंक को बढ़ाना और कुर्सी जीतना है. दिलचस्प प्रश्न तो यह है कि अब भाजपा डॉ. आंबेडकर को हथियाने के लिए उतावली क्यों है, पांच या दस साल पहले क्यों नहीं थी? पिछले कुछ महीनों से बीजेपी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के अधीन दलितों को पटाने के प्रयास में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है. मोदी ने स्वयं को आंबेडकर भक्त कहा है, महाराष्ट्र में देवेन्द्र फडनविस की सरकार ने लन्दन में पढ़ने के दौरान आंबेडकर जिस मकान में रहते थे को खरीद लिया है.

केंद्र ने घोषणा की है कि वह आंबेडकर से जुड़े पांच स्थानों को “पांचतीर्थ” (पांच पवित्र स्थल) के रूप में विकसित करेगा. इनमे आंबेडकर का जन्मस्थान मऊ, उनका लंदन वाला घर, नागपुर में दीक्षाभूमि, दिल्ली में महापरिनिर्वाण स्थल और मुम्बई में चैत्य भूमि. इसी प्रकार आरएसएस की अंग्रेजी पत्रिका “आर्गेनाईज़र” के ताज़ा अंक जिसके कवर पर आंबेडकर का फोटो और उसकी स्तुति में लेख हैं का लगभग आधा हिस्सा आंबेडकर को समर्पित है. आगे मोदी ने 5 अप्रैल जो बाबू जगजीवन राम का जयंती दिवस ह को “स्टैंड अप इंडिया” का शुभारम्भ किया. उन्होंने भाषण के दौरान जगजीवन राम का भी कई बार नाम लिया.

दूसरे मायावती की वोटरों में घटती लोकप्रियता यह दर्शाती है कि पार्टी में नेतृत्व का संकट है. बीजेपी समझती है कि मायावती अगले कुछ वर्षों वर्षों तक एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी रह सकती है परन्तु मायावती का पूरे देश के दलितों में आकर्षण अब ख़त्म हो गया है. इस बीच कांग्रेस और वाम दलों ने अपने नेतृत्व में इसकी जगह लेने के लिए किसी दलित नेतृत्व को नहीं उभारा है. इस ने भाजपा के लिए दलितों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए काफी जगह दे दी है.

यह सही है कि 2014 में बीजेपी का दलित वोट बैंक मुख्यतया ऊपर उठ रहा शहरी, शिक्षित, मध्य वर्ग जो मीडिया के संपर्क में है था और वह मोदी की लोकप्रियता से प्रभावित था क्योंकि वह और उसकी पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय गठबंधन वाली सरकार से असंतोष का प्रतीक बन गया था. बीजेपी को चुनाव पूर्व रामविलास पासवान, रामदास अठावले के साथ गठजोड़ करने और दिल्ली में उदित राज को पार्टी में शामिल करने का भी लाभ मिला.

2014 के चुनाव में बीजेपी का चुनाव में में विभिन्न राज्यों में दलित वोटरों में क्या हिस्सा रहा. बीजेपी को दलित वोटरों का लाभ बसपा और कांग्रेस की कीमत पर मिला. दो पार्टियों की टक्कर वाले राज्यों हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान और गुजरात में उसे दलितों के वोट का बड़ा हिस्सा कांग्रेस से टूट कर मिला. अन्य राज्य जहाँ पर क्षेत्रीय पार्टियों का प्रदर्शन अच्छा रहा, तृणमूल कांग्रेस पशिचमी बंगाल में, बीजेडी उड़ीसा में और एआइडीएमके तमिलनाडू में दलित वोटों का काफी हिस्सा हथियाने में सफल रहीं. पशिचमी बंगाल में वामपंथ का बुरा हाल हुआ और दलितों के वोट का एक बड़ा हिस्सा तृणमूल कांग्रेस की तरफ चला गया. बीजेडी ने ओड़िसा में कांग्रेस का दलित वोट छीन लिया. इसी तरह तेलंगाना में कांग्रेस के दलित वोट का बड़ा हिस्सा टीआरएस और सीमान्धरा में एनडीए तथा वाईएसआर के गठबंधन ने छीन लिया.

दूसरी तरफ बीएसपी के दलित वोट बैंक का बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में भाजपा को चला गया. दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस और बसपा के दलित वोट बैंक का बड़ा हिस्सा “आप” को चला गया. यह कहना गलत नहीं होगा कि उत्तर प्रदेश के बहार बीएसपी का वोट बैंक दलित वर्ग ही है. इस चुनाव में बीएसपी एक भी सीट नहीं जीत पाई और इस का राष्ट्रीय स्तर पर वोट शेयर 2009 के 6.2 प्रतिश्त से घट कर 2014 में 4.1 प्रतिश्त रह गया. इस का मुख्य कारण इस की उत्तर प्रदेश में फजीहत थी जहाँ इस का वोट प्रतिश्त 2009 में 27.4 से घट कर 2014 में 19.6 प्रतिश्त रह गया. लोकनीति-सीएसडीएस द्वारा एकत्र किये गए सर्वे डाटा से मायावती की घटती लोकप्रियता और हार को समझने में मदद मिलती है. 2007 में भारी बहुमत से चुनाव जीतने के बाद 2009 में बीएसपी और मायावती दिल्ली की कुर्सी पर नज़रें लगाये हुए थे परन्तु पार्टी अपने कोर वोटरों की अपेक्षा को पूरा करने में विफल रही. उपलब्ध डाटा दर्शाता है कि 2009 के बाद मायावती की प्रधान मंत्री पद के लिए दावेदारी की स्वीकृति में बहुत गिरावट आ गयी थी. जब तक मायावती अपने सांगठनिक ढांचे को चुस्त दरुस्त करने, लीडरशिप की दूसरी पंक्ति का विकास करने, एक विश्वसनीय राजनीतिक सन्देश देने के लिए गंभीर प्रयास नहीं करती दलित राजनीति उस के हाथ से निकल जाएगी.

बीजेपी के लिए भी वही बात लागू होती है. डॉ. आंबेडकर के प्रतीक और सांकेतक उसे केवल यहाँ तक ही ला सकते हैं. बीजेपी और उससे जुड़े संगठनों को दलित और अल्पसंख्यकों को समाहित करने, भेदभाव और पूर्वाग्रह को कम करने और पार्टी संगठन और मंत्री पदों पर नेतृत्व विकसित करने के लिए गंभीर प्रयास करने होंगे. अन्यथा, बीजेपी जो कि 2014 के चुनाव में एक छटा पार्टी बनी है केवल उच्च हिन्दू जातियों की ही पसंद बन कर रह जाएगी. दलित राजनीति हिंदुत्व की राजनीति की विरोधी बन कर रहेगी. प्रधान मंत्री के पास डॉ. आंबेडकर के समावेशी लोकतंत्र जिसमें राजनैतिक समानता के साथ साथ आर्थिक और सामाजिक समानता भी है, के सपने को साकार करने का एतहासिक अवसर है.

अनुवादक- एस.आर. दारापुरी

Advertisement. Scroll to continue reading.

You May Also Like

Uncategorized

मुंबई : लापरवाही से गाड़ी चलाने के मामले में मुंबई सेशन कोर्ट ने फिल्‍म अभिनेता जॉन अब्राहम को 15 दिनों की जेल की सजा...

ये दुनिया

रामकृष्ण परमहंस को मरने के पहले गले का कैंसर हो गया। तो बड़ा कष्ट था। और बड़ा कष्ट था भोजन करने में, पानी भी...

ये दुनिया

बुद्ध ने कहा है, कि न कोई परमात्मा है, न कोई आकाश में बैठा हुआ नियंता है। तो साधक क्या करें? तो बुद्ध ने...

दुख-सुख

: बस में अश्लीलता के लाइव टेलीकास्ट को एन्जॉय कर रहे यात्रियों को यूं नसीहत दी उस पीड़ित लड़की ने : Sanjna Gupta :...

Advertisement