आलोक भट्टाचार्य (कवि-पत्रकार-मंच संचालक, मोबाइल : 09821400031) : मंजुल भारद्वाज युवा हैं, लेकिन इस समय हिंदी रंगमंच के सर्वाधिक प्रयोगधर्मी चिंतक नाट्यकार हैं। उन्हें सुविधा यह है वह नाट्यकार यानी नाट्य-लेखक होने के साथ निर्देशक भी स्वयं हैं, सो नाटक का कथ्य मंच पर खुलकर आता है। कथ्य यदि गंभीर हो और कहीं अमूर्त भी, तब उसकी अभिव्यक्ति ज़रा मुश्किल होती है। वहां निर्देशक की कुशलता दरकार होती है। मंजुल की प्रस्तुतियों में यह सहज-सुलभ होता है। इस संदर्भ में उनकी संस्था द एक्सपेरिमेंटल थियेटर फाउंडेशन अपने नाम को सार्थक करती है।
उनकी नयी प्रस्तुति अनहद नाद के विषय में कुछ कहूँ, उससे पहले मंजुल की प्रस्तुतियों की कुछ विशेषताओं की चर्चा यहाँ कर लूँ। हिंदी की ये प्रस्तुतियां मंजुल हिंदीतरभाषी कलाकारों के माध्यम से पेश करते हैं। इससे होता यह है की उच्चारण की शुद्धता बहुत ज्यादा मायने भी नहीं रखती। अभिनय तो मौन के भी माध्यम से भावनाओं को संप्रेषित कर सकता है। मंजुल मुंबई में सक्रिय हैं। उन्हें मराठी कलाकार सहजता से उपलब्ध होते हैं, और मराठी समाज नाट्यप्रेमी तो है ही, प्रतिभावान भी। यह लाभ मंजुल को मिलता है। मंजुल की नयी प्रस्तुति अनहद नाद नाटक नहीं, नृत्यनाट्य शैली में पेश की गयी है। संवाद काव्यमय हैं, लययुक्त हैं, लेकिन परिवेश के अनुसार लय बदलती रहती है।
इस प्रस्तुति के माध्यम से मंजुल ने कहा है की कलाकार को उपभोक्तवादी आग्रहों से सर्वथा अलग रहकर मानव-हित में अपनी कला समर्पित करनी चाहिये। आज जब जीवन जीने के समस्त साधनों और उपादानों को बाजार ने अपने कब्जे में जकड़ रखा है तब कलाकारों को स्वाभिमानी, निस्वार्थ, मानवहित में समर्पित उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा प्रकृति से लेनी चाहिये। प्रकृति हमें निरंतर उपयोगी संदेश देती रहती है, हम ही उन्हें ग्रहण नहीं करते। कलाकार यदि व्यवसायिक तकाज़ों से पूर्णत: निरपेक्ष रहकर अपनी कला को प्रकृति से एकाकार कर दे, तभी व्यापक मानव हित के अपने कला उद्देश्य की पूर्ति कुछ मात्रा में कर पायेगा। मंजुल की पिछली प्रस्तुति गर्भ में भी प्रकृति से सामंजस्य रख कर चलने का हि संदेश था।मंजुल अपनी प्रस्तुतियों में दर्शकों को भी मंच का सहभागी बना लेते हैं। दर्शक भी एक अर्थ में रंगकर्मी बन जाते हैं। इस सोद्देश्य, सार्थक, सफल प्रस्तुति के लिए, इस रोचक समाजोपयोगी प्रयोग के लिए मंजुल को बधाई।
नाटक अनहद नाद में नाद है ब्रह्मांड का
संतोष श्रीवास्तव (mobile – 09769023188) : “इस बनावटी कृत्रिम , वातानुकूलित प्रेक्षागृह की बजाय मैंने सुनी उड़ते कीट पतंगों की आवाजें जो मैंने कभी नहीं सुनी थी …मैंने देखा उन वनस्पतियों को जो गाती हैं , गुनगुनाती हैं..मैंने देखा उस धरा को जिसका जर्रा जर्रा बोलता है” हाँ मैं सुन रही हूँ उन आवाजों को जो अभी तक मैंने नहीं सुनी थी । देख रही हूँ कलाकारों के सम्पूर्ण शरीर से , होठों से प्रस्फुटित उन अनसुने शब्दों को जो मुझे डुबाते जा रहे हैं अपने रचे लहराते समन्दर में ।
रवीन्द्र नाट्य मंदिर में मंजुल भारद्वाज द्वारा लिखित अनहद नाद (अन हर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स) नाटक की प्रस्तुति में कमसिन कलाकारों ने जी जान लगा दी है। इन रंगकर्मियों ने नाटक पढ़ा और जुट गए उसे साकार करने में । यहाँ मंजुल का कोई दखल नहीं और यही तो ख़ूबी है उनकी । वे थिएटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य सिध्दांत के सृजक और प्रयोगकर्ता है। वे कलाकारों में अपना दर्शन रोपते हैं और दूर खड़े होकर अपना सृजन देखते हैं ।
‘अनहद नाद’ कलात्मक प्रक्रिया है । यह प्रक्रिया दर्शकों से रूबरू होती है और सुनाती है उस अनसुने को जो जीवन के आस पास ही है लेकिन हम सुन नहीं पाते और सुन नहीं पाते तो एक अधुरा जीवन जीकर दुनिया को अलविदा कह देतें हैं। मंजुल सवाल करते हैं “शरीर में रीढ़ की हड्डी नहीं होगी तो कैसा होगा वह शरीर… अरे दो आँखे होते हुए दृष्टि नहीं हो तो कैसा होगा जीवन? अरे आपके पीछे का छोटा मेंदु ही गायब हो जाये तो क्या होगा आपकी चिंतन प्रक्रियाँ का? ये सवाल आलोड़ित करते हैं ..सोचने पर मजबूर करते हैं ..प्रेरित करते हैं । जीवन से जुडी सफलताओं, असफलताओं के ग्राफ़ में मंजुल सम्पूर्ण को देखते हैं ।….आप अपनी जीवन यात्रा पर पहली और अंतिम बार चलते हो …नेवर बिफोर ..नो वन ट्रेवल्ड युअर जर्नी.. वे गौतम बुद्ध के चिंतन में उतरते हैं …अपना दीपक खुद बनो …मंजुल कहते हैं “जिस राते पर कोई नहीं चला वहीँ आपकी मंजिल है …वही आपका अनूठापन है ..और उन्ही रास्तों के दर्द को अनुभव करना है ..और आपको ही इस दर्द की दवा निकालनी है” !
प्रेक्षागृह में नायिका के संवाद गूँज रहे हैं .. “मैं जननी हूँ ..और जननी मात्र शरीर में नहीं होती ..शरीर से मनुष्य का शरीर पैदा होता है .. मात्र शरीर पैदा करना मुझे जननी नहीं बनाता …मुझे जननी का ब्रह्मस्वरूप मिलता है ..जब मैं शरीर मैं प्राण फूंकती हूँ” !
नायिका की आँखों में सम्पूर्ण विश्व के दर्शन हो जाते हैं ..जननी विश्व का सृजन करते हुए भी पथरीले रास्तों पे चलने को मजबूर है लेकिन मंजुल की नायिका मजबूर नहीं है वह कहती है “मुझे कपड़ों तक सीमित करने वालों या मुझे निर्वस्त्र करने वालों ..मेरा चीर हरण करने वालो..मैं कृष्णा की मोहताज़ नहीं हूँ ..कृष्ण ने मुझे नहीं ..मैंने कृष्ण को जन्म दिया है .. मैं जननी हूँ। ….मैं जननी हूँ …एक खुली धरा …एक विचरती वसुंधरा …एक उन्मुक्त प्रकृति ..उन्मुक्त आवाज़” क्या कहेगा स्त्री विमर्श !!! केवल पितृसत्ता पर खुन्नस निकलते हुए अपने अधिकारों को चेताते हुए ढेरों कलम चली हैं..चली हैं और थमी हैं पर नहीं थमी मंजुल की सोच !जाने अनजाने स्त्री विमर्श को वो जिस ख़ूबी से छूते हुए आगे बढ़ते हैं ..वो छूवन दस्तावेज़ बन जाती है।
धीरे धीरे नाटक आदि, मध्य और अंत तक पहुंचते जीवंत दृष्टी कोण से एक कोलाज़ रच जाता है । उस कोलाज़ में ही कहीं गीता दर्शन छिपा है जो सारे संशयों पर हावी होता है… “तुम्हारा शरीर दुर्योधन की तरह वज्र का नहीं हुआ है क्योंकि किसी कृष्ण ने किसी एक हिस्से को वज्र होने से बचा लिया था ..ऐसा कौन है?जो मुझको मुझसे मुक्त कराने के लिए उन्मुक्त चिंतन करता है …ऐसा कौन है? जो मुझको मुझसे युद्ध करनेकेलिए सारथी बनकर अपने और आपके जीवन में उतरता है” !
अनहद नाद को समझने के लिए मंजुल भारद्वाज के इस नाटक में खुद को समोना होगा । तभी हम जान पायेंगें उन अनसुनी ध्वनियों का रहस्य ..समझ पायेंगें सुखी नदी और बहती नदी की आवाजें ..पत्थर और मौसम , चाँद सितारे और कीट पतंगे, अँधेरे और रौशनी की आवाजें और इनके बीच धडकता हमारा दिल यानी ज़िन्दगी ।
नाटक अंत तक दर्शकों को बांधे रखने में सक्षम है अश्विनी नांदेडकर, योगिनी चौक, संदेश, सायली पावसकर, तुषार म्हस्के, वैशाली भोसले, कोमल खामकर और अमित डियोंडी अपने अभिनय से नाट्य पाठ को मंच पर आकार देकर कलात्मकता के साथ साकार किया . सभी कलाकार अभिनय नहीं करते बल्कि नाटक को जीते हैं! खूबसूरत भाषा, शैली में रवानगी, सवालों में झांकना, खोज के लिए उतरना, हर मोड़ पर थमना , सोचना ..आगे खुलते रास्ते में अपने कदमों के निशान रोपना … यह सफ़र है अनसुने का ..यह सफ़र है मंजुल भारद्वाज के नाट्य चिंतन का ..ज़ारी रहे सफ़र..सतत…