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भारत भाग्य विधाता कौन?

आज प्रसिद्ध इतिहासकार और दार्शनिक पत्रकार राजमोहन गाँधी का यह कथन याद आ रहा है कि ‘‘भारतीय इतिहास में कई घटनाएं इस बात की गवाह है कि दुश्मन का मुकाबला करने के लिए तो हमारी एकता कई बार बनी। लेकिन दुश्मन पर विजय पाने के बाद हम क्या करेंगे, भावी मुकम्मल योजना क्या होगी, यह विचार देश में मुकम्मिल ढंग से आगे नहीं बढ़ पाया। आजादी तो मिल गयी लेकिन आजादी के बाद की दुनिया हम कैसे बनाएंगे, उसके बारे में बहुत कुछ स्पष्टता नहीं थी। आजादी हमें मिली तो मुक्ति के गीत भी गाये गये और भारी भरकम जश्न भी मनाया गया। लेकिन क्या आज हम सचमुच आजाद है?”

<p>आज प्रसिद्ध इतिहासकार और दार्शनिक पत्रकार राजमोहन गाँधी का यह कथन याद आ रहा है कि ‘‘भारतीय इतिहास में कई घटनाएं इस बात की गवाह है कि दुश्मन का मुकाबला करने के लिए तो हमारी एकता कई बार बनी। लेकिन दुश्मन पर विजय पाने के बाद हम क्या करेंगे, भावी मुकम्मल योजना क्या होगी, यह विचार देश में मुकम्मिल ढंग से आगे नहीं बढ़ पाया। आजादी तो मिल गयी लेकिन आजादी के बाद की दुनिया हम कैसे बनाएंगे, उसके बारे में बहुत कुछ स्पष्टता नहीं थी। आजादी हमें मिली तो मुक्ति के गीत भी गाये गये और भारी भरकम जश्न भी मनाया गया। लेकिन क्या आज हम सचमुच आजाद है?''</p>

आज प्रसिद्ध इतिहासकार और दार्शनिक पत्रकार राजमोहन गाँधी का यह कथन याद आ रहा है कि ‘‘भारतीय इतिहास में कई घटनाएं इस बात की गवाह है कि दुश्मन का मुकाबला करने के लिए तो हमारी एकता कई बार बनी। लेकिन दुश्मन पर विजय पाने के बाद हम क्या करेंगे, भावी मुकम्मल योजना क्या होगी, यह विचार देश में मुकम्मिल ढंग से आगे नहीं बढ़ पाया। आजादी तो मिल गयी लेकिन आजादी के बाद की दुनिया हम कैसे बनाएंगे, उसके बारे में बहुत कुछ स्पष्टता नहीं थी। आजादी हमें मिली तो मुक्ति के गीत भी गाये गये और भारी भरकम जश्न भी मनाया गया। लेकिन क्या आज हम सचमुच आजाद है?”

आज स्वतन्त्रता के इतने वर्षों बाद भी समानता, जातिवाद, साम्प्रदायिता और भ्रष्टाचार का प्रश्न यक्षप्रश्न बनकर हमारे सामने खड़ा है। जिन मुद्दों को लेकर हमने आजादी हासिल की उन सबका क्या हुआ। विषेष रूप से शिक्षा, संस्कार और चरित्र का प्रश्न जिसके बूते दुनिया भर की सभ्यताएं यहां तक पहुंची है। हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र. का दावा तो करते है लेकिन क्या यह सच्चे मायने में लोकतन्त्र है भी। यदि वरिष्ठ चिन्तक लीलाधर मण्डलोई की माने तो यह सच है कि आजादी की उपलब्धियां भी अनेक है और विसंगतियां भी। यह सच है कि युद्ध, संघर्ष और नाना किस्म के असंख्य बलिदानों का अमूल्य उपहार है स्वाधीनता।

लोकतन्त्र के निर्माण में दूरदर्शी नेताओं और विद्वानों ने अविस्मरणीय काम को अंजाम दिया। नागरिकों ने धर्म, जाति, भाषा, प्रान्तियता, रंग आदि से ऊपर उठकर राष्ट्र को तरजीह दी। आपातकाल, साम्प्रदायिता, हिंसा, बलात्कार, किसानों की आत्महत्या, दलित अल्पसंख्यकों के संहार पर भी देश एकजुट रहा। उग्रवाद का समर्थन जनता ने कभी नहीं किया। कलाकारों और लेखकों ने सदैव सत्ता का प्रतिपक्ष बनना स्वीकार किया। समाज ने आधुनिकता, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, अर्थव्यवस्था, संस्कृति के नवाचारों को अपनाया। शिक्षा व स्वास्थ्य के महत्व को गहरे तक समझा। राजनैतिक परिवर्तनों के लिए भी उदार दृष्टि का परिचय दिया। मीडिया के वर्ग ने भी सत्ता का पिछलग्गू बनना अस्वीकार किया। सभी ने भारत को महाशक्ति बनाने में भरपूर सहयोग किया और भारतीय लोकतन्त्र को विश्व के सामने एक अनुपम उदाहरण बनाया। और यह भी सच है कि जनता को बार-बार सत्ता से मोहभंग का शिकार होना पड़ा। यह वह लोकतन्त्र नहीं न ही स्वाधीनता जिसका स्वप्न देखा गया था। इतने सालों बाद भी किसान अपने फसल का वाजिब मूल्य न पा सका।

किसान निर्वासन-विस्थापन और आत्महत्या के लिए विवश हुआ। मजदूर को न रोजगार मिला न दो जून की रोटी। दलितों अल्पसंख्यकों और आदिवासियों के साथ दुर्व्यवहार, अनाचार और शोषण में इजाफा होता गया। स्त्री के साथ बलात्कार चरम पर पहुंचे। सरकार के कल्याणकारी स्वरूप के क्रमशः क्षरण ने आम आदमी के मूल अधिकारों को छीना। सरकारी अपराधी रसूखदार और अमीर होते गये और इमानदार नागरिक शक्तिहीन और विपन्न। मूलभूत आवश्यकता की वस्तुओं के दाम इतने बढ़े कि जीना मोहाल। आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन पर माफिया का बढ़ता आतंक और डाका। कुछ जरूरी पशु-पक्षी लुप्त होने के कगार पर।

जीवन दायिनी नदियों पर प्रदूषण की मार। कई छोटी नदियां मृत्यु को प्राप्त। लगातार बढ़ते प्रदूषण। प्राकृतिक आपदाओं और दुर्घटनाओं में मरते लोगों के सुरक्षा के प्रश्न। कुपोषण और बढ़ती मृत्युदर। चौतरफा व्याप्त भ्रष्टाचार इतना कि आज यदि प्रेमचन्द जीवित रहते तो स्तब्ध रह जाते क्योंकि आज तो उनका नमक का दरोगा भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूब चुका है। और भी अनेक अनुत्तरित सवाल है। और सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि सत्ता और समाज परोक्ष रुप से इसे स्वीकारते हुए इस ओर कैसे अपनी आँखे बन्द कर लेते है। और तब निराश व हताश होकर रघुपति सहाय जैसे शक्शियत को यह लिखना पड़ता है- ‘‘राष्ट्रगीत में भला कौन वह। भारत भाग्य विधाता है, फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है।’’

जाहिर है 15 अगस्त हमारे लिए स्वयं तथा राष्ट्र को पहचानने की भी तारीख है इस देश को पहचानेंगे तो समझेंगे कि देश लोगों से ही बनता है। लोगों से ही पहचाना जाता है। इसलिए भारत को आदर्श राष्ट्र के रुप में कल्पना करने वाले मित्रों आओ आज ही हम सभी पहले आदर्श नागरिक बनने का संकल्प लें फिर कोई ताकत इस देश को आदर्श राष्ट्र बनने से नहीं रोक सकेगी। और तब बिना कहे ही सारा विश्व जानेगा कि इस देश का जन गण ही है भारत भाग्य विधाता।

लेखक शिवेंद्र पाठक पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के वरिष्ठ चिंतक और टिप्पणीकार हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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