Vishnu Nagar : अगस्त, 2013 में अंधविश्वास निर्मूलन में लगे नरेंद्र दाभोलकर, फरवरी, 2015 में प्रगतिशील विचारों के प्रवक्ता और सक्रिय वामपंथी कार्यकर्ता गोविंद पानसरे की हत्या महाराष्ट्र में हुई और अब महाराष्ट्र के पड़ोसी कर्नाटक में अपने विचारों को बेबाक ढँग से व्यक्त करनेवाले मूर्तिपूजा समेत तमाम पारंपरिक विचारों के विरुद्ध साहसपूर्वक जाने्वाले मालेशप्पा मादिवल्लपा कलबुर्गी की हत्या की गई है। बांग्लादेश में भी लगातार प्रगतिशील, उदार विचारों के लोगों की हत्याएँ हो रही हैं। पाकिस्तान की तो बात ही क्या करना। महाराष्ट्र की इन दो हत्याओं के सही दोषियों का आज तक पता नहीं चल पाया है।
सीबीआई ने दाभोलकर के मामले की जाँच को ठंडे बस्ते में डाल रखा है और लगता नहीं कि वह ठंडा बस्ता कभी गर्म होगा और जो हालात हैं, उनमें सीबीई को उन निष्कर्षों तक पहुँचने दिया जाएगा, जहाँ जाँच जाँचकर्ताओं को पहुँचा सकती है। पानसरे मामले की जाँच में भाजपा सरकार फेल है और शायद रहना भी चाहेगी। कर्नाटक में कांग्रेसी सरकार जरूर है मगर वहाँ की सरकार भी क्या करेगी, यह हम सब जानते हैं। प्रगतिशील विचारों से ऐसा डर है अभी भी कि सांप्रदायिक विचारवाले सत्ता तक पहुँच गए हैं, तब भी डर है उन्हें इन विचारों से जबर्दस्त। प्रगतिशील-उदार विचार चाहे कुछेक लोगों तक सीमित हों, मगर प्रतिक्रियावादी उन विचारों की उपस्थिति मात्र से असुरक्षित महसूस करते हैं। पिछले बीस सालों में इसके ढेरों उदाहरण मिलेंगे।
यूआर अनंतमूर्ति ने लिख दिया था कि उन्होंने बचपन में मू्र्ति पर पेशाब कर दिया था तो भी उन्हें कुछ नहीं हुआ था। इसके बाद तो उन पर लगातार हमले शुरू हो गए जबकि वे देश के और कर्नाटक के गौरव थे और यह कहने पर कि मोदी सत्ता में आ गए तो मैं यह देश छोड़ दूँगा, इस पर कितना अपमान उन्हें झेलना पड़ा था और वाकई मोदी सरकार के आने के कुछ महीने बाद उन्होंने देश ही नहीं, यह दुनिया भी छोड़ दी। इन्होंने हुसेन जैसे पेंटर को नहीं बख्शा और वे भारत कभी लौट नहीं पाए।
चूँकि सांप्रदायिक-प्रतिक्रियावादी विचारों में दम नहीं होता, उसके पीछे तर्क नहीं होता, कि उन विचारों के समर्थक वैचारिक स्तर पर विरुद्ध विचारों का मुकाबला कर सकें इसलिए वे हत्या -सामूहिक हत्या का रास्ता चुनते हैं। ये विचार ही हत्यारे होते हैं जबकि प्रगतिशील लोग विचारों को विचारों के माध्यम से लड़ना चाहता है, तर्क से तर्क को काटना चाहते हैं। यह लड़ाई निस्संदेह लंबी होती है, थकानेवाली होती है, खतरे से भरी होती है मगर वे इस रास्ते पर चलते हैं क्योंकि व्यक्ति की हत्या से विचार की हत्या नहीं हो जाती। गाँधीजी का ही उदाहरण लें, उनकी हत्या ने उनकी उपस्थिति को इतना बड़ा कर दिया कि उनकी हत्या को वध कहनेवाले, हत्या के बाद मिठाई बाँटनेवालों को भी गाँधीजी की माला जपना पड़ती है।
वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार विष्णु नागर के फेसबुक वॉल से.