Sushil Upadhyay : कल रात मसूरी एक्सप्रेस से देहरादून से हरिद्वार आ रहा था। मौसम खराब था। इसलिए बस की बजाय ट्रेन से आना ठीक लगा। जनरल डब्बे का गेट खुलते ही भीड़ टूट पड़ी। अपनी ऐनक, मोबाइल और पर्स बचाते हुए मैं भी भीड़ में जगह बनाने की कोशिश करता रहा। मेरे ठीक पीछे दो लड़कियां थी जो पूरा जोर लगाकर लोगों को आगे ठेल रही थी। इतनी खींचा-खांची थी कि ये पता नहीं लग रहा था कि कौन, किस तरफ जा रहा है। अचानक, मेरे पीछे वाली लड़की चीखी और फिर गालियां की बौछार कर दी। इसी भीड़ में दो लड़के बाहर की ओर आने की कोशिश कर रहे थे। लड़की को लगा कि उन्होंने ही छेड़ा है।
तड़, तड़, तड़! एक साथ कई थप्पड़ पड़ गए। लड़का भौचक्का था। उसने लाख सफाई दी, लेकिन तब तक वो पिट चुका था। भीड़ शांत हुई, लेकिन लड़के का पक्ष किसी ने नहीं सुना। वो बेचारे अपनी बूढ़ी मां को सीट पर बैठाकर नीचे रखा सामान लेने बाहर की ओर आ रहा था। रास्ते भर वो सुबकता रहा। मुझे लगा कि उसकी बेगुनाही का इससे बड़ा क्या सबूत होगा! अपनी मां से भी आंसू छिपाता रहा कि कहीं उसे पता न चल जाए। मेरे पास भी दिलासा देने के लिए शब्द नहीं थे, मेरे मन ने यही कहा कि कम से कम उसने लड़की को नहीं छेड़ा था। लड़की अपनी जगह ठीक थी क्योंकि उसकी साथ बदतमीजी हुई थी। पर, बेइज्जती और पिटाई बेगुनाह के हिस्से में आई! भीड़ का चरित्र ही ऐसा होता है!!!
पत्रकार और शिक्षक सुशील उपाध्याय के फेसबुक वॉल से.