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एक संस्कृति ऐसी भी

प्रवीण कुमार सिंह : दिल्ली में गर्मी से परेशान हो गया था। अब एक ही रास्ता था कि कहीं ठंड में चला जाय। दिल्ली से हिमाचल पास था। हिमाचल चलने का कार्यक्रम बनाया। इससे एक पंथ दो काज, एक गर्मी से मुक्ति, दूसरे घूमना-फिरना भी हो जायेगा। वैसे भी दिल्ली में कंकरीट के जंगल और प्रदूषण से जीवन निर्जीव सा लगने लगता है। 

<p>प्रवीण कुमार सिंह : दिल्ली में गर्मी से परेशान हो गया था। अब एक ही रास्ता था कि कहीं ठंड में चला जाय। दिल्ली से हिमाचल पास था। हिमाचल चलने का कार्यक्रम बनाया। इससे एक पंथ दो काज, एक गर्मी से मुक्ति, दूसरे घूमना-फिरना भी हो जायेगा। वैसे भी दिल्ली में कंकरीट के जंगल और प्रदूषण से जीवन निर्जीव सा लगने लगता है। </p>

प्रवीण कुमार सिंह : दिल्ली में गर्मी से परेशान हो गया था। अब एक ही रास्ता था कि कहीं ठंड में चला जाय। दिल्ली से हिमाचल पास था। हिमाचल चलने का कार्यक्रम बनाया। इससे एक पंथ दो काज, एक गर्मी से मुक्ति, दूसरे घूमना-फिरना भी हो जायेगा। वैसे भी दिल्ली में कंकरीट के जंगल और प्रदूषण से जीवन निर्जीव सा लगने लगता है। 

दिल्ली से बोरिया-बिस्तर बांध कर हिमाचल के बिलासपुर में एक मित्र के यहां पहुंचा। फिर यहां से शिमला, ठियोग, धरमपुर, नम्होल में प्रवास किया। फिर बिलासपुर आया। क्योंकि आगे जहां जाना था वो यहां से होकर गुजरता है। आगे मंडी जिला के एक गांव में जाना था। जो कुल्लू-मंडी से लगभग 60 किमी दूर है। यह साथी रूप सिंह का गांव काढ़ा है।  यहां जाने के लिए मंडी-मनाली मार्ग पर ओट से होकर बालीचैकी होते हुए खाढ़ी जाते हैं। खाढ़ी से आगे जाने का रास्ता नहीं है। पैदल ही जाना पड़ता है। 

खाढ़ी से काढ़ा पंचायत ऊपर पहाड़ पर स्थित है। जिसकी दूरी 1 किमी है लेकिन इस 1 किमी जाने में ढ़ाई घण्टे लग गये। क्योंकि पहाड़ पर पैदल चलने का पहला अनुभव था। थोड़ा चलने पर सांस फूल जाती, किसी तरह रुकते-बैठते पुनः चलते हुए पहुंचे। 

वर्षा भी होने लगी तो गांव के एक घर में रुके। वर्षा बन्द होने के बाद चारो तरफ धुंध-कुहरा उड़ रहा था। मौसम सुहाना था। गर्मी से पीछा छूट चुका था। मन खुश हो गया। रूप सिंह के घर पहुंचें। ये गांव समुद्र तल से 6 हजार फिट पर है। रास्ते में सेब के बगीचे औैर खुबानी के पेड़ थे। देवदार के पेड़ों से जंगल बड़ा मनोहारी लग रहा था। गांव में कनक (गेहूं) काट के रखा था मड़ाई करने के लिए। 

यहां के नाली नुमा खेत में आलू, मटर आदि की फसल लहलहा रही थी। गांव बड़ा सुन्दर था। यहां पारम्परिक तरीके के पत्थर और लकड़ी के मकान हैं। गांव में बिजली-टीवी आदि है लेकिन पंखे नहीं है क्योंकि जरूरत नहीं है। गांव में एक दुकान है, जहां रोजमर्रा का सामान नहीं मिल पाता। उसके लिए हफ्ते-दस दिन में बाजार करने बालीचैकी जाया जाता है। गांव दुरूह होने के कारण अखबार नहीं आ पाता है। टीवी ही खबर का एक मात्र माध्यम है।

आजकल यहां स्थानीय भगवान चुंनजवाला की यात्रा चल रही है। ये यात्रा आषाढ़ प्रथम से शुरू होकर श्रावण मास तक चलती है। कुल 1 माह 12 दिन। जो 80 गांवों से होकर गुजरती है। देवता का जहां रात्रि प्रवास होता है वहां रात में उत्सव का माहौल होता है। परम्परागत सांस्कृतिक कार्यक्रम होता है। इस दौरान बकरे और भेड़ू की बलि देने की प्रथा है। 

इस यात्रा में लोग एक गांव से दूसरे गांव तक देवता को पहुंचाने जाते हैं। फिर रात्रि विश्राम भी उसी गांव में करते हैं। गांवों में बीच-बीच में मेला भी लगता है। देवता के साथ 100 के करीब लोग चलते हैं। देवता के अपने कानून है। देवता के साथ गये लोग एक घर में नहीं रूकते हैं गांव के सभी घरों में रुकते हैं। देवता का कारदार प्रति घर 5-10 आदमी को भेजता है। जहां जिसका जाना तय होगा वहीं जाना है। चाहे वो आदमी अमीर या गरीब हो और घर दूर हो या पास। कोई उल्लघंन नहीं कर सकता है।   

प्राचीन काल में मंडी और कुल्लू जिले में देवता का ही कानून चलता था। देवता का कानून मतलब स्थानीय पंचायत सिस्टम। अब भी यहां के कुछ गांवों में है। देवता की यात्रा काढ़ा गांव से लगभग 3 किमी दूर देवधार गांव में आने वाली थी। हम भी साथी रूप सिंह के साथ यात्रा देखने के लिए देवधार के लिए चल पड़े। रास्ते में घना जंगल नेहरा, बड़ानाल पड़ा। जहां देवदार के अलावा तोस, रै, शाल और रखाल आदि के पेड़ थे। बताया जाता है कि ये पेड़ 10 हजार की ऊंचाई पर होते हैं। रखाल की पत्तियों की चाय भी बनती है, जो लाभकारी होती है।

चार-पांच घंटों की पैदल यात्रा के बाद देवधार पहुंचे। शाम हो चुकी थी। कुछ देर के बाद सिंघा, नगाड़ा आदि वाद्ययंत्र की आवाज सुनाई दी। मतलब यात्रा आ रही है। हम भी यात्रा देखने पहुंचे। महिलायें पारम्परिक पहाड़ी लिबास कुल्लू शाल पहने हुए और हाथ में पूजा की थाली लिये देवता का धूप दान कर रही थीं। प्रसाद के रूप में अखरोट भीड़ में उछाल रही थीं। 

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अब रात में सांस्कृतिक कार्यक्रम होना था। हम भी एक घर में रूके। रात में खाना-पीना के बाद 12 बजे स्थानीय रीति-रिवाज से पूजा करने के बाद नाटी शुरू हुई। नाटी में बीच में आग जलती रहती है। उसके चारो तरफ गोला बनाकर हाथ में हाथ लिये स्त्री-पुरूष गीत गाते घूमते हुए नाचते हैं। वाद्ययंत्र भी बजता रहता है। किसी महिला के बगल में कोई भी पुरूष हो सकता है। अपना पराया का मामला नहीं है। नाटी भोर तक चलती रहती है। जैसे-जैसे नाटी अन्त के तरफ बढ़ती है, बड़ी होती जाती है। लोगो की संख्या बढ़ जाती है। बताते हैं कि पहले नाटी के दौरान ही लड़के-लड़की अपनी शादी तय कर लेते थे। फिर भाग कर शादी करते थे। 

अगले दिन यात्रा पास के गांव मलारी जानी थी। जो यहां से डेढ़ किमी था। मलारी पहुंचने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई क्योंकि दूरी और चढ़ाई दोनों कम थी। मलारी में भी देवता आये वही सब हुआ लेकिन नाटी छोटी थी। तीसरे दिन घूमने के लिए बागीथाचगढ़ जाना था। जो यहां से ऊपर लगभग 4 किमी दूर था। थकते बैठते मंजिल की तरफ बढ़ते रहे रास्ते में कोई गांव नहीं पड़ा। बस जंगल ही जंगल था। एक विघ्न हो गया कि वर्षा होने लगी। रुकने का कोई ठौर नहीं था। 

आखिर पेड़ कितना पानी रोकते। हम भींग गये। ठंड लगने लगी। लेकिन वर्षा रानी रूकने का नाम नहीं ले रही थीं। अब रात होने वाली थी। अपने यथा स्थान काढ़ा पहुंचना नामुमकिन था। ऊपर चुंनजवाला सराय में रूप सिंह के जानने वाले थे। भीगते हुए चुंनजवाला पहुंचे। यहां वेद पंचम रहते थे, जो पास के ही गांव के थे। वेदपंचम ऊपर बागीथांचगढ़ में जनसहयोग से सराय बनवा रहे थे। बागीथांचगढ़ यहां से 1 किमी दूर था। 

यहां पहुंचने पर ठंड से बुरा हाल था। आग तापने पर जान में जान आयी। सराय में रात भर आग जलती रही। उसके पास कंबल ओढ़ के सोये फिर भी ठंड नहीं गयी। प्रेमचन्द की कहानी ‘पूस की रात’ याद आ गई। दूसरे दिन भी वर्षा हो रही थी। और यहां राशन खत्म हो चुका था। बारिश के वजह से नीचे से राशन नहीं आ पाया था। आगे रूकने का मतलब भूखा मरना था।  

वर्षा थोड़ा कम होने पर अपने मंजिल की ओर चल पड़े। ऊपर चलने पर बागीथांचगढ़ था। यह आस-पास के 4 सौ गांवों की सबसे ऊंची चोटी है। इसकी समुद्र तल से ऊंचाई 12 हजार फिट है। यहां कभी किसी राजा का किला था जिसके अवशेष बिखरे पड़े हैं। इसके आसपास के दर्रो में वर्षा के दिनों में पहले गुर्जर अपने जानवर के साथ आकर रहते थे। जिन्हें जंगल की शोभा कहा जाता था। अब नहीं आते हैं।   

वर्षा से रास्ता खराब हो गया था। गिरते-पड़ते काढ़ा पहुंचे। यहां पहुंचने पर बारिश भी बन्द हो गई। धूप निकल गया था। महिलायें खेतों में मटर तोड़ रही थीं। हंसी और गुस्सा दोनों आ रहा था कि बारिश हमारे लिए ही थी। इन पहाड़ी गांवों के लोग शहर और बाजार से दूर होने के कारण अभी उनके अन्दर भौतिक इच्छा नहीं है। जितना है उसी में खुश हैं। यहां के लोग बहुत भोले हैं। भ्रमण के दौरान जितने लोग मिले सभी चाय-पानी और भोजन के लिए आग्रह करते थे।

यहां शादी में दहेज नहीं चलता है। दूसरी बात, शादी परिवार के मर्जी से नहीं होती है। लड़का-लड़की में आपसी सहमति होने पर लड़का लड़की को लेकर अपने घर भाग आता है। फिर शादी हो जाती है। कभी थोड़ा-मोड़ा लड़की के परिवार वालों से मनमुटाव होता है। फिर सब कुछ ठीक हो जाता है। अगर ऐसा नहीं हो पाया तो लड़के के परिवार वाले किसी लड़की के घर जाकर शादी की बात करते हैं। पर लड़की के ऊपर परिवार का कोई दबाव नहीं रहता है कि शादी करना लड़की की इच्छा पर निर्भर है। यहां शादी में ज्यादा रीति-रिवाज नहीं है। 

कुल मिलाकर ये रिवाज अच्छा है। दहेज नहीं है तो दहेज उत्पीड़न और दहेज हत्या नहीं होती है। किसी की जान तो नहीं जाती। यहां के लोग दुर्गम भौगोलिक क्षेत्र के कारण सुविधाओं के अभाव में हमसे पिछड़े हैं लेकिन सभ्यता, संस्कृति और व्यवहार में हम उनसे पिछड़े हैं।

लेखक प्रवीण कुमार सिंह से संपर्क : 9473881407,  [email protected]

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