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ये दुनिया

क्या आधुनिक युग के इंसान को किसी धर्म की जरूरत है?

: उत्तर आधुनिककाल में संस्थागत धर्मों के प्रति जनवादी शक्तियों के कार्यभार : धर्म ने इंसान को इंसानियत के कितने निचले पायदान पर पहुँचा दिया है इसका अंदाज़ा सांप्रदायिक दंगों में बरती जाने वाली हिंसा के तरीकों को देख लगाया जा सकता है. प्रतिपक्ष धर्म के लोगों, खासकर महिलाओं और बच्चों के प्रति प्रयुक्त हिंसा यह तथ्य स्थापित करता है कि एक दूसरे के प्रति उगले/निगले प्रचारित सांप्रदायिक ज़हर का रुप कितना भयंकर होगा? महिलाओं का सामुहिक बलात्कार, उनके कौमार्य अंग- भंग, जला देना, गला रेत देना,बच्चों को जला देना, काट देना यकायक यूँ ही नहीं हो जाता. यह कोई एकदम से घटने वाली परिघटना नहीं होती.इसके मनोवैज्ञानिक पहलुओं का अगर अध्ययन करें तो निश्चय ही पता लगेगा कि एक बडे दंगें को अंज़ाम देने के लिये जिस खास विकृत मनोदशा की जरुरत होती है, जिसके नशे में इंसान हैवान बन कर दूसरे इंसान को अपना शिकार बनाता चला जाता है, उसके पीछे वर्षों की तैयारी काम कर रही होती है.

<p>: <strong>उत्तर आधुनिककाल में संस्थागत धर्मों के प्रति जनवादी शक्तियों के कार्यभार</strong> : धर्म ने इंसान को इंसानियत के कितने निचले पायदान पर पहुँचा दिया है इसका अंदाज़ा सांप्रदायिक दंगों में बरती जाने वाली हिंसा के तरीकों को देख लगाया जा सकता है. प्रतिपक्ष धर्म के लोगों, खासकर महिलाओं और बच्चों के प्रति प्रयुक्त हिंसा यह तथ्य स्थापित करता है कि एक दूसरे के प्रति उगले/निगले प्रचारित सांप्रदायिक ज़हर का रुप कितना भयंकर होगा? महिलाओं का सामुहिक बलात्कार, उनके कौमार्य अंग- भंग, जला देना, गला रेत देना,बच्चों को जला देना, काट देना यकायक यूँ ही नहीं हो जाता. यह कोई एकदम से घटने वाली परिघटना नहीं होती.इसके मनोवैज्ञानिक पहलुओं का अगर अध्ययन करें तो निश्चय ही पता लगेगा कि एक बडे दंगें को अंज़ाम देने के लिये जिस खास विकृत मनोदशा की जरुरत होती है, जिसके नशे में इंसान हैवान बन कर दूसरे इंसान को अपना शिकार बनाता चला जाता है, उसके पीछे वर्षों की तैयारी काम कर रही होती है.</p>

: उत्तर आधुनिककाल में संस्थागत धर्मों के प्रति जनवादी शक्तियों के कार्यभार : धर्म ने इंसान को इंसानियत के कितने निचले पायदान पर पहुँचा दिया है इसका अंदाज़ा सांप्रदायिक दंगों में बरती जाने वाली हिंसा के तरीकों को देख लगाया जा सकता है. प्रतिपक्ष धर्म के लोगों, खासकर महिलाओं और बच्चों के प्रति प्रयुक्त हिंसा यह तथ्य स्थापित करता है कि एक दूसरे के प्रति उगले/निगले प्रचारित सांप्रदायिक ज़हर का रुप कितना भयंकर होगा? महिलाओं का सामुहिक बलात्कार, उनके कौमार्य अंग- भंग, जला देना, गला रेत देना,बच्चों को जला देना, काट देना यकायक यूँ ही नहीं हो जाता. यह कोई एकदम से घटने वाली परिघटना नहीं होती.इसके मनोवैज्ञानिक पहलुओं का अगर अध्ययन करें तो निश्चय ही पता लगेगा कि एक बडे दंगें को अंज़ाम देने के लिये जिस खास विकृत मनोदशा की जरुरत होती है, जिसके नशे में इंसान हैवान बन कर दूसरे इंसान को अपना शिकार बनाता चला जाता है, उसके पीछे वर्षों की तैयारी काम कर रही होती है.

इंसान एक झटके में ही शैतान नहीं बन सकता. उसे शैतान बनने के लिये जिस वैचारिक आधार की जरुरत होती है, यह तेज़ गति से उडने वाला विमान उसे उसका धर्म ही प्रदान करता है. हर धर्म में अपने को सर्वश्रेष्ठ साबित करने की दलीले मौजूद हैं. कोई भी धर्म अपने विचार को किसी दूसरे धर्म की तुलना में कमतर मानता ही नहीं है. उनमें अपने-अपने अनुयाईयों में एक खास तरह का नशा देने की प्रवृति समान रुप से देखने को मिलती है जिसके चलते हर धर्म का अनुयायी स्वंय को दूसरे खासकर प्रतिस्प्रधी धर्म के अनुयायी से बेहतर मानता है. यही सांप्रदायिक हिंसा के मूल का सबसे सूक्ष्म बिंदू है, इसी न्यूनतम बिंदू का विस्तार दंगा है जब कोई एक इंसान किसी दूसरे धर्म को मानने वालों का घर जला रहा होता है, तब उस हिंसा के मूल में प्रतिपक्षी धर्म को मूल रुप से स्माप्त कर देने की इच्छा ही काम कर रही होती है. सिर्फ़ खत्म करना भी मकसद नहीं होता, बल्कि इसके पीछे निर्दयतापूर्वक, बलपूर्वक, लज्जित और लांछित करके दुश्मन को परास्त करने की आदिम कालीन बर्बर कबायली मानसिकता काम कर रही होती है.
 
कहना न होगा, कि सभी संस्थागत धर्म आज के आधुनिक युग के इंसान को जबरन मध्य युग अथवा उससे भी निम्न स्तर यानि बार्बेरियन युग में खींच ले जाने का प्रमुख स्रोत है. क्या आधुनिक युग के इंसान को किसी धर्म की जरूरत है? और अगर है भी तो क्या उसकी समस्याओं का समाधान मध्यकालीन सभ्यताओं में जन्में और उन्हीं मूल्यों के वाहक तथाकथित धर्मों के पास है? क्या आधुनिक युग की विषमताओं के संदर्भ में मध्यकालीन धर्मों से कोई दिशा ली जा सकती है? मेरा स्पष्ट मत है कि किसी भी संस्थागत धर्म के पास आज के आधुनिक युग के समाज की कोई खबर है ही नहीं. जब इसका ज्ञान ही उन्हें नहीं तब समकालीन स्मस्याओं के समाधान के संदर्भ में उनकी दलीलें किसी दोयम दर्जे के ओझा के टोने टोटके से अधिक महत्व नहीं रखती. कोई मूर्ख ही इसे माने कि मूसा, ईसा, मौहम्मद, कृष्ण, बुद्ध आदि को शंघाई, लंदन, न्यूयार्क, बर्लिन, मुंबई के समाजों का ज्ञान था? उसने जुडी विषमताओं का कोई आभास था या किसी औद्योगिक समाज की बुनावट के बारे में उन्हें कोई समझ थी? क्या भेड बकरियां चराने वाले समाज के नायकों द्वारा आज के आधुनिक युग की समस्याओं को हल किया जा सकता है? कदापि नहीं, न ऐसा पिछले २०० साल में हुआ है न आगे होगा. ध्यातव्य है कि मौजूदा समय में इंसान का दैनिक जीवन बेहतर बनाने की किसी भी वस्तु, विचार अथवा तकनीक का आविष्कार किसी भी तथाकथित धर्म के जरिये आज तक नहीं हुआ है. इसका स्मस्त श्रेय आधुनिक विज्ञान को ही जाता है. आज की पीढी निश्चय ही सबसे गौरांवित पीढी है जिसने इस पृथ्वी के  तीव्रतम विकास को साक्षात अपने सामने घटते देखा है. डोट फ़ोन से सैटेलाईट फ़ोन का सफ़र पलक झपकते ही पिछले ३० सालों में संपन्न हुआ और यह स्पष्ट करना जरुरी है कि इस प्रक्रिया में किसी धार्मिक किताब की कोई भूमिका नहीं थी. 
 
यह भी सच है कि हम निरंतर बढ़ रहे अंतर्विरोधों की दुनिया में जी रहे हैं, एक ओर विज्ञान और उसके चमत्कारों ने जीवन को इतना सरल बनाया है तो दूसरी तरफ़ आर्थिक विषमताओं की गहरी खायी भी तैयार हुई है. सिर्फ़ धनपतियों के जीवन को विज्ञान के चमत्कार ने अलंकृत किया है. समाज के अभावग्रस्त तबके में उसका प्रचलन अभी व्यापक नहीं है. आमतौर पर अभी राज्य भी अपनी यह भूमिका तय नहीं कर पाया है कि वंचित तबके को तकनीकी सुख कब, कैसे और कितना दे? जैसे जैसे वैज्ञानिक तकनीकों का प्रचलन बढ़ा है उसी गति में संस्थागत धर्मों के प्रचार-प्रसार में भी तेज़ी आयी है. निर्ल्लज धार्मिक ठग समाज अपनी धन शक्ति के आधार पर विज्ञान की नवीनतम उपल्बधियों  का प्रयोग करके  टोने टोटके बेचने के अपने आपराधिक क्रियाओं में संलिप्त है.  आमतौर पर भारत में बढ रहे बाबा-बाबी, मंदिर, दरगाहों, चैनलों पर बैठे धार्मिक ठगों के प्रचार प्रसार को, विभिन्न धर्मों के ज़ाकिर नायक जैसे कथावाचकों के कार्यक्रमों आदि को धर्म अथवा धार्मिक क्रिया का रुप मान लेना एक भंयकर भूल होगा. इन प्रचार उद्यमों के जरिये जो ठगी की जा रही है उसका धर्म से कोई लेना देना है ही नहीं. दर असल उपरोक्त उपक्रमों के माध्यम से ये तमाम लोग किसी बडे दंगें की, किसी बडी मानवीय  विडंबना की भूमिका लिख रहे होते हैं. ये तमाम धार्मिक अपराधी अपने अपने धर्म के अनुयाईयों को वही सूक्ष्म सर्वश्रेष्ठवादी विचार की घुट्टी पिला रहे होते हैं जिसके वक्त पडते ही वह किसी नारे का बस एक तडका भर मारेगा और भीड बेकाबू हो जायेगी, फ़िर टूट पडेगी अपने कथित धार्मिक दुश्मन पर..महिलाओं की छातियां काटने फ़रसे निकल पडेंगे,बलात्कार सड़क पर लिटा कर सरेआम किया जायेगा, भागते हुए इंसान पर पैट्रोल डाल कर आग लगा दी जायेगी. कलमा पढ कर तलवारें किसी के सिर को घड़ से एक झटके में अलग कर देगी तो कहीं जय श्री राम करते हुए जलते हुये टायरों के बीच बच्चों को पटक दिया जायेगा.
 
भारत में धर्म गुरुओं का प्रचलन जिस तेज़ी से बढा है उसकी सबसे महत्वपूर्ण रीढ तेज़ी से उभरता हुआ मध्यवर्ग है. प्रचलित धर्म मध्यवर्गीय आपराधिक प्रवृति ही है जिसकी चादर ओढ़ कर वह समाज में अपने खोटे सिक्के की स्वीकृति धडल्ले से करा लेता है. झटके से पैसा कमाने वाले के पास तालीम सिरे से गायब है और अगर कोई शिक्षित है भी तब उसका कोई वैज्ञानिक चिंतन हुआ हो यह भी जरुरी नहीं, करोड़ों के मकान बना लेने के बाद इनके घरों पर काले रंग की हांडी, इनकी कारों के नीचे लटकी चुटिया, शराब के नशे में चलने वाले जागरण, मुसलमानों की वहशी हज यात्रायें इनकी सोच के लंपट तत्व को जगजाहिर करती हैं. मध्य वर्ग की इस मनोविकृतियों को धर्म के तथाकथित ठेकेदारों ने भलि भांति समझा है इसी कारण इन दोनों सामाजिक कोढ़ियों का अभ्युदय तीव्र गति से हुआ है और एक दूसरे की खाज मिटा कर पैसा बनाना दोनों का व्यवहारिक पेशा बन गया है. भारत के जितने भी तथाकथित धर्म गुरु हैं उनके विकास के पीछे कोई न कोई व्यापारी अथवा व्यवसायिक घराने का होना इस तथ्य की निर्णायक पुष्टि करता है.

इन समाजिक अपराधियों का पर्दाफ़ाश करना आज एक अति महत्वपूर्ण दायित्व बन गया है. ये तत्व जनता के उस मध्यवर्ग की सोच को अपने-अपने धर्मों की चुस्की देकर मोथरा कर देते हैं जिन्हें सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक बदलाव की किसी मैलिक लडाई में एक निर्णायक भूमिका अदा करनी थी. समाज के मौलिक, मूलभूत प्रश्नों पर पर इन तथाकथित धार्मिक गुरुओं का समुहिक चुप्पी से इस परजीवी वर्ग की एकजुटता स्पष्ट नज़र आती है. इसके प्रमाण में मैं यही कहना चाहुंगा कि आज तक कोई भी गुरु-घंटाल, कथावाचक अथवा माता देश में चल रहे किसी भी मौलिक आंदोलन के पक्ष में नहीं बोलता दिखाई देता और न ही इनमें यह साहस कि वह दांतेवाडा, बस्तर अथवा उडीसा, आंध्र प्रदेश के बीहडों में अपना कोई जागरण आयोजित करें. कोई माता आजतक इरोम शर्मील से नहीं मिली, कोई नायक कश्मीर में जाकर नहीं बोला, किसी शंकर का घंटा किसी आत्महत्या करने वाले किसान के घर एक टोकरी रोटी के साथ नहीं बजा. यदि इस वर्ग का कोई  झुकाव देखने को मिला तो अपने हितों और स्वार्थों के अनुरुप अन्ना जैसे पौंगा पंडित आंदोलन में इनकी उपस्थिती मिली क्योंकि इन दोनों वर्गों का समाज में समर्थक समुह एक ही है, लुटेरा मध्यवर्ग, झटके से पैसा कमाने वाला तेज़ छाप करोडपति जिसकी तलछन वक्त पडने पर सडकों पर अपने-अपने धर्मों की रक्षा करने इंसानी लहू से होली खेलने से नहीं कतराती. इसी लंपट तत्व का राजनैतिक हीरो कभी ठाकरे तो कभी बुखारी तो कभी मोदी होता है.
 
समाज की मूलगामी बदलाव की शक्तियों को धर्म के परंपरागत इतिहास और उसके आडंबरी चेहरे को बेनकाब करना आज जनवादी ताकतों के एजेण्डे से सिरे से गायब है. धर्म के नाम पर कद्दावर नेताओं को चुप होते देखना आज से पचास साल पहले की मजबूरी हो सकता है परंतु आज इस खामोशी को तोड़ना जरूरी प्रश्न है. जनवादी शक्तियों के पास भले ही इतने संसाधन न हों कि वह धार्मिक ठगों के प्रचार-प्रसार का मुकाबला कर सकें, लेकिन जहां भी हैं उन्हें उनकी खामोशी के लिये कल जवाब देना होगा. आने वाली पीढी निश्चय ही उनसे प्रश्न जरुर करेंगी कि धार्मिक मूढ़ओं के इस कदर प्रचलन में उनकी चुप्पी का कितना बडा योगदान रहा? यह सही है कि इस संदर्भ में राज्य अपने उत्तरदायित्वों की पूर्ति भलिभांति न कर सका परन्तु समाज में एक सामाजिक और राजनैतिक इकाई के बतौर जनवादी शकियों ने क्या पहलकदमी ली? क्या वह काफ़ी थी? क्या वे किसी बर्फ़ को तोड़ने में सक्षम हुई? इन सब प्रश्नों का उत्तर आने वाले समय को देगा.
 
धर्म के नाम पर भारत के सांप्रदायिक दंगों का इतिहास लगभग सौ साल पुराना है अब इसका विस्तार पूरे उपमहाद्वीप में हो चुका है. पश्चिमी बर्मा कदो ज़िलों में इन दिनों बुद्ध और मुसलमान जनजातियों के सांप्रदायिक दंगे चल रहे हैं. तीन जून को एक बुद्धिस्त नवयुवती का बलात्कार करने के बाद उसका गला रेत कर हत्या कर दी गयी, उसके गुप्तांगों, छातियों में छुरे घोपे गये. पुलिस ने तीन अपराधियों को पकड़ लिया. जुमे का दिन आया, लोग नमाज़ पढ़ने गये, नमाज़ के बाद इन्हीं नमाज़ियों ने शहर में हिंसा का तांडव किया. अभी तक 29 लोगों के मारे जाने, हजारों घरों को जलाने की खबर है. स्थिती अभी भी तनाव पूर्ण है. बुद्ध धर्म शांति का प्रर्याय माना जाता है, इस्लाम के पास शांति के समस्त कापीराईट्स का एकाधिकार है. हिंदुओं के बिना शांति का ज्ञान उपलब्ध ही नहीं होगा, ईसा-मूसा वाले हथियारों से अफ़गानिस्तान, इराक में शांति स्थापित कर ही रहे हैं. ज़मीनी हकीकत यही है जो आज बर्मा में हो रहा है, जो आज बोको हराम नाईजीरिया में कर रहा है, जो कल गुजरात में हुआ, कानपुर, दिल्ली, मेरठ में हुआ. क्या हम कभी मूल प्रश्न पर विचार करेंगे कि यह कौन सी शिक्षा है जो हमें हैवान बना रही है? क्या इन अपराधियों का सामाजिक-राजनैतिक औचित्य है? क्या धर्म को समाज में विषवमन करने की इज़ाज़त है? क्या इस तथाकथित धर्म के चेहरे को बेनकाब करने, उसके प्रति जनता के हक में हमलावर रुख अख्तियार करने का यह सही समय नहीं है?

लेखक शमसाद एल्ही शम्स सोशल मीडिया एक्टिविस्ट हैं. उनका यह लिखा उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है.

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