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पत्रकार भी तो इंसान होते हैं…

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है और सभी इस बात को समझते-जानते हैं कि यह मीडिया की ही ताकत है जो हमें घर बैठे ही देश के हर हिस्से की जानकारी मिल जाती है। आज के इस सूचना तकनीक के दौर में मीडिया देश के हर कोने में स्थापित हो चुका है और अब किसी खबर का पता लगना बहुत बड़ी बात नहीं रह गयी है। मीडिया ने भी अपनी एक अलग पहचान बनाई है लेकिन इसी के पीछे एक कड़वा सच यह भी है कि आज मीडियाकर्मियों को किसी खबर को दिखाने या उसके बारे में जानकारी निकालने के लिये अपनी जान पर खेलना पड़ता है।

<p>मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है और सभी इस बात को समझते-जानते हैं कि यह मीडिया की ही ताकत है जो हमें घर बैठे ही देश के हर हिस्से की जानकारी मिल जाती है। आज के इस सूचना तकनीक के दौर में मीडिया देश के हर कोने में स्थापित हो चुका है और अब किसी खबर का पता लगना बहुत बड़ी बात नहीं रह गयी है। मीडिया ने भी अपनी एक अलग पहचान बनाई है लेकिन इसी के पीछे एक कड़वा सच यह भी है कि आज मीडियाकर्मियों को किसी खबर को दिखाने या उसके बारे में जानकारी निकालने के लिये अपनी जान पर खेलना पड़ता है।</p>

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है और सभी इस बात को समझते-जानते हैं कि यह मीडिया की ही ताकत है जो हमें घर बैठे ही देश के हर हिस्से की जानकारी मिल जाती है। आज के इस सूचना तकनीक के दौर में मीडिया देश के हर कोने में स्थापित हो चुका है और अब किसी खबर का पता लगना बहुत बड़ी बात नहीं रह गयी है। मीडिया ने भी अपनी एक अलग पहचान बनाई है लेकिन इसी के पीछे एक कड़वा सच यह भी है कि आज मीडियाकर्मियों को किसी खबर को दिखाने या उसके बारे में जानकारी निकालने के लिये अपनी जान पर खेलना पड़ता है।

इसी परिदृश्य में सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि हमारे देश में पत्रकार कितने सुरक्षित हैं। यदि हम एक आम इंसान के तौर पर देखें तो पत्रकारों को कोई खास सुविधा न तो सरकार ही देती है और न ही अन्य कोई आवश्यक संसाधन ही उसके पास हो सकते हैं। एक पत्रकार की हमेशा यही कोशिश रहती है कि किसी भी खबर की तह में जाकर उसकी तफ्तीश करते हुये सच को सामने लाया जाये और फिर उसके समाधान खोजने की दिशा में कदम उठाये जायें। लेकिन आजकल हर खबर पर राजनीति शुरू हो जाती है। एक तथ्य यह भी है कि तमाम खराब परिस्थितियों के चलते पत्रकारों को अपनी जान से हाथ भी धोना पड़ जाता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हाल ही में शाहजहांपुर के पत्रकार जगेन्द्र सिंह तथा व्यापमं घोटाले की तफ्तीश में लगे आजतक के पत्रकार अक्षय सिंह की हत्या के मामले हैं।
      हमारे देश में पत्रकार कितने असुरक्षित हैं, इस बात का खुलासा भारतीय प्रेस परिषद की हाल ही में जारी एक रिपोर्ट में किया गया है। इस रिपोर्ट में साफ बताया गया है कि लोकतांत्रिक देश भारत में पिछले ढाई दशक के दौरान 1990 से 2015 में 80 पत्रकारों की मौत हो गयी है। परिषद् के मुताबिक, पत्रकारों के लिए सबसे असुरक्षित पूर्वोतर राज्य हैं जहां 80 में से सबसे ज्यादा 32 पत्रकार मारे गए। अकेले असम राज्य में जहां 22 पत्रकारों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और सबसे बड़ी बात यह है कि अब तक मारे गए पत्रकारों के 93 प्रतिशत मामले में किसी को भी सजा नहीं हुई है।
पत्रकारों की सुरक्षा की नजर से पत्रकारों के लिए सबसे बुरा हाल पूर्वोतर और जम्मू कश्मीर राज्य का है जहां उनके लिए परिस्थियां सबसे खराब हैं। इससे साफ हो जाता है कि दूसरों को न्याय दिलाने के लिये अग्रिम पंक्ति में खड़े एक पत्रकार की जान की कोई कीमत नहीं है। इतना ही नहीं भारतीय प्रेस परिषद् की रिपोर्ट के मुताबिक, जब असम पुलिस महानिदेशक से पत्रकारों की हत्या के बारे में जानकारी मांगी गयी तो उनका कहना था कि उनके पास पत्रकारों के मारे जाने की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है और आगे के बारे में यह टाल दिया गया।
   उत्तरप्रदेश के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक से मिलकर राज्य में पत्रकारों पर हिंसा की हालत के बारे में भी जानने की कोशिश की गयी लेकिन उनकी तरफ से भी आज तक कोई रिपोर्ट नहीं भेजी गयी है। इस रिपोर्ट में 11 राज्यों का दौरा कर 1200 पत्रकारों-संपादकों से मिलकर पिछले 25 वर्ष में मारे गए पत्रकारों का यह आंकड़ा इकट्ठा किया है। इसमें 1999 में तेलंगाना के इनाडू के रिपोर्टर मल्लेपुल्ला नरेंद्र से लेकर जगेन्द्र सिंह तथा संदीप कोठारी का भी जिक्र है जिनकी हत्या कर दी गई।
एक पत्रकार का काम होता है कि वह जो भी गलत देखे, उन चीजों को जनता के सामने बिना किसी लाग-लपेट के सामने लाये और सच्चाई से रूबरू कराये। जनता को हर तथ्यों से जागरूक करना पत्रकार का कर्तव्य होता है और बाद में उस पत्रकार की यदि मौत हो जाती है तो उसके परिजनों का क्या हाल है, वह किस हालात में अपनी जिंदगी काट रहे हैं, इन सब के बारे में कोई खबर नहीं होती और न ही पत्रकारों के कातिलों को सजा मिलती है। हाल ही में एक जानकारी मिली थी कि एक प्रतिष्ठित अखबार के कर्मी जंतर मंतर पर धरना प्रदर्शन दे रहे हैं लेकिन यह सचमुच बेहद मुश्किल है कि कोई भी अन्य बड़ा चैनल अथवा अखबार इस ‘खबर’ को प्रसारित या प्रकाशित करेगा।
हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है और इस लोकतंत्र के तीन स्तंभ संविधान में कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के अलावा चौथा स्तंभ मीडिया को दिया गया है। इसकी उपयोगिता उस समय सार्थक सिद्ध होती नज़र आती है जब आप एक पत्रकार हैं और इस बात को आपके पडोस में रहने वाले जानते हैं तो जाहिर तौर पर किसी समस्या के समाधान का रास्ता जानने के लिये वह आपके पास आते हैं क्योंकि समाज को एक उम्मीद नज़र आती है कि यह व्यक्ति हमारी समस्या का समाधान न करवा सके लेकिन कम-से-कम रास्ता जरूर बता सकता है। इतना ही नहीं किसी बात को नहीं जानने पर यदि आप उसको वापिस लौटा देते हैं तो आपसे जुड़ी उसकी उम्मीदों पर पानी फिर जाता है।
हालांकि बार बार यह सवाल पत्रकारों की तरफ उठता रहता है कि वे खबरों का व्यापार करते हैं, उन्हें बेचते हैं और उन्हें ‘दलाल’ तक की संज्ञा दी जाती है। इस मामले में प्रेस परिषद् को आगे आना चाहिये और यदि ऐसे मामले सामने आते हैं तो आरोपियों को सार्वजनिक करने पर भी चिन्तन करना चाहिए। यह समय की जरूरत है कि मीडिया में व्याप्त भ्रष्टाचार के उन्मूलन को ध्यान में रखकर भी काम किया जाये।
पत्रकारों के विकास के बारे में कभी सोचने की आवश्यकता नहीं समझी गयी और न ही ऐसी कोई खास सुविधायें उनको मिलीं। यह सच है कि एक पत्रकार को भी वही मूल अधिकार मिले हैं जो किसी आम इंसान को संविधान और कानून देता है। उन्हें किसी तरह के खास अधिकार नहीं दिये गये हैं लेकिन वे भी इंसान हैं जो तमाम तरह की खबरों को जनता तक पहुंचाने का काम करते हैं, उन्हें सच से रूबरू कराते हैं और एक जन प्रतिनिधि के तौर पर काम करते हैं। ऐसे में आयी इस रिपोर्ट के बाद यह जरूरत महसूस होती है कि पत्रकारों के हितों की रक्षा भी होनी चाहिये।

तरुण वत्स
उप-संपादक, यूनीवार्ता न्यूज एजेंसी

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