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किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों को क्यों और कैसे घटा रही है सरकार, जानें वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ की जुबानी

किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों में बड़े पैमाने पर हेरफेर की शुरुआत छत्तीसगढ़ में 2011 में हुई. राज्य के आंकड़ों के मुताबिक़, 2006 से 2010 के बीच हर साल औसतन 1,555 किसानों ने आत्महत्याएं की थीं. 2011 में यह संख्या शून्य हो गई. 2012 में ये महज़ चार बताई गई. 2013 में ये फिर से शून्य हो गई. पश्चिम बंगाल ने भी इसी तरीक़े को 2012 में अपना लिया. इसके बाद दूसरे राज्यों में भी आंकड़ों के हेरफेर का सिलसिला शुरू हो गया.

<p>किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों में बड़े पैमाने पर हेरफेर की शुरुआत छत्तीसगढ़ में 2011 में हुई. राज्य के आंकड़ों के मुताबिक़, 2006 से 2010 के बीच हर साल औसतन 1,555 किसानों ने आत्महत्याएं की थीं. 2011 में यह संख्या शून्य हो गई. 2012 में ये महज़ चार बताई गई. 2013 में ये फिर से शून्य हो गई. पश्चिम बंगाल ने भी इसी तरीक़े को 2012 में अपना लिया. इसके बाद दूसरे राज्यों में भी आंकड़ों के हेरफेर का सिलसिला शुरू हो गया.</p>

किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों में बड़े पैमाने पर हेरफेर की शुरुआत छत्तीसगढ़ में 2011 में हुई. राज्य के आंकड़ों के मुताबिक़, 2006 से 2010 के बीच हर साल औसतन 1,555 किसानों ने आत्महत्याएं की थीं. 2011 में यह संख्या शून्य हो गई. 2012 में ये महज़ चार बताई गई. 2013 में ये फिर से शून्य हो गई. पश्चिम बंगाल ने भी इसी तरीक़े को 2012 में अपना लिया. इसके बाद दूसरे राज्यों में भी आंकड़ों के हेरफेर का सिलसिला शुरू हो गया.

दरअसल किसानों की आत्महत्या राजनीतिक तौर पर नुकसान पहुंचाने वाला मुद्दा बन गया है. ऐसे में एनसीआरबी की ओर से किसानों की आत्महत्या को नए फ़ॉरमेट में बताने से राज्य सरकारों के लिए किसानों की आत्महत्या को कम करके बताना और आसान हो गया है. जो नई कैटेगरी, सब-कैटेगरी शामिल की गई हैं, वह इस तरह से हैं – भूमि वाले किसान, ठेके पर खेती करने वाले किसान, खेतिहर मज़दूर इत्यादि. एनसीआरबी के मुताबिक नए सिरे से कोई नया वर्ग नहीं बनाया गया है, बस 19 सालों से प्रकाशित सूची में थोड़ा बदलाव किया गया है.

खेती-किसानी में स्वरोजगार का वर्ग ऐसा ही एक वर्ग है. पहले कभी खेतिहर मज़दूरों को एनसीआरबी के आंकड़े या फिर कहीं और भी, स्वरोजगार में शामिल नहीं माना गया. दरअसल खेतिहर मज़दूरों की सबसे बड़ी पहचान ही यही है कि उनका स्वरोजगार नहीं है. वे काम की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह तक भटकते रहते हैं. बहरहाल, नए फॉरमेट का असर 2014 के आंकड़ों पर भी पड़ा है. अखिल भारतीय किसान सभा की उपाध्यक्ष माला रेड्डी कहती हैं, “एनसीआरबी ने 2014 में, ठेके पर खेती करने वालों को खेतिहर मज़दूर मान लिया है.”

ठेके पर खेती करने वाले किसानों के अलावा किसानों की आत्महत्या के नवीनतम आंकड़ों में दूसरी मुश्किलें भी हैं. मसलन “अन्य” वर्ग में आत्महत्या के मामले में भारी बढ़ोतरी देखने को मिली है. बीते 19 सालों से एनसीआरबी के आंकड़ों से सटीक आंकड़े भले नहीं मिलते हों, लेकिन मोटा मोटी अंदाज़ा मिल जाता था. लेकिन अब यह विश्वसनीयता भी दांव पर है. सरकार ने किसानों की आत्महत्या को नए सिरे से क्यों वर्गीकृत किया? क्या इन आंकड़ों से सरकार को शर्मसार होना पड़ता था? या फिर सरकार द्वारा एकत्रित आंकड़े ही तस्वीर को बढ़ा चढ़ाकर पेश करने वाले होते थे?

एनसीआरबी का कहना है कि फॉरमेट में बदलाव एक रूटीन प्रक्रिया है. एजेंसी की ओर से कहा गया है, “विभिन्न साझेदारों के अनुरोध को देखते हुए यह एक नियमित प्रक्रिया है.” लेकिन सरकार या किसी दूसरी एजेंसी की ओर से फॉरमेट में बदलाव का कोई आधिकारिक अनुरोध का रिकॉर्ड नहीं मिलता. हालांकि ऐसा लगता है कि एजेंसी ने कृषि मंत्रालय के 2013 के अनुरोध के मुताबिक यह बदलाव किया है. उस वक्त शरद पवार देश के कृषि मंत्री थे.

इस बदलाव के पीछे क्या तर्क हो सकता है – पहले सारी कैटेगरी एक ही जगह थी, तो अब हम सबको अलग अलग करके इसे तर्कसंगत बना रहे हैं. पहले के आंकड़ों में सभी किसान नहीं थे. लेकिन यह तर्क काम नहीं करेगा क्योंकि 2013 के आंकड़ों में खेती किसानी में स्वरोजगार अलग से स्पष्ट था. खेतिहर मज़दूर स्वरोजगार के दायरे में नहीं आ सकते. संसद में सालों तक उठने वालों सवालों के बीच सरकार ने केवल किसानों की आत्महत्या के एनसीआरबी के आंकड़ों का हवाला दिया है, किसी दूसरे वर्ग की आत्महत्याओं को उसमें शामिल नहीं किया है.

किसानों की लगातार बढ़ती मुश्किलों (आत्महत्या उसका एक पहलू भर है) पर सरकार की प्रतिक्रिया क्या है? सरकार का ध्यान समस्या का सामना करने पर नहीं है बल्कि किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों को नगण्य ठहराने के लिए हथकंडे अपनाने पर है. किसानों की आत्महत्या के मामलों को शून्य बताना उसी हथकंडे का हिस्सा है. इस साल आंकड़ों के साथ खेल कहीं ज़्यादा बेहतर तरीके से हुआ है. इसकी एक वजह तो यह है कि अगर हम आंकड़ों को नहीं जानेंगे तो कोई समस्या नहीं रहेगी. गिनती के तरीके को बदलिए, आंकड़े ही बदल जाएंगे. और देश भर में चुप्पी भी देखने को मिलेगी.

पी. साईनाथ देश के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार है और खेती-किसानी के मामलों के विशेषज्ञ हैं.

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