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मजीठिया वेज बोर्ड: हकीकत में जिएं, मृग मरीचिका में नहीं

मजीठिया ने मीडिया कर्मियों को आशा-निराशा के रंगों में ऐसा उलझा दिया है कि वे दूसरे रंगों को तकरीबन बिसार बैठे हैं। सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, घूमते-घामते, मिलते-जुलते, बोलते-बतियाते मजीठिया वेज बोर्ड की संस्तुतियां साये की तरह उनके इर्द-गिर्द मंडराती रहती हैं। कभी अहसास दिलाती हैं कि वे तो उनकी पकड़ में ही हैं और कभी लगता है कि वे महज मृग मरीचिका हैं। यह स्थिति मौजूदा वक्त में कुछ ज्यादा ही हो गई है जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश जारी हुए पांच महीने से अधिक हो गए हैं और न ही देश के सभी प्रदेशों के लेबर कमिश्नरों ने अपनी रिपोर्ट माननीय सर्वोच्च न्यायालय को भेजी है और न ही इंसाफ के मंदिर में सुनवाई की अगली तारीख की घंटी बज रही है।

<p>मजीठिया ने मीडिया कर्मियों को आशा-निराशा के रंगों में ऐसा उलझा दिया है कि वे दूसरे रंगों को तकरीबन बिसार बैठे हैं। सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, घूमते-घामते, मिलते-जुलते, बोलते-बतियाते मजीठिया वेज बोर्ड की संस्तुतियां साये की तरह उनके इर्द-गिर्द मंडराती रहती हैं। कभी अहसास दिलाती हैं कि वे तो उनकी पकड़ में ही हैं और कभी लगता है कि वे महज मृग मरीचिका हैं। यह स्थिति मौजूदा वक्त में कुछ ज्यादा ही हो गई है जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश जारी हुए पांच महीने से अधिक हो गए हैं और न ही देश के सभी प्रदेशों के लेबर कमिश्नरों ने अपनी रिपोर्ट माननीय सर्वोच्च न्यायालय को भेजी है और न ही इंसाफ के मंदिर में सुनवाई की अगली तारीख की घंटी बज रही है।</p>

मजीठिया ने मीडिया कर्मियों को आशा-निराशा के रंगों में ऐसा उलझा दिया है कि वे दूसरे रंगों को तकरीबन बिसार बैठे हैं। सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, घूमते-घामते, मिलते-जुलते, बोलते-बतियाते मजीठिया वेज बोर्ड की संस्तुतियां साये की तरह उनके इर्द-गिर्द मंडराती रहती हैं। कभी अहसास दिलाती हैं कि वे तो उनकी पकड़ में ही हैं और कभी लगता है कि वे महज मृग मरीचिका हैं। यह स्थिति मौजूदा वक्त में कुछ ज्यादा ही हो गई है जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश जारी हुए पांच महीने से अधिक हो गए हैं और न ही देश के सभी प्रदेशों के लेबर कमिश्नरों ने अपनी रिपोर्ट माननीय सर्वोच्च न्यायालय को भेजी है और न ही इंसाफ के मंदिर में सुनवाई की अगली तारीख की घंटी बज रही है।

    निश्चित रूप से मजीठिया वेज बोर्ड के हिसाब से वेतन एवं सुविधाएं पाने की ललक-लालसा, ख्वाहिश प्रिंट मीडिया के पत्रकार एवं गैर पत्रकार समेत सभी कर्मचारियों की है। यहां तक कि कॉन्ट्रैक्ट एवं अंशकालिक कर्मचारियों को भी उम्मीद है कि उन्हें मजीठिया की संस्तुतियों में उनके लिए किए गए प्रावधान के मुताबिक वेतन और सुविधाएं अवश्य मिलेंगी। यह अलग बात है कि वे लोग इसके लिए खुलकर नहीं बोल रहे हैं। बोल भी नहीं सकते क्योंकि मालिकों-मैनेजमेंट की शातिराना-जुल्मी-जालिमाना, निर्मम-घातक-अत्याचारी तलवार उनकी गर्दन पर हमेशा लटकती रहती है। कब सिर कलम कर दिया जाए यानी नौकरी से निकाल दिया जाए, पता ही नहीं होता। वैसे भी उनके लिए नियम-कायदे मालिकों के हुक्म से ज्यादे कुछ नहीं होते। जिन कर्मचारियों के लिए एक तरह से सख्त-कड़े नियम-कानून बने भी हैं उन्हें भी मीडिया मालिकान मानने-पालन करने की जहमत नहीं उठाते तो कॉन्ट्रैक्ट एवं अंशकालिक कर्मचारियों की बिसात ही क्या है?
  हालांकि विभिन्न श्रम कानूनों पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि फिलहाल ऐसा कोई श्रम कानून नहीं है जिसमें किसी भी श्रेणी-किस्म के कर्मचारी-वर्कर-मजदूर को उससे बाहर किया गया है। लेकिन बेशुमार दौलतों के मालिकों की मनबढ़ी-बदमाशी और सत्ता, सियासत में बैठे उनके रक्षकों, रखवालों, संरक्षण-शह देने वाले प्रभावशाली लोगों की बदौलत वे कर्मचारियों को कुछ नहीं समझते। संपत्ति एवं पहुंच-प्रभाव के मद में वे इतने चूर रहते हैं कि वे उस कानून को भी धूल-मिट्टी समझते हैं जिसे इस देश की अवाम, खासकर मेहनतकश अवाम ने लड़कर हासिल किया है। वे खुद को न्यायपालिका, सर्वोच्च अदालत से भी ऊपर समझते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो मीडिया मालिक स्वयं को ईश्वर से भी ऊपर, उससे भी बड़ा समझते हैं। तभी तो प्रदेशों की सरकारों में सर्वोच्च पदों पर बैठे अफसरों यानी मुख्य सचिवों एवं लेबर कमिश्नरों (कुछ प्रदेशों को छोडक़र) की अभी तक हिम्मत नहीं पड़ी है कि वे सबसे बड़ी अदालत के फरमान को फॉलो करते हुए अपनी रिपोर्टें उस तक पहुंचाएं।
   प्रिंट मीडिया कर्मियों के हक-हितों की उन्हें जरा भी फिक्र-परवाह नहीं है। उन्हें फिक्र है तो केवल और केवल मोटी चमड़ी वाले मीडिया मालिकों एवं उनके रखवालों-खैरख्वाहों की। इसकी एक ज्वलंत पर कर्णभेदी, हृदयविदारक मिसाल बीते सितंबर माह में सुनने को मिली। बताया गया कि चंडीगढ़ में श्रम मंत्रालय के एक आला ओहदेदार की अगुआई में अनेक प्रदेशों के बड़े श्रम अधिकारियों की एक अहम बैठक हुई। हालांकि बैठक का एजेंडा कुछ और था लेकिन एक राज्य के लेबर कमिश्नर ने मजीठिया पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का मामला उठा दिया। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार मजीठिया को लेकर कर्मचारियों की जो स्थिति है और मालिकान-मैनेजमेंट ने जो कारगुजारियां कर रखी हैं, उन पर रिपोर्ट बनाकर सर्वोच्च न्यायालय को शीघ्रातिशीघ्र भेजना है। लेकिन दिक्कत यह है कि मीडिया से पंगा कौन ले? तकरीबन सभी मीडिया संस्थानों ने कर्मचारियों से जबरन लिखवा लिया है वे मौजूदा सैलरी, भत्ते एवं संस्थान प्रदत्त सुविधाओं से संतुष्ट हैं। उन्हें मजीठिया की जरूरत नहीं है। इस संदर्भ में उन्होंने धारा 20 जे का हवाला दिया। उनके मुताबिक ऐसी स्थिति में हमारे द्वारा दी गई रिपोर्ट पर अंकुश लगेगा। हम अखबारी संस्थानों से किसी प्रकार का सीधे पंगा नहीं लेना चाहते, किसी तरह का टकराव नहीं चाहते। बेहतर होगा कि भारत सरकार सभी अखबार संस्थानों को निर्देश दे कि वे अपनी रिपोर्टें सीधे भेजें। हमसे सीधे रिपोर्ट देने को न कहा जाए। उन्होंने कहा कि श्रम विभाग सरकारी महकमा है। उसकी ओर से सही रिपोर्ट आने की संभावना नहीं है। इस दिशा में भारत सरकार को स्वयं कार्यवाही करनी चाहिए।
   आला श्रम अधिकारी के उक्त विचार-सुझाव साफ संकेत देते हैं कि अफसरशाही, जिसमें श्रम अधिकारी और बड़ी नौकरशाही के आला अधिकारी यानी चीफ सेक्रेटरी शामिल हैं, कोई भी अखबारी मालिकों से सीधे टकराव नहीं चाहता, पंगा नहीं लेना चाहता। इसकी सबसे बड़ी वजह अखबार मालिकों की सीधी सियासी पहुंच, सत्ताधीशों से सांठगांठ, मिलीभगत है। यहां तक अनेक सियासतदानों, सत्ताधारियों के खुद के अखबार हैं। मसलन हरियाणा के वित्तमंत्री का अखबार हरिभूमि है जो कई जगहों से प्रकाशित होता है। सूत्रों की मानें तो उन्होंने खुद ही अफसरों को ऐसी कोई रिपोर्ट देने से बचने की नसीहत दी है जिसमें मजीठिया की संस्तुतियों के विपरीत किसी अखबारी संस्थान ने कोई हरकत की हो। मीडिया मालिकों और राजनीतिकों-पक्ष एवं विपक्ष की एकजुटता के ऐसी अनेक मिसालें भरी पड़ी हैं। तभी तो मजीठिया के लिए चल रहे कर्मचारियों के संघर्ष-आंदोलन और न्याय युद्ध के समर्थन में सियासतबाजों (दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल एवं उनकी पार्टी को छोडक़र) की एक भी आवाज नहीं सुनाई पड़ रही है।
  सवाल यह है कि श्रम अधिकारियों और मुख्य सचिवों को आदेश किसने दिया है? प्रधानमंत्री, किसी केंद्रीय मंत्री, किसी मुख्यमंत्री, या इनसे मिलते जुलते किसी सुपर अथॉरिटी ने? या कार्यपालिका के सबसे बड़े मुखिया ने? नहीं न! इनमें से किसी ने नहीं न! तो फिर किसने दिया है? अरे भई न्यायपालिका ने, न्याय के सबसे बड़े मंदिर ने! वह भी, यह आदेश सबसे बड़ी अदालत की अवमानना से जुड़ा हुआ है। सारे मीडिया कर्मियों- जिसने कंटेम्प्ट केस किया है और जिसने नहीं किया है- सबको पता है कि सुप्रीम कोर्ट ने अखबारी मालिकों की फर्जी-झूठी, उलझाऊ, नकली, सच से कोसों दूर सबूतों-दलीलों को नकारते हुए राज्य सरकारों के मुख्य सचिवों और लेबर कमिश्नरों को आदेश दिया था कि वे अखबारों की स्टेटस रिपोर्ट सीधे उसे प्रेषित करें। ऐसे में बताइए कि ये अफसर सर्वोच्च न्यायालय के प्रति जवाबदेह हैं कि भारत सरकार या किसी सियासी पार्टी या किसी सियासतबाज या किसी पहुंचबाज के प्रति? नहीं न! वे तो सबसे बड़ी अदालत के प्रति ही जवाबदेह हैं न! हां जी, उन्हें जवाब-रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सीधे और यथाशीघ्र भेजनी है।
   यह अलग बात है कि अपनी प्रैक्टिस, अपनी आदत, अपनी कथित-तथाकथित मजबूरी के कारण पांच माह बीत जाने के बाद भी कई प्रदेशों ने अपनी रिपोर्ट अभी तक माननीय सुप्रीम कोर्ट को नहीं भेजी है या भेजने से बच रहे हैं या बहानेबाजी-हीलाहवाली कर रहे हैं। पर कब तक करेंगे? रिपोर्ट तो भेजनी ही पड़ेगी। कोई बहाना नहीं चलेगा। मामला कंटेम्प्ट का है। फंसेंगे तो कोई बचाने नहीं आएगा। लेबर कमिश्नरों और चीफ सेक्रटरीज को इसका अहसास न हो, ऐसा मुमकिन नहीं है। सरकारी तंत्र को चलाने, यहां तक कि नियंत्रित करने में इन अफसरान की बड़ी भूमिका, बड़ा रोल होता है, मीडिया बंधु इसे बखूबी समझते-जानते हैं। ऐसे में साथियों आपसे अनुरोध है, अपेक्षा है कि मायूस न हों। हिम्मत रखें, हौसला रखें। हकीकत में जिएं, मृग मरीचिका में नहीं। देर हो सकती है, पर इंसाफ अवश्य मिलगा। इसे हासिल करने से कोई नहीं रोक सकता।

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