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सोशल मीडिया

IPC 124(A) : वो दिन दूर नहीं जब आलोचक भी राजद्रोही होगा

अभिनव सोनी-

कोरोनाकाल के दौरान आंध्र सरकार ने कोरोना की व्यवस्था को लेकर आंध्र सरकार की आलोचना करने वाले सांसद पर राजद्रोह का मुकदमा कर दिया था और भाषण को प्रसारित करने वाले दो प्रमुख टीवी चैनलों को भी इसमें आड़े हाथ लिया था। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने सांसद महोदय को जमानत दे दी और मीडिया पर भी कोई कार्यवाही करने से पुलिस को रोक दिया। कोर्ट ने राजद्रोह कानून की मीडिया के संदर्भ में दोबारा व्याख्या करने की बात भी कहीं जिसकी अत्यंत आवश्यकता है।

लेकिन केवल मीडिया के संदर्भ में व्याख्या पर्याप्त नहीं होगी बल्कि इसे आमजन के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए क्योंकि आज कल अभिव्यक्ति न सिर्फ मीडिया बल्कि सोशल मीडिया के माध्यम से भी होती है। इसलिए अगर ऐसा ही चलता रहा तो, वो दिन दूर नहीं जब आलोचना करने वाला हर व्यक्ति आलोचक नहीं अपितु राजद्रोही होगा।

किसी की कोई बात पसंद न आने पर उसे राजद्रोह करार दे देना कितना न्यायोचित हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं। बीते कुछ दशक में यह साफ देखा जा सकता है कि राजद्रोह जैसे कानूनों का उपयोग केवल स्वार्थसिद्धि में किया जा रहा है। यह एक हथियार के रूप में उभर के आया है। ये एक प्रकार से अभिव्यक्ति की आजादी को हाशिए में खड़ा करता है।

लगभग 60 साल पहले केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 124ए के बारे में कहा था कि इस प्रावधान का इस्तेमाल “अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति, या क़ानून और व्यवस्था की गड़बड़ी, या हिंसा के लिए उकसाने वाले कार्यों” तक सीमित होना चाहिए। सरकार की आलोचना कोई राजद्रोह नहीं है। वहीं लॉ कमीशन ने भी 2018 में राजद्रोह के ऊपर एक परामर्श पत्र जारी किया था। जिसमें कहा गया था कि –

“इस तरह के विचारों में प्रयुक्त अभिव्यक्ति कुछ के लिए कठोर और अप्रिय हो सकती है लेकिन ऐसी बातों को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है। धारा 124ए केवल उन मामलों में लागू की जानी चाहिए जहां किसी भी कार्य के पीछे की मंशा सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने या हिंसा और अवैध साधनों से सरकार को उखाड़ फेंकने की है”।

पर फिर भी हम यह आसानी से देख सकते हैं कि किस तरह इस कानून का दुरुपयोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में किया जा रहा है जो देश और देश के चौथे स्तंभ के लिए कितना हानिकारक है।

नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के रिपोर्ट पर नज़र डालें तो इसकी भयावहता का भलीभांति अंदाजा हो जाएगा। 2019 में देश में 96 लोगों को राजद्रोह के मामले में गिरफ़्तार किया गया। इन 96 लोगों में से 76 आरोपियों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर की गई और 29 को बरी कर दिया गया। इसमें से केवल दो को अदालत ने दोषी ठहराया। 2018 में 56 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया उनमे से 46 के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर हुई और केवल 2 लोगों को ही अदालत ने दोषी पाया। 2016 में 48 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया और उनमें से 26 के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर हुई और केवल 1 आरोपी को ही अदालत ने दोषी माना।

2015 में इस क़ानून के तहत 73 गिरफ़्तारियां हुईं और 13 के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर हुई लेकिन एक को भी अदालत में दोषी नहीं साबित किया जा सका। 2014 में 58 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया लेकिन 16 के ख़िलाफ़ ही चार्जशीट दायर हुई और केवल 1 को ही अदालत ने दोषी माना। अब इन आकड़ों के दम पर अगर कार्रवाई होती है तो आप समझ सकते हैं कि न्याय दर कितनी है? विधिशास्त्र की धारणा ‘DELAY IN JUSTICE, DENY IN JUSTICE ‘ का ये जीता जागता उदाहरण हैं |

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ABHINAV SONI
EDITOR – ADHIVAKTA VANI
NEWSPAPER BASED ON JUDICIARY
RAIPUR , CHHATTISGARH

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