भारत १५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजों की दासता से मुक्त हुआ था। अंग्रेजों से राजनैतिक मुक्ति की ये ६९वीं वर्षगांठ है। आज देश को आजादी मिले सात दशक गुजर गये, बावजूद इसके आज भी हमारी मानसिकता का स्तर ठीक वैसा ही है जैसा कि आजादी के पहले का था। मानसिक गुलामी आज भी बरकरार है। वैसे तो पिछले ६८ वर्षों में हमने खूब तरक्की की है। विकास के नये आयाम गढ़े हैं। लेकिन क्या इस विकास का लाभ सभी को मिला है? यह अपने आप में बड़ा प्रश्न है। सरकार द्वारा संचालित सैकड़ों हजारों योजनाएं हैं। कई योजनाएं तो अपनी अर्धशती मना चुकी हैं।
आज लोगों को सरकार की आदतों की पुनरावृत्ति के कारण यह पता चल चुका है कि सरकार द्वारा घोषित मुआवजा, नौकरी आदि के वायदे सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहने वाले हैं। देश में चारों ओर भ्रष्टाचार और हिंसा का बोलबाला है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की वेबसाइट खंगालने पर हकीकत से रुबरु हुआ जा सकता है। ऐसा तब है जब अपराध संबंधी सारे रिकार्डों का दस्तावेजीकरण नहीं होता। देश के कई हिस्सों में अतिवादियों और अलगाववादियों के कारण अपने ही देश में लोग संगीनों के साए में रहने को मजबूर हैं। लचर कानून व्यवस्था और लंबी न्यायिक प्रक्रिया के कारण अपराध का स्तर इतना बढ़ गया है कि लोगों को सड़क पर चलने से डर लगता है। हमारी बहन-बेटियों को मोहल्ले में ही अपनी अस्मिता का भय रहता है।
वोट बैंक की राजनीति ने देश का बेड़ा गर्क कर दिया है। इसके चलते लोगों के मन के एक दूसरे के प्रति द्वेष का भाव पनपा है। जातिगत आरक्षण दिलाने के नाम पर नेता लोगों को बांटने का काम कर रहे हैं। आज मूलभूत जरुरतों को उपलब्ध कराने की मांग का स्थान आरक्षण ने लिया है। देश के राजनैतिक मठाधीशों को अपने राजनैतिक हितों को साधने के लिए लोगों के बीच दंगा-फसाद कराने से भी गुरेज नहीं है। ऐसा लगता है कि जैसे भ्रष्टाचार देश के डीएनए में ही घर कर गया है। खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। सरकारें जरुरी नियम कानूनों को अध्यादेश के मार्फत लागू करा लेती हैं, लेकिन भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए प्रस्तावित लोकपाल विधेयक, कानून का रूप ही नहीं ले पा रहा है। ले भी कैसे क्योंकि अगर इस विधेयक ने कानून का रुप ले लिया तो उन नेताओं का क्या होगा जिनके गिरेबां में इस कानून का फंदा होगा। जब देश में दागी नेताओं की भरमार हो तो भला ऐसा कौन सा नेता होगा जो अपने स्वयं के जेल जाने का प्रबंध करेगा।
इसके अलावा संविधान में जिस समानता और स्वतंत्रता की बात की गई है, वह दूर–दूर तक दिखाई नहीं पड़ती है। हमारा समाज कई जातियों में बंटा हुआ है। नेतागण समाज के इसी बंटबारे का फायदा उठाकर हम पर शासन करते हैं। आज कई चौराहों पर स्वतंत्रता सेनानियों के स्थान पर नेता अपनी मूर्तियां लगवा रहे हैं। हमारा प्रतिनिधित्व ऐसे नेतागण करते हैं जिनमें नैतिकता, ईमानदारी और चरित्र का बड़ा अभाव होता है। पहले भी लोग बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी से मरते थे, आज भी मरते हैं। जीवन तो वही जीते हैं जो सत्ता की करीबी होते हैं।
आज जब सुरक्षित जीवन की गारंटी नहीं है। लोगों को भय,गरीबी और भुखमरी से मुक्ति नहीं है। नारी की अस्मिता सुरक्षित नहीं है। निर्भीकता से अपनी बात रखने की आजादी नहीं है। अपनी मातृभाषा में कार्य करने की आजादी नही है। तो फिर काहे की आजादी? सही मायने में हम आजाद होते हुए भी परतंत्र है। किताबों और शब्दों में लिखी आजादी बनावटी होती है। आजादी को तो तन-मन से जिया जाता है। आजादी तो एक भाव है जो परतंत्र होने पर भी जीवित रहता है। लेकिन स्वतंत्रता के ६८ साल बीत जाने के बावजूद भी आज हम इस भाव को नहीं महसूस कर पा रहे हैं। आज जरूरत है अपराधियों, भ्रष्टाचारियों, जमाखोरों, कालाबाजारियों, देश को खोखला करने वाले चरित्रहीन नेताओं, स्त्री को वस्तु समझने वाले लोगों के विरुद्ध एक और स्वतंत्रता संग्राम की। मानसिक गुलामी से मुक्ति की, अपने खोए पुरातन आत्मगौरव को पहचानने की और अपनी समृद्व गौरवशाली धार्मिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक विरासत को एक बार पुन: स्थापित करने की। ऐसा होने से जिस भारत का निर्माण होगा उसकी स्वतंत्रता धरातल पर दिखेगी और तब सही मायने में देश और देशवासी आजादी के उदात्त भाव को तन-मन से महसूस कर पाएंगे ।
लेखक अनिल कुमार पाण्डेय पत्रकारिता एवम् जनसंचार विषय में डाक्टोरल रिसर्चर हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.