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दुख-सुख

संस्मरण : मेरे कुसंग में सज्जन कमलेश पड़े और जेल पहुँच गये

K Vikram Rao : पत्रकार-साहित्यकार कमलेश का निधन… कैसा इत्तिफाक है कि इन्ही दिनों चार दशक बीते कमलेश और मुझमें आत्मीयता प्रगाढ़ हुई थी। परिचय तो जार्ज की पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ के दौर में हुआ था। तिहाड़ सेन्ट्रल जेल में सत्रह नम्बर वार्ड में हमलोग नजरबंद थे। साथ रहे, दिन भर, शाम को भी। खाना, खेलना (बेडमिन्टन) और सोना एक ही छत तले। जाते कहां ? छोटा वार्ड था। हम पच्चीस कैदी थे। हम पर दफा 302 लगी थी। षडयंत्र का भी आरोप था। इन्दिरा सरकार पर युद्ध का ऐलान करना। डायनामाइट विस्फोट कर सरकार में दहषत पैदा करना। साहित्यकार कमलेश और पत्रकार मैं तो सरस्वती के उपासक थे। फिर सी.बी.आई. ने हमे चण्डीभक्त करार दिया। मुकदमा था बडौदा डायनामाइट केस। मैं तब बडौदा में ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ का संवाददाता था। George Fernandes भूमिगत थे और मेरे आवास पर टिकते थे। कमलेश को भी सी.बी.आई. ने हमारी साजिष का हिस्सेदार बना डाला।

<p>K Vikram Rao : पत्रकार-साहित्यकार कमलेश का निधन... कैसा इत्तिफाक है कि इन्ही दिनों चार दशक बीते कमलेश और मुझमें आत्मीयता प्रगाढ़ हुई थी। परिचय तो जार्ज की पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ के दौर में हुआ था। तिहाड़ सेन्ट्रल जेल में सत्रह नम्बर वार्ड में हमलोग नजरबंद थे। साथ रहे, दिन भर, शाम को भी। खाना, खेलना (बेडमिन्टन) और सोना एक ही छत तले। जाते कहां ? छोटा वार्ड था। हम पच्चीस कैदी थे। हम पर दफा 302 लगी थी। षडयंत्र का भी आरोप था। इन्दिरा सरकार पर युद्ध का ऐलान करना। डायनामाइट विस्फोट कर सरकार में दहषत पैदा करना। साहित्यकार कमलेश और पत्रकार मैं तो सरस्वती के उपासक थे। फिर सी.बी.आई. ने हमे चण्डीभक्त करार दिया। मुकदमा था बडौदा डायनामाइट केस। मैं तब बडौदा में ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ का संवाददाता था। George Fernandes भूमिगत थे और मेरे आवास पर टिकते थे। कमलेश को भी सी.बी.आई. ने हमारी साजिष का हिस्सेदार बना डाला।</p>

K Vikram Rao : पत्रकार-साहित्यकार कमलेश का निधन… कैसा इत्तिफाक है कि इन्ही दिनों चार दशक बीते कमलेश और मुझमें आत्मीयता प्रगाढ़ हुई थी। परिचय तो जार्ज की पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ के दौर में हुआ था। तिहाड़ सेन्ट्रल जेल में सत्रह नम्बर वार्ड में हमलोग नजरबंद थे। साथ रहे, दिन भर, शाम को भी। खाना, खेलना (बेडमिन्टन) और सोना एक ही छत तले। जाते कहां ? छोटा वार्ड था। हम पच्चीस कैदी थे। हम पर दफा 302 लगी थी। षडयंत्र का भी आरोप था। इन्दिरा सरकार पर युद्ध का ऐलान करना। डायनामाइट विस्फोट कर सरकार में दहषत पैदा करना। साहित्यकार कमलेश और पत्रकार मैं तो सरस्वती के उपासक थे। फिर सी.बी.आई. ने हमे चण्डीभक्त करार दिया। मुकदमा था बडौदा डायनामाइट केस। मैं तब बडौदा में ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ का संवाददाता था। George Fernandes भूमिगत थे और मेरे आवास पर टिकते थे। कमलेश को भी सी.बी.आई. ने हमारी साजिष का हिस्सेदार बना डाला।

मेरे कुसंग में सज्जन कमलेश पडे़ और जेल पहुँच गये। घुन बन गये, पिस गये। हम लोग तो दृढप्रतिज्ञ थे कि इन्दिरा शासन को उखाडना है। कमलेश का अपराध बस इतना था कि उनके पास से उस सन्दूक की चाभी मिली थी जिसमें डायनामाइट रखे गये थे। मुकदमा अन्त तक चलता तो वे शायद सरलता से छूट जाते दो चार महीनों में। हमे तो फांसी तय थी। भला हो रायबरेली के मतदाताओं का कि तानाषाह को हरा दिया। भारत फिर स्वतंत्र हो गया। कमलेश अत्यंत स्थितपज्ञ थे। कुछ पार्थ के सारथी के वर्णानुसार ”सुखदुखे समेकृत्वा।“ सी.बी.आई. को पूरा भरोसा था कि हम सारे अभियुक्तों के भूलोकवास की अवधि का अंत बस शीघ्र है। पर वाह रे कमलेश, इहलोक के बारे में निष्चिंत थे। चिन्ता क्यों होती ? जेल प्रषासन ने ढे़र सारी किताबें लाने की अनुमति दे दी थी। कमलेष किताबों में खो जाते। तब मुझे आत्मबोध होता कि किताबें जलाने से बड़ा गुनाह, उन्हें न पढ़ना है। खुद को मै गुनहगार समझने लगा। कमलेश दोहरे बदन के थे, स्थूल काया के। हमलोग जमीन पर पीढ़ा लगाकर भोजन के समय पंक्तिवद्ध बैठते थे। पहला ग्रास लेने के पूर्व पंडित कमलेश शुक्ल गुंजाते, ”ओम सहनाभुनक्तु।“ एकाध बार जनसंघी, अकाली और संस्था कांग्रेसी कैदियों ने हमे देखा। अपने वार्ड नम्बर दो में इन सब ने भी ”सहना भुनक्तु“ चालू कर दिया।

अनीष्वरवादी लोहिया के कमलेष सहयोगी थे, पर समूचे हिन्दू थे। तब विजयादषमी के दिन हमसब ने तय किया कि अखण्ड रामायण पाठ होगा। जार्ज फर्नांडिस चयन माकूल था क्योंकि वक्ता जो थे बारह घंटे बांच सकते थे। बाकी अवधि में हम सब थोड़ी देर तक टिके। पर कमलेष डटे रहे। उनके पाठ की शैली में अवधी ज्यादा रसमयी हो गई। भोजपुरी कमलेष का उच्चारण त्रृटिहीन था। बीच – बीच में गोस्वामी का अभिप्राय तथा आषय भी समझाते चलते। महारत इतनी की डोंगरे महाराज को चुनौती दे सकते थे।

उन दिनों शिवाजी सावन्त की मराठी रचना ”मृत्युंजय“ का हिन्दी संस्करण प्रकाषित हुआ था। मुम्बई से आये एक भेंटकर्ता ने सहकैदी बीरेन शाह को दिया। उद्योगपति, सांसद वीरेन भाई बाद में पष्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे। सूर्यपुत्र कर्ण पर इतनी पण्डित्यपूर्ण, खोजी पुस्तक मैंने कभी नही पढ़ी। इस अंगराज (आजका भागलपुर व मुंगेरह) कर्ण की नई छवि मानसपटल पर उकेर कर आती है। कमलेश को दिखाया तो बोले, ” पढ़ चुका हूँ। अवष्य पठनीय है।“ फिर हम चर्चा करते कि अधिक नम्बर किसे दें सव्यसाची, पाण्डुपुत्र अर्जुन को अथवा कुण्डलधारी, रष्मिरथी, सूर्यपुत्र कर्ण को। दुर्योधन-सखा, दानवीर राघेय को ज्यादा वोट मिले।

कमलेश ने कलम की भांति रैकेट पर भी हाथ आजमाया। मेरे साथ बैडमिन्टन खेलते। हांफ जाते, पर जमे रहते। एक बार वे जीत गये। वही कुछ कछुये की खरगोष जीत की भांति। हालांकि मैं चैम्पयिन माना जाता था। जार्ज की टिप्पणी बड़ी भावपूर्ण थी: ”कबूतर ने बिल्ली को छका दिया।“

हम बाकी अभियुक्त जो भी थे, जैसे भी थे, मगर कमलेष निडर थे, दिलेर थे। दिल्ली के सफदरजंग इलाके में उनका फ्लैट था। गुप्त सभायें वहीं होती थीं। कुछ ही दूर लाल मकान में ”राॅ“ (गुप्तचर संस्था रिसर्च एण्ड एनालिसिस विंग) का कार्यालय था। इन्दिरा गांधी का ”रा“ और हिटलर के गेस्टापो पर्याय से हो गये थे। फिर कमलेश पकडे गये। तिहाड़ में कैद रहे। मैं तभी बडौदा और बंगलूर जेलों से दिल्ली लाया गया। कमलेष से भेंट हुई, पर सलाखों के पीछे। पुरानी पत्रकारी जीवन की बातें याद आईं। हम अंग्रेजी भाषाई पत्रकारों को दंभ रहता है। पर कमलेष के ज्ञान से मुखातिब होते ही सब काफूर हो जाता था। ऐसे थे कमलेष। बिछोह हुआ। विषाद दे गये। यादे भी, सदा जो ताजा रहेंगी। खासकर जब जब 26 जून और 22 मार्च आयेंगे। तब गुलामी दुबारा आई थी और फिर आई थी दूसरी आजादी। इसमें कमलेश की बड़ा योगदान रहा।

वरिष्ठ पत्रकार के. विक्रम राव के फेसबुक वॉल से. संपर्क: +91 9415000909

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