इस बार 28 जून का दिन कुछ अलग हो गया। यह पीवी नरसिंह राव जी का जन्म दिन तो होता ही है, आज के दिन ही कमलेश शुक्ल जी का अंतिम संस्कार भी हुआ। कमलेश जी ने अपने नाम के आगे शुक्ल शब्द लगाना काफी पहले से बंद कर दिया था। हिंदी का साहित्य-जगत उन्हें कमलेश के नाम से ही जानता है। कमलेशजी बहुत प्रख्यात व्यक्ति नहीं थे लेकिन प्रतिभा में वे किसी भी प्रख्यात व्यक्ति से कम नहीं थे, बल्कि ज्यादा ही थे। उनके तीन कविता—संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। मित्र लोग उन्हें कवियों का कवि कहते हैं। मैं उन्हें सज्जनों के सज्जन कहता था।
ऐसे बहुत कम साहित्यकारों से मेरा परिचय हुआ है, जो दर्शन, इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र, ज्योतिष आदि विषयों का इतना गहरा ज्ञान रखते थे, जितना कमलेशजी को था। उनसे मेरी पहली भेंट अब से 50 साल पहले डॉ. राम मनोहर लोहिया के घर हुई थी। वे डॉ. लोहिया के सचिव थे। उनकी पत्रिकाओं- जन और मेनकांइड- का काम भी देखते थे। जब वे 148, नॉर्थ एवेन्यू में किशन पटनायक के घर में रहने लगे तो उस घर में हम दोनों साथ ही रहते थे। बाद में हम दोनों 216, नॉर्थ एवेन्यू में अर्जुन सिंह जी भदौरिया की बरसाती में भी साथ ही रहते थे। जब मुझे सप्रू हाउस के छात्रावास से निकाला गया तो डॉक्टर लोहिया ने कहा कि तुम कमलेश के साथ रहो। कमलेशजी ने ‘समवाय’ नामक पत्र निकाला, उसमें परिमल कुमार दास, श्रीकांत वर्मा, संजय डालमिया आदि हम लोग मिलकर काम करते थे। कमलेशजी ने जार्ज फर्नांडीज के साथ मिलकर ‘प्रतिपक्ष’ भी निकाला।
आपातकाल के दौरान कमलेशजी और जार्ज दोनों एक साथ भूमिगत होकर सक्रिय रहे। कमलेशजी 1977 में मेरे साथ उजबेकिस्तान, रुस और पोंलैड भी गए। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री बने थे। अभी चार-पांच साल पहले कमलेशजी मुझे सपत्नीक नेपाल ले गए और वहां उन्होंने कई भाषण करवाए। मैं जब कमलेशजी के साथ रहता था तो उन्होंने मेरी ऐसी सेवा की है, जैसे कोई मां अपने बेटे की करती है, हालांकि मैं उन्हें बड़े भाई की तरह मानता था। उनका बरताव सभी के साथ ऐसा ही होता था। उन्होंने कभी कोई व्यवस्थित नौकरी या काम-धंधा नहीं किया। उनके दिन कभी फकीरी और कभी बादशाहत में कटते थे। वे बहुत कम बोलते थे। उन्होंने कई घर बदले।
दिल्ली में अकेले रहते थे। हजारों नई-पुरानी पुस्तकें ही उनकी साथी होती थीं। वे बड़े भोजनप्रेमी थे। पिछले चार-पांच साल से स्वास्थ्य ठीक नहीं था। वजन बढ़ गया था। उन्हें मैंने बाबा रामदेव के योग-ग्राम में भी रहने को बाध्य किया लेकिन स्वास्थ्य धीरे-धीरे बिगड़ता गया। उनसे आखिरी भेंट पिछले माह तब हुई थी, जब बेंगलूर से कृष्णनाथजी आए थे। कृष्णनाथजी तो संन्यासी ही हैं लेकिन कमलेशजी तो गृहस्थ होते हुए भी 50 साल से दिल्ली में संन्यासी की तरह ही रहे। मित्र लोग चाहेंगे तो उनकी अनेक अप्रकाशित गद्य और पद्य रचनाओं को सहेजेंगे और उनके दुर्लभ ग्रंथ-संग्रह का भी कुछ न कुछ सदुपयोग करेंगे।
लेखक डॉ. वेदप्रताप वैदिक वरिष्ठ पत्रकार हैं.