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यायावरी : कानपुर कम नहीं, कनपुरियों में दम नहीं

अमृतसर पहली बार जाना हुआ। स्वर्ण मंदिर देखा, जलिया वाला बाग देखा, दुग्र्याना तीर्थ, वैष्णवी देवी मंदिर, बाघा बार्डर.. इतना सब कुछ एक दिन में। सपरिवार था- एक आटो ‘विक्रम’ जैसा किया। सात सौ रुपये उसने लिये। सुबह १० बजे से शाम ७ बजे तक हम सबने खूब आनंद लिया। और जब रात दुग्र्याना तीर्थ के सामने बने पूर्ण धर्मार्थ धर्मशाला में विश्राम व शयन का समय आया तो मैं लगा सोचने अपना शहर.. ऐसा नहीं है कि जिस तरह के स्मारक मैं गिना रहा हूँ उस दर्जे के स्मारक हमारे कानपुर के पास नहीं हैं..। हमारे पास बाग भी है, कुआँ भी है, दीवार भी है और इससे भी ज्यादा बहुत-बहुत-बहुत..।

<p>अमृतसर पहली बार जाना हुआ। स्वर्ण मंदिर देखा, जलिया वाला बाग देखा, दुग्र्याना तीर्थ, वैष्णवी देवी मंदिर, बाघा बार्डर.. इतना सब कुछ एक दिन में। सपरिवार था- एक आटो 'विक्रम' जैसा किया। सात सौ रुपये उसने लिये। सुबह १० बजे से शाम ७ बजे तक हम सबने खूब आनंद लिया। और जब रात दुग्र्याना तीर्थ के सामने बने पूर्ण धर्मार्थ धर्मशाला में विश्राम व शयन का समय आया तो मैं लगा सोचने अपना शहर.. ऐसा नहीं है कि जिस तरह के स्मारक मैं गिना रहा हूँ उस दर्जे के स्मारक हमारे कानपुर के पास नहीं हैं..। हमारे पास बाग भी है, कुआँ भी है, दीवार भी है और इससे भी ज्यादा बहुत-बहुत-बहुत..।</p>

अमृतसर पहली बार जाना हुआ। स्वर्ण मंदिर देखा, जलिया वाला बाग देखा, दुग्र्याना तीर्थ, वैष्णवी देवी मंदिर, बाघा बार्डर.. इतना सब कुछ एक दिन में। सपरिवार था- एक आटो ‘विक्रम’ जैसा किया। सात सौ रुपये उसने लिये। सुबह १० बजे से शाम ७ बजे तक हम सबने खूब आनंद लिया। और जब रात दुग्र्याना तीर्थ के सामने बने पूर्ण धर्मार्थ धर्मशाला में विश्राम व शयन का समय आया तो मैं लगा सोचने अपना शहर.. ऐसा नहीं है कि जिस तरह के स्मारक मैं गिना रहा हूँ उस दर्जे के स्मारक हमारे कानपुर के पास नहीं हैं..। हमारे पास बाग भी है, कुआँ भी है, दीवार भी है और इससे भी ज्यादा बहुत-बहुत-बहुत..।

पर हां, यहां पंजाब की तरह पंजाब से प्यार करने वाले नहीं हैं। न लोग न लोगों के रहनुमा ..। मैं सोचता हूँ, ये जलिया वाला बाग अगर कहीं कानपुर में होता तो क्या देश पर कुर्बान होने का संदेश देने वाला दुनिया को अपनी ओर खींचता, आजादी का इतिहास बयान करता स्मारक होता..? शायद नहीं होता..। और अगर होता तो शायद वह दीवार जो पार्क में अंग्रेजों की गोलियों के निशानों से छलनी है, कतई न होती। उसकी ईंटे जाने कब की घुरहू के सुअर बाड़े में खप गई होतीं। और अगर ऐसा न भी होता तो आज उस पर किसी यौनवर्धक दवाई का विज्ञापन ऑयलपेंट से पुता होता। या फिर कोई दीवार के सहारे टट्टर लगा कर आमलेट बना रहा होता। शाम गुलजार हो रही होती और देश भक्ति परवान चढ़ी होती। वह कुआँ जिसमें आजादी के दीवाने गोलियों की बौछार से बचने में गिरकर शहीद हुए, वह यहां होता तो अब तक आसपास रहने वालों ने कूड़ा डाल-डालकर उसे न सिर्फ पाट दिया होता बल्कि पट जाने के बाद वहां किसी तांत्रिक का ठिया बन गया होता। वह पेड़$ जो स्वर्ण मंदिर में बाबा बुड्ढा सिंह की याद में नानक साहब के सत्संग का प्रताप बखान कर रहा है अगर यहां होता तो उसके नीचे स्मैकियों का झुंड अपनी दोपहर काट रहा होता..।

यूं तो बहुत कुछ कहा जा सकता है पर संक्षेप में इतना ही कि आजादी का इतिहास , पौराणिक महत्व के चिन्ह और भारतीय औद्योगिक विकास की विरासत के जितने शेष और अवशेष हमारे शहर के पास हैं शायद प्रदेश में क्या देश के बड़े-बड़़े चर्चित यायावरी प्रधान शहरों में नहीं हैं। यहां के पर्यटन स्थलों को चमका दिया जाये तो कानपुर भ्रमण एवं रमण के लिए कम से कम एक सप्ताह का समय लेगा। जबकि आज हालत यह है कि एक शाम बिताने के लिए शहरवासियों के पास एक पार्क तक नहीं है। जो है वो सबके सामने है। नानाराव पार्क में भी एक कुआँ था जिसका आजादी की लड़ाई में महती भूमिका रही है। यहां भी एक बूढ़ा बरगद था जिसने आजादी के दीवानों को छाया दी और उनके जुल्म पर आँसू बहाये थे- जड़ सहित उखड़$ गया। यहां$ का मैस्कर घाट- इस घाट का कहानी स्वतंत्रता का लड़ाई का पन्ना है। लेकिन उसे पढऩा ते दूर, देखना तक दूभर है।

कैण्ट में बड़ी चर्च के सामने बड़ी चर्च के साये में बना कब्रिस्तान जिसमें अंग्रेज दफन हैं दुनिया के इतिहासकारों और पर्यटन पसंद लोगों के लिए दर्शनीय तो है ही, ज्ञानवर्धक भी है। ऐसे ही गोरा कब्रिस्तान में दफन इतिहास अगर उजागर हो तो लोग क्योंन देखेंगे और गणेश शंकर विद्यार्थी का घर हसरत मोहानी का निवास, प्रताप अखबार का ‘छापाघर’ सब तो कानपुर में है, जो घोर उपेक्षा के कारण था में तब्दील हो चुका है। बिठूर जाओ तो क्या वहां नानाराव पेशवा के महल (खण्डहर), ब्रह्म कुटी, सीता की रसोई, बाल्मीकि आश्रम, स्वर्ग की सीढ़ी आदि पर्यटन के बिन्दु नहीं हैं। जब हम आर.के. मिशन में पढ़ते थे तो बिठूर ले जाये जाते थे..। ये तमाम जानकारियां हमें उस काल में ही मिली थीं। लाल इमली, कमला टावर, ‘एलनफारेस्ट’ ये सब दर्शनीय स्थल थे.. इन्हें पोषित कर इतिहास बनाने, पर्यटन स्थल बनाने की तो छोडि़ए.. सदरलैण्ड हाउस बेंच दिया गया, तोड़ दिया गया। लाल इमली पर भी नजर है जबकि ये सब पर्यटन स्थल की गरिमा को प्राप्त हैं। कानपुर का इतिहास इसका औद्योगिक, पौराणिक और स्वतंत्रता की लड़ाई  में योगदान से इतर कुछ भी नहीं है। अगर कानपुर के ग्रामीण अंचलों में जाएं जैसे- भीतरगाँव, शिवराजपुर, ककवन, घाटमपुर, पतारा आदि तो आपको ऐसे-ऐसे पुरातन शिव मंदिर मिलेंगे जिनका वास्तु आपको बौद्धकालीन हुनर की झलक देते दिखाई देते हैं लेकिन वहां कुत्ते-बिल्ली टट्टी कर रहे हैं।

अंत में समस्त विधायकों, सांसदों, मंत्रियों तुह्में धिक्कार है कि तुम कानपुर में केवल लखनऊ, दिल्ली वालों की चप्पलें उठाने के लिए पैदा हुए हो। वरना जितना पर्यटन का स्कोप कानपुर में है आस-पास कहीं नहीं। गंगा का किनारा है और तब भी अपवित्र और प्यासा। ‘कानपुर’ एक ऐसा पर्यटन केन्द्र बनकर उभर सकता है जिससे करोड़ों रुपये का रोज का रोजगार इस शहर को मिल जाये। सरकार अगर चाहे तो पब्लिक पार्टनरशिप में मुझसे बात करे। मैं दस वर्षों में कानपुर को फिर से देश का ऐसा पर्यटन केन्द्र बना दूँ कि दुनिया भर से आने वाला घुमक्कड़ जैसे दिल्ली, आगरा, कलकत्ता, मुंबई और हैदराबाद जाये बिना वापस नहीं जाता वैसे ही बिना कानपुर आये वापस नहीं जायेगा।

लेखक प्रमोद तिवारी कानपुर के वरिष्ठ पत्रकार और कवि हैं.

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