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कानपुर में ‘कविता 16 मई के बाद‘ : जलाओ कविता को अंधेरे में मशाल की तरह

कविता क्या कर सकती है ? वह लोगों के दुख दर्द को वाणी दे सकती है। उनके संघर्ष की आवाज बन सकती है। कविता की खूबी है कि वह मुसीबत में भी साथ नहीं छोड़ती। प्रेमचंद कहते हैं कि साहित्य का काम जगाना है, सुलाना नहीं क्योंकि अब और सोना मृत्यु का लक्षण है। कविता यही काम करती है। लोगों को जगाती है, उन्हें तैयार करती है। वह बहुत कुछ तोड़ती है, बाहर ही नहीं हमारे अन्दर भी। रघुवीर सहाय कहते हैं ‘टूटे, न टूटे/मेरे भीतर का कायर टूटेगा’। जब भय व दहशत का वातावरण कायम हो, चुप्पी समय का यथार्थ बनने लगे तब कविता हस्तक्षेप करती है। काल से होड़, हालात से मुठभेड उसकी प्रकृति है। आज जब धर्म व जाति की बुनियाद पर वित्तीय पूंजी की मानवद्रोही सत्ता नियंता बन गयी है, निराशा व विकल्पहीनता का अंधेरा चारो तरफ फैला है, ऐसी चकाचौंध भरी चमक फैली है, जिसमें आंखों के आगे अंधेरा छा जाय और कुछ न दिखे ऐसे में कविता मशाल बन सकती है। आज उसकी भूमिका यही है कि वह प्रतिरोध का सृजन करे। वह शास्त्रों से बाहर आये और शस्त्र बन जाये। ‘कविता 16 मई के बाद’ अभियान के मूल में यही है।

<p>कविता क्या कर सकती है ? वह लोगों के दुख दर्द को वाणी दे सकती है। उनके संघर्ष की आवाज बन सकती है। कविता की खूबी है कि वह मुसीबत में भी साथ नहीं छोड़ती। प्रेमचंद कहते हैं कि साहित्य का काम जगाना है, सुलाना नहीं क्योंकि अब और सोना मृत्यु का लक्षण है। कविता यही काम करती है। लोगों को जगाती है, उन्हें तैयार करती है। वह बहुत कुछ तोड़ती है, बाहर ही नहीं हमारे अन्दर भी। रघुवीर सहाय कहते हैं ‘टूटे, न टूटे/मेरे भीतर का कायर टूटेगा’। जब भय व दहशत का वातावरण कायम हो, चुप्पी समय का यथार्थ बनने लगे तब कविता हस्तक्षेप करती है। काल से होड़, हालात से मुठभेड उसकी प्रकृति है। आज जब धर्म व जाति की बुनियाद पर वित्तीय पूंजी की मानवद्रोही सत्ता नियंता बन गयी है, निराशा व विकल्पहीनता का अंधेरा चारो तरफ फैला है, ऐसी चकाचौंध भरी चमक फैली है, जिसमें आंखों के आगे अंधेरा छा जाय और कुछ न दिखे ऐसे में कविता मशाल बन सकती है। आज उसकी भूमिका यही है कि वह प्रतिरोध का सृजन करे। वह शास्त्रों से बाहर आये और शस्त्र बन जाये। ‘कविता 16 मई के बाद’ अभियान के मूल में यही है।</p>

कविता क्या कर सकती है ? वह लोगों के दुख दर्द को वाणी दे सकती है। उनके संघर्ष की आवाज बन सकती है। कविता की खूबी है कि वह मुसीबत में भी साथ नहीं छोड़ती। प्रेमचंद कहते हैं कि साहित्य का काम जगाना है, सुलाना नहीं क्योंकि अब और सोना मृत्यु का लक्षण है। कविता यही काम करती है। लोगों को जगाती है, उन्हें तैयार करती है। वह बहुत कुछ तोड़ती है, बाहर ही नहीं हमारे अन्दर भी। रघुवीर सहाय कहते हैं ‘टूटे, न टूटे/मेरे भीतर का कायर टूटेगा’। जब भय व दहशत का वातावरण कायम हो, चुप्पी समय का यथार्थ बनने लगे तब कविता हस्तक्षेप करती है। काल से होड़, हालात से मुठभेड उसकी प्रकृति है। आज जब धर्म व जाति की बुनियाद पर वित्तीय पूंजी की मानवद्रोही सत्ता नियंता बन गयी है, निराशा व विकल्पहीनता का अंधेरा चारो तरफ फैला है, ऐसी चकाचौंध भरी चमक फैली है, जिसमें आंखों के आगे अंधेरा छा जाय और कुछ न दिखे ऐसे में कविता मशाल बन सकती है। आज उसकी भूमिका यही है कि वह प्रतिरोध का सृजन करे। वह शास्त्रों से बाहर आये और शस्त्र बन जाये। ‘कविता 16 मई के बाद’ अभियान के मूल में यही है।

पिछले साल 11 अक्टूबर को दिल्ली से कॉरपोरेट फासीवाद के खिलाफ सांस्कृतिक जन अभियान के रूप में ‘कविता 16 मई के बाद’ की शुरुआत हुई थी। इस दौरान दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पंजाब में इस अभियान के तहत कार्यक्रम आयोजित हुए। उत्तर प्रदेश में लखनऊ, इलाहाबाद व बनारस में कार्यक्रम आयोजित किये जा चुके हैं। इसी कड़ी में 24 अगस्त को कानपुर में जलेस की स्थानीय इकाई की पहल पर सिटी क्लब में कविता पाठ और ‘कॉरपोरेट पूंजी व सांप्रदायिक गठजोड और बु़िद्धजीवियों की भूमिका’ पर ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के संपादक आनन्द स्वरूप वर्मा के व्याख्यान का आयोजन हुआ। इस अवसर पर स्थानीय कवियों के अलावा दिल्ली, लखनऊ, इलाहाबाद व उन्नाव से आये कवियों ने अपनी कविताएं सुनाई। बड़ी संख्या में कानपुर के लोग आये और इस अभियान का हिस्सा बने।

अभियान के राष्ट्रीय संयोजक रंजीत वर्मा के आधार वक्तव्य से ‘कविता 16 मई के बाद‘ की शुरुआत हुई। उन्होंने कहा कि 16 मई 2014 के बाद सब कुछ उसी तरह सामान्य नहीं रह गया है जैसा कि सत्ता की तमाम बुराइयों के बाद भी पहले रहा करता था। अब तो लगता ही नहीं कि यहां कोई चुनी सरकार है। अब समय आ गया है कि पूरे देश में कॉरपोरेट लूट, सांप्रदायिकता और अर्थिक व सामाजिक नाइंसाफी के खिलाफ चल रहे आंदोलन से कविता को जोड़ा जाय। जैसा मुक्तिबोध कहते हैं जरूरत इस बात की है कि कविता खतरे उठाये और सच्चाई की आवाज बन जाय। इस अवसर पर रंजीत वर्मा ने अपनी कविता ‘दो हजार उन्नीस का इंतजार क्यों’ सुनाई। वे कहते हैं ‘यहां होती है हत्याएं/सच बोलने पर हत्या/सच पर पर्दा डाले रहने के लिए हत्या/….अदालते भी यहां हत्या पर बोलने से/बेहतर हत्या का आदेश देना समझती हैं’। शोषण व दमन है, वहीं आज स्वतंत्रता का अपहरण हो रहा है। लोकतंत्र में विरोधी विचारों की स्वतंत्रता और असहमतियों के लिए स्पेस होता है। पर लोकतंत्र की इस बुनियाद प्रहार हो रहा है, उसेे खत्म किया जा रहा है। ऐसे में विरोध ही एकमात्र अस्त्र हो सकता है। रंजीत वर्मा कहते हैं ‘हल चलाने वालों/हथौड़ा चलाने वालों को मंजूर नहीं/….अलगू चौधरी जुम्मन शेख को मंजूर नही/हिंदुत्ववादी जो नहीं हैं उन तमाम हिन्दुओं को मंजूर नहीं/फिर दो हजार उन्नीस का इंतजार क्यों/लोकतंत्र खतरे में है/अभी करा लो चुनाव और किस्सा खत्म करो।’

कानपुर की कवयित्री प्रभा दीक्षित ने ‘कवि और बाजार‘, ‘सामा्रज्यवाद के नये सेल्समैन‘ तथा ‘साझी उड़ान‘ कविताएं सुनाईं। कविता के माध्यम से बाजारवाद के पड़ रहे प्रभाव को वे अभिव्यक्त करते हुए कहती हैं ‘कवि उदास है/खामोश है/हताश है/अपनी उपेक्षा का दंश/रह रह कर साल रहा है उसे/बाजार हंस रहा है‘ लेकिन कविता इस हताश को तोड़ती है। वे कवि का आहवान करती हैं ‘तुम जलाओं कविता को/अंधेरे में मशाल की तरह/तुम बचाओं कविता को/हृदय में प्यार की तरह‘। उन्नाव से आये कवि नसीर अहमद नसीर ने अपनी नज्म में आज की सच्चाई का बयान किया। न कुछ कर पाने के दर्द को व्यक्त करती उनकी कविता अपने से तथा सभी से सवाल करती है। वे क्यों लिखते हैं, कहते हैं ‘मैं हंसने और हंसाने के लिए/कविता नहीं लिखता/कुटुम्बी हूं कबीर का रिझाने के लिए कविता नहीं लिखता/आदमी के बीच इक पुल बनाना चाहता हूं/मैं दीवारें उठाने के लिए कविता नहीं लिखता‘। कानपुर के ही दलित कवि देव कुमार जाति दंश की पीड़ा को अपनी कविता यूँ बयान करते हैं ‘वो खोदते हैं मेरी जाति/रेगिस्तान में पानी की तरह/मैं छिपाता हूँ उस अभागन को/सुदामा के चावल की तरह‘।

इस मौके पर इलाहाबाद से आयी कवयित्री संध्या निवेदिता निराशा में भी आशा के दीप जलाती हैं। अपने भावों को उन्होंने कुछ यूं व्यक्त किया ‘आज की रात यूं ही चुपचाप नहीं गुजरेगी/उम्मीदें महकेंगी खुलकर दिए रोशन होंगे/आज की रात उठेगी किसी दिल से फिर आह/फिर किसी जख्म पर सौ तरह के मरहम होंगे’। इलाहाबाद के ही कवि अनिल पुष्कर को देश के जनतंत्र से बहुत उम्मीद नहीं है, कहते हैं ‘अच्छा किया कि हमने/जनतंत्र से बहुत उम्मीदे नहीं पाली/हालात कुछ ऐसे बने बने हैं कि/राष्ट्रनायक संविधान मर्दन में मशगूल हैं’।

कार्यक्रम का संचालन पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने किया। उन्होंने ‘समकालीन तीसरी दुनिया‘ में छपी विष्णु नागर की कविता ‘मोदी’ का पाठ किया। प्रधानमंत्री मोदी पर विष्णु नागर की काव्यात्मक टिप्पणी गौर करने लायक है। वे कहते हैं ‘यूँ तो पूरा गुजरात है उसका…./मगर उसके घर पर उसका इंतजार करने वाला कोई नहीं/उसे प्रधानमंत्री बनाने वाले तो बहुत हैं/उसे इंसान बना सके, ऐसा कोई नहीं‘। दिल्ली से आये नित्यानन्द गायन आज की विद्रूपताओं पर चोट करते हुए अपनी कविता में कहते हैं ‘इसी तरह पेट की खातिर आदमी बनता है शायद/एक जहरीला इन्सान…/दरअसल यह कहानी विलासपुर की नहीं/ये कहानी हर शहर की, मजदूरों की है‘।

लखनऊ से आये कवि और अभियान के उत्तर प्रदेश के संयोजक कौशल किशोर ने अपनी कविता ‘भेड़िया निकल आया है मांद से’ का पाठ किया। इंदिरा गांधी के बाद नरेन्द्र मोदी ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन पर सबसे ज्यादा कविताएं लिखी गईं। एक साल के अन्दर ढेर सारी कविताएं रची गई हैं। उनके व्यक्तित्व के दोहरे पक्ष को कविताओं में खूब उकेरा गया है।

कौशल किशोर अपनी कविता में कहते हैं ‘कितनी खिली हैं उसकी बांछें/लाल किले के प्राचीर से वह करता शंखनाद/घूम रहा दुनिया, दुनिया/युद्ध नहीं, बुद्ध का संदेश/गोडसे मुख में गांधी/ गीता का उपदेश’ और आगे ‘ऐसा ही मायालोक रचता/वह अवतरित है रंगमंच पर/ रंगमंच पर अब देश नहीं दृश्य है/विडम्बनाओं, विसंगतियों और भ्रमों से भरा परिदृश्य है/और नेपथ्य में शोर कोलाहल चीखें/बाथे बथानी टोला छत्तीसगढ़…..’। कार्यक्रम की अध्यक्षता कानपुर के जनकवि कमल किशोर श्रमिक ने की। इस अवसर पर उन्होंने ‘क्या कहने’ कविता सुनाई जिसके माध्यम से देश के नये खुदा की हकीकत का वे बायान करते हैं ‘खत लिखता हूं नये खुदा के नाम तूम्हारे क्या कहने/सुबह तुम्हें मिल गई हमारी शाम तुम्हारे क्या कहने/अस्सी प्रतिशत लोग नर्क जीते हैं यहां गरीबी का/तुम कहते हो सब विकास के नाम तुम्हारे क्या कहने‘। श्रोताओं के आग्रह पर श्रमिक ने अपनी चर्चित कविता ‘टोपियां’ का पाठ किया। इसी से कार्यक्रम का समापन भी हुआ। 

रिपोर्ट: कौशल किशोर. संपर्क: 9807519227

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