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दुख-सुख

राष्ट्रीय सहारा के एक सब एडिटर की ‘पत्रकार की टीस’ शीर्षक से कविता

पत्रकार बने रहना कठिन है। आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये यह पेशा बहुत दुख देता है। जीना दुश्वार कर देता है। इसी को लेकर मेरी कुछ कविताएं पेश है। कविता का शीर्षक है- ”पत्रकार की टीस”

(1)

दुनिया मानती है
पत्रकार को खास,
विशिष्ट और सबसे अलहदा
(हालांकि ऐसा मानने के पीछे
कुछ हद तक
होता है प्रकाश्य होने का स्वार्थ)

चमक-दमक के दौर में
हम भी मान बैठे,
इस दिवास्वप्न को
कि हमारे इशारों पर
हमारी वजह से
चलती है,
जनसत्ता और राजसत्ता।

इसी गफलत में
हम भूल जाते हैं
जमीन पर चलना
उड़ने लगते हैं आसमां में
… और खो जाती है अपनी जमीं भी।

<p>पत्रकार बने रहना कठिन है। आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये यह पेशा बहुत दुख देता है। जीना दुश्वार कर देता है। इसी को लेकर मेरी कुछ कविताएं पेश है। कविता का शीर्षक है- ''पत्रकार की टीस''</p> <p>(1)</p> <p>दुनिया मानती है<br />पत्रकार को खास,<br />विशिष्ट और सबसे अलहदा<br />(हालांकि ऐसा मानने के पीछे<br />कुछ हद तक<br />होता है प्रकाश्य होने का स्वार्थ)<br /><br />चमक-दमक के दौर में<br />हम भी मान बैठे,<br />इस दिवास्वप्न को<br />कि हमारे इशारों पर<br />हमारी वजह से<br />चलती है,<br />जनसत्ता और राजसत्ता।<br /><br />इसी गफलत में<br />हम भूल जाते हैं<br />जमीन पर चलना<br />उड़ने लगते हैं आसमां में<br />... और खो जाती है अपनी जमीं भी।</p>

पत्रकार बने रहना कठिन है। आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये यह पेशा बहुत दुख देता है। जीना दुश्वार कर देता है। इसी को लेकर मेरी कुछ कविताएं पेश है। कविता का शीर्षक है- ”पत्रकार की टीस”

(1)

दुनिया मानती है
पत्रकार को खास,
विशिष्ट और सबसे अलहदा
(हालांकि ऐसा मानने के पीछे
कुछ हद तक
होता है प्रकाश्य होने का स्वार्थ)

चमक-दमक के दौर में
हम भी मान बैठे,
इस दिवास्वप्न को
कि हमारे इशारों पर
हमारी वजह से
चलती है,
जनसत्ता और राजसत्ता।

इसी गफलत में
हम भूल जाते हैं
जमीन पर चलना
उड़ने लगते हैं आसमां में
… और खो जाती है अपनी जमीं भी।

(2)
पत्रकारिता के पहले दिन से ही
खबरनवीशों को मान लिया जाता है पेड़
भले ही उसमें निकली न हो
कोंपल भी,
कोंपल के उखड़ने पर
दौड़ पड़ते हैं
उसे भू पर जमाने को
सैकड़ों हाथ,
इस आस में कि
वह एक दिन उभरेगा
बनकर भरा पूरा पेड़।

मगर,
खबरनवीशों को
यह सौभाग्य कहां …
कुम्भ के मेले में
स्वजन की तरह
खो गए शब्द,
उनके टूटते नींव
और सूखते स्याही को,
मिलता है केवल
खरी खोटी का बाण।

(3)

चकाचौंध और दौड़भाग भरी जिंदगी में
सूर्योदय से अस्ताचल तक या
उसके बाद
पूनम की चांद या अमावश की रात,
जीवन घड़ी के कांटों में
उलझा है इस तरह कि
उससे बाहर आने की सोच में
दिख जाते हैं कई गहरे जख्म।

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वह जख्म जिसने अभी-अभी
सूखना शुरू ही किया था
दुख में डूबे और
भूख से विलविलाते लोगों में ही नहीं,
खबरचियों के पास भी है दर्द की दास्तां
उसे भी है दुख
पारिवारिक वेदना और सामाजिक संवेदना का रोग।
भले कहते रहें रजत शर्मा
गर्दन पर चाकू रख धारदार
जिंदा रहने का नाम है पत्रकार।

(4)

देश को आजादी दिलाने वाला
माकूल परिवर्तन का अगुवा
पत्रकारिता का पेशा
बन गया है पैसा तंत्र
और इसे चलाने वाले
मीडिया के ठेकेदार
व्यवहार से बना बैठे हैं इसे व्यापार
… और सबको समझ बैठे हैं बाजार।

बाजार जहां हर चीज बिकाऊ
बिकाऊ ही बाजार में टिकाऊ
पेशा और पैसा तंत्र के सफर में
बदलाव न केवल
‘श” से ‘स” का
बदल गया समाज का
आचार-विचार-व्यवहार।

क्योंकि अब
भोगविलासिता के साधन की उपलब्धता से
बनती है समाज में प्रतिष्ठा
दामन कितना भी है धवल
अब इसके मायने नहीं क्योंकि
आधुनतन काल में
हर किसी के पहुंच में है
सर्फ एक्सल …।
सर्फ एक्सल हो तो
कड़ी से कड़ी
गहरे से भी गहरा दाग भी
ढूढ़ते रह जाओगे।

-दीपक ‘राजा”

इस कविता के रचयिता दीपक कुमार राजा राष्ट्रीय सहारा, नोएडा में बतौर सब एडिटर कार्यरत हैं. उनसे संपर्क 9312381305 के जरिए किया जा सकता है. दीपक की मेल आईडी [email protected] है. 

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