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अनवर के बहाने कोलकाता का दार्शनिक मायालोक

भारत के 46 वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह (गोवा 20 -30 नवंबर ) के भारतीय पैनोरामा में इस बार हिंदी की पॉच फिल्में दिखाई जा रहीं हैं। इनमें कबीर खान की ” बजरंगी भाइजान” और नीरज घायवान की “मसान” पहले से ही चर्चित हैं। बुद्धदेव दासगुप्ता की “अनवर का अजब किस्सा”, नितिन कक्कड़ की “रामसिंह चार्ली” और ए के बीर की “नानक शाह फकीर” अभी सिनेमाघरों में प्रदर्शित नहीं हुई हैं। सिनेमा में उल्लेखनीय योगदान के लिए बारह बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजे गए बुद्धदेव दासगुप्ता की नई हिंदी फिल्म “अनवर का अजब किस्सा” आज के बहुचर्चित अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी को केंद्र में रखकर बनाई गई है जिसमें उन्होने एक निजी जासूस अनवर की भूमिका निभाई है। “अंधी गली”(1984) और “बाघ बहादुर” (1989 ) के बाद बुद्धदेव दासगुप्ता अर्से बाद हिंदी सिनेमा मे लौटे हैं। फिल्म का मुख्य पात्र अनवर दरअसल उनकी अपनी छवियों का कोलाज है।

<p>भारत के 46 वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह (गोवा 20 -30 नवंबर ) के भारतीय पैनोरामा में इस बार हिंदी की पॉच फिल्में दिखाई जा रहीं हैं। इनमें कबीर खान की " बजरंगी भाइजान" और नीरज घायवान की "मसान" पहले से ही चर्चित हैं। बुद्धदेव दासगुप्ता की "अनवर का अजब किस्सा", नितिन कक्कड़ की "रामसिंह चार्ली" और ए के बीर की "नानक शाह फकीर" अभी सिनेमाघरों में प्रदर्शित नहीं हुई हैं। सिनेमा में उल्लेखनीय योगदान के लिए बारह बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजे गए बुद्धदेव दासगुप्ता की नई हिंदी फिल्म "अनवर का अजब किस्सा" आज के बहुचर्चित अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी को केंद्र में रखकर बनाई गई है जिसमें उन्होने एक निजी जासूस अनवर की भूमिका निभाई है। "अंधी गली"(1984) और "बाघ बहादुर" (1989 ) के बाद बुद्धदेव दासगुप्ता अर्से बाद हिंदी सिनेमा मे लौटे हैं। फिल्म का मुख्य पात्र अनवर दरअसल उनकी अपनी छवियों का कोलाज है।</p>

भारत के 46 वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह (गोवा 20 -30 नवंबर ) के भारतीय पैनोरामा में इस बार हिंदी की पॉच फिल्में दिखाई जा रहीं हैं। इनमें कबीर खान की ” बजरंगी भाइजान” और नीरज घायवान की “मसान” पहले से ही चर्चित हैं। बुद्धदेव दासगुप्ता की “अनवर का अजब किस्सा”, नितिन कक्कड़ की “रामसिंह चार्ली” और ए के बीर की “नानक शाह फकीर” अभी सिनेमाघरों में प्रदर्शित नहीं हुई हैं। सिनेमा में उल्लेखनीय योगदान के लिए बारह बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजे गए बुद्धदेव दासगुप्ता की नई हिंदी फिल्म “अनवर का अजब किस्सा” आज के बहुचर्चित अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी को केंद्र में रखकर बनाई गई है जिसमें उन्होने एक निजी जासूस अनवर की भूमिका निभाई है। “अंधी गली”(1984) और “बाघ बहादुर” (1989 ) के बाद बुद्धदेव दासगुप्ता अर्से बाद हिंदी सिनेमा मे लौटे हैं। फिल्म का मुख्य पात्र अनवर दरअसल उनकी अपनी छवियों का कोलाज है।

कोलकाता महानगर का निम्नवर्गीय प्रसंग सदा की तरह यहॉ भी है । जासूस का काम करते हुए अनवर के आसपास कई तरह की कहानियॉ , कई तरह के लोग , कई तरह की घटनाएं गुजरती हैं।कुछ मॉ- बाप शादी के सिलसिले में अपने और दूसरों के बच्चों की जासूसी करवाते है। पत्नियॉ अपनें पतियों की तो पति अपनी पत्नियों की जासूसी करवातें हैं।कई घटनाएँ हास्य से शुरू होती हैं और करूणा पर खत्म होती हैं। आत्महत्या के एक मामले की छानबीन मे अनवर को पता चलता है कि इसके पीछे का कारण समलैंगिक संबंध था । एक किसान का मजदूर बेटा गायब हो जाता है ।अनवर बिना फीस लिए उसकी खोज शुरू करता है और बच्चों की तस्करी करनेवाले गिरोह तक पहुँच जाता है। अपने अमीर बच्चों द्वारा बेसहारा छोड़ दी गई बूढ़ी औरत अनवर को नए – नए सपने देखने मे मदद करती है।

अनवर का निजी संसार सूना है। जिससे वह प्रेम करता था वह किसी दूसरे से शादी कर चुकी है ।दिनभर का थका हारा जब वह घर आता है तो सस्ती रम की बोतल और उसका पालतू कुत्ता ही उसका साथ देते हैं और यही से सिनेमा में फंतासी की हैरतअंगेज दुनिया शुरू होती है।हम महानगर की एक ऐसी दुनिया देखते हैं जहा हर कोई बस यूँ ही जिए जा रहा है – ऊब, थकान, धोखा, लालच, बेचैनी, उदासी और इंतजार के साथ। फिल्म का निर्णायक मोड़ तब आता है जब अनवर को एक अजीब केस मिलता है। एक आदमी कारपोरेट की उँची नौकरी , अपनी सुंदर पत्नी और छोटी बच्ची को छोड़ अचानक गायब हो जाता है। उसे खोजते हुए अनवर जब शहर से दूर ग्रामीण इलाकों में भटकता है तो उसे जिंदगी का सही मतलब समझ में आता है। उसे खोया हुआ आदमी तो मिल जाता है पर अब दोनो शहर नहीं लौटना चाहते । कहॉ जाना है ये किसी को नही पता। दोनों ने अपने मोबाइल फोन पहले ही फेंक दिए है। उन दोनों के रास्ते अलग हैं । कैमरा आसपास की साधारण गतिविधियों से चलता हुआ अनंत की ओर जाते हुए मनुष्य पर फोकस हो जाता है। आज के भागमभाग के दौर में यह फिल्म अपने दृश्यों में शास्त्रीय संगीत की विलंबित तान की तरह है जहॉ महानगरीय जीवन की धूसर- मटमैली छवियॉ दार्शनिक अंतराल बनाती हैं। बुद्धदेव दासगुप्ता ने इसे खुद की यात्रा कहा है। नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने “मिस लवली” फेम निहारिका सिंह, अन्नया चटर्जी, पंकज त्रिपाठी जैसे सहयोगी कलाकारों के बावजूद पूरी फिल्म अपने अभिनय के बल पर उठा रखा है।

“नानक शाह फकीर” सिक्खों के पहले धर्मगुरू गुरू नानक देव के जीवन पर बनी एक भव्य फिल्म है जिससे ए के बीर रसूल पोकुटी ए आर रहमान सागर सरहदी उत्तम सिह जैसे सिने जगत के जानेमाने लोग जुड़े हुए हैं। कुछ शुरूआती विवादों के बाद इसे सिक्ख धर्म की सर्वेच्च संस्थाओं ने क्लीन चिट दे दी। आज के अशांत पंजाब के लिए यह एक जरूरी फिल्म है जो सर्व धर्म समभाव को सही संदर्भ में दिखाती है। एक बड़ी सावधानी यह बरती गई है कि कहीं भी गुरू नानक देव का चेहरा नहीं दिखाया गया है और न हीं अंधविश्वास को बढ़ावा देनेवाले दृश्य हैं।चमत्कार के दृश्य भी बहुत कम हैं। मुख्य भूमिकाएँ आरिफ जकारिया, पुनीत सिक्का, आदिल हुसैन, टाम आल्टर आदि ने निभाई है। कुछ गाने पंडित जसराज ने गाए हैं। एके बीर का छायांकन बेहतरीन और भव्य है। फिल्म में धर्म से अधिक आध्यात्मिकता पर जोर दिया गया है। युद्ध और हिंसा के दृश्यों को कुछ कम किया जा सकता था। गुरू नानक देव के भारत यात्रा प्रसंग को पूरी भव्यता और विस्तार के साथ फिल्माया गया है। फिल्म के क्रेडिट में निर्देशक की जगह किसी का नाम नही दिया गया है जबकि सरकारी दस्तावेजों में ए के बीर का नाम है।

लेखक अजित राय वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार, आलोचक और कला समीक्षक हैं. उनका यह लिखा जनसत्ता अखबार में प्रकाशित हो चुका है.

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