उस नर्सिंग होम के अन्दर की दिवारों पर संवेदना से लबालब मातृत्व सुख के पोस्टर चिपके हुए थे। इन्हें देखकर किसी का भी मन यकीनन धरती पर आने वाले नवागंतुक के लिए उत्साह से भर जाय। हां ये अलग बात है कि इसके पीछे दवा कंपनिया अपने बाजार तलाशने की पुरजोर कोशिश कर रही हैं। अंदाजा लगा सकता हूं उनकी उत्सुकता का जिनका पूरा घर नए मेहमान के आने की तैयारी में सपने बुनता है। लेकिन जब वो सपने नर्सिंग होम में लगे इन संवेदनात्मक पोस्टरों से परे यहां चल रहे डर के कारोबार से रूबरू होती है तो एक झटके सारी खुशियां किसी कसाई के छुरी के नीचे हलाल होती दिखती है। अभी-अभी एक नवजात को देखकर लौट रहा हूं। धरती पर आगमन को इस नवजात को चंद घंटे हुए है। छोटा सा ये बच्चा कभी अपनी आंखे खोल और बन्द कर रहा है, तो कभी अपनी मुट्ठियों को भींच कर प्रतिवाद कर रहा है, जैसे कह रहा हो मैं अभी-अभी तो आया हूं, मुझे बस अपने बाहों में भर लो मां, इससे ज्यादा सुरक्षित जगह तो कोई हो ही नहीं सकती, मेरे लिए। मां तुम छांव की तरह हो फिर कोई बला भला मुझतक कैसे पहुंच सकती है।
देख रहा हूं अभी तो वो अपनी अधखुली आंखो से दुनियां को टटोल रहा है। पर ये क्या उसके पैदा होते ही सभी ने अपने एकाउंट खोल दिए हैं। डाक्टर से लेकर ज्योतिषी तक सबने इस एकाउन्ट में पैसा जमा करवाने के लिए भूमिका गढ़ ली है। पहला एकाउन्ट तो डाक्टर ने ही खोल दिया। मामूली सी डेलिवरी के केस का ऐसा हौआ खड़ा कर दिया कि बेचारी मां की तो जान ही निकल गई, घरवालों के चेहरे से सारी खुशी कहीं काफूर हो गई, वो किसी सूखे पत्ते की तहर कांपने लगी। नाक पर चश्मा चढ़ाए स्थूलाकार डाक्टर मुझे किसी माफिया की तरह रंगदारी मांगते हुए लगी। हालांकि उसके पास कोई अत्याधुनिक असलहा नहीं था लेकिन उसके पास डराने का अचूक हथियार था। बड़ी बात है कि इस आतंक या डर की कोई सजा किसी कानून के पास नहीं है। खैर किसी की हिम्मत भी नहीं हुई कि धरती के भगवान के हुक्म की नाफरमानी करे। हालाकि मां को किसी तरह की कोई तकलीफ नहीं थी, वो नार्मल थी। फिर क्या साथ में आए लोगो की तो पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई। कहते हैं मरता क्या न करता। हजारों का बिल बनवाकर जमा भी करवा लिया। दवा की लम्बी पर्ची थमा दी। जुबान की भी अपनी बानगी होती है। देखिए न इसी जुबान ने निकले हुए शब्द जिंदा आदमी को मुर्दा बना कर रख देते हैं और हिम्मत हार चुके आदमी को फिर से खड़ा कर देते हैं।
अब डाक्टर भला क्यों हिम्मत हार रहे किसी आदमी के अन्दर हौसला भरे। उनके लिए तो ये घााटे का सौदा होगा। अगर आदमी डरा नहीं, भयभीत नहीं हुआ तो फिर उनकी दुकान यानि नर्सिंग होम कैसे दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की की कुंचाले भरेगी। अगर एक रूपये के काम के बदले हजार न खर्च करवा दे तो बड़ा डाक्टर काहे का। घर वाले डाक्टर के लम्बे-चौड़े खर्च चे के शाक से उबरे भी नहीं थे कि मुझे एक नई बात सुनने को मिली। पता चला किसी पंडित जी ने बता दिया कि बच्चा मुढ़ में पैदा हुआ है। अब यहां से पंडित का एकान्ट चालू हो गया। लीजिए, डालिए हजारों रूपये पंडित जी के एकाउन्ट में पलक झपकते ही। पंडित जी बच्चे के सिर में मूढ़ उतार फेकेंगे नहीं तो मूढ़ सिर पर लादे ये बच्चे जिंदगी भर नाकाम रहेगा। माफ कीजिए। ये मैं नहीं कह रहा हूं। पंडित जी के कथनानुसार मैं केवल आपको बता रहा हूं।
मैं तो सोच रहा हूं फूल से भी नाजुक बच्चे के सिर पर इतना बोझ हम अभी से लाद रहे हैं। इतने शगुन-अपशगुन के फेरों में उसे अभी से लपेट रहे हैं कि आगे चलकर इस बच्चे का क्या होगा। मैं तो चाहता हूं कि इस बच्चे को हम ढेरों दुआए दे, उसे अपने बाहों में भर के चूम ले कि इस अपनेपन के गर्माहट से इस बच्चे की जिदंगी की हर राह आसान हो जाए। यकीनन जिदंगी के राहों में हमे झाड़-फूंक, ताबीज, पंडित, मुल्ला से ज्यादा जरूरत अपनों के अपनेपन की होती है। इसके आगे कोई बला ठहर नहीं सकती।
… क्या मैं गलत कह रहा हूं। आखिरकार बच्चे के पैदा होने के साथ हमे लूटने वालों के एकाउंट कौन बंद करवाएगा? ये डर का कारोबार कहां जाकर थमेगा, इस पर नकेल कौन कसेगा, क्योंकि कहीं न कहीं सबका हिस्सा सब तक पहुंच रहा है। ये हम पढ़े-लिखे नफासत से भरे लोगों का एक गोल है, जिसमें साधरण मानुष बस गोल-गोल घूमकर थक हारकर बैठ जाता है। फिलहाल मैं खुश हूं इंसानों की दुनिया में एक नए मेहमान के आने से। क्योंकि जो नया है उसमे संभावना ज्यादा है। उम्मीद की इसी किरण का हाथ थामे मैं चलना चाहता हूं। बस इतना चाहता हूं कि हर तरह के डर का कारोबार बंद हो।
लेखक भाष्कर गुहा नियोगी बनारस के युवा और जन सरोकारी पत्रकार हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.